भारत का किसान सरकारों से उम्मीद करता है कि उसकी वाजिब समस्या पर ध्यान देकर उसका निदान किया जायेगा। लेकिन 1955 के बाद कोई सरकार किसान की बढ़ोतरी, खुशहाली, लाभकारी मूल्य पर कभी गौर नहीं किया। 2014 के आम चुनाव में स्वामीनाथन कमेटी की कृषि सम्बन्धी रिपोर्ट लागू करने का वायदा हुआ था प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी ने अपनी हर चुनावी सभा में स्वामीनाथन कमेटी का जिक्र किया था और किसानों को लाभकारी मूल्य दिलाने का भरोसा दिलाया था किन्तु पांच वर्ष का कार्यकाल बीतने के बाद और नयी सरकार बनने पर भी स्वामीनाथन कमेटी की रिपोर्ट पर कोई निर्णय नहीं लिया जा सका है।
2019 के आम चुनाव एक विशेष परिस्थिति में लड़ा गया उस समय किसान का मुद्दा गौण हो गया था आतंकवाद और पकिस्तान के साथ हुए सर्जिकल स्ट्राइक पर चुनाव केंद्रित था और किसानों के मुद्दे व किसान की आमदनी दोगुना करने का वायदा पर कोई गंभीर चर्चा नहीं हुई। किसान अपने को ठगा महसूस करता रह गया सरकार ने न्यूनतम सरकारी मूल्य में मात्र तीन प्रतिशत की वृद्धि प्रतिवर्ष करती है जो लागत के अनुरूप नहीं है। न्यूनतम सरकारी खरीद मूल्य पर भी किसान का उपज नहीं बिक पाता है उसे बाज़ार के सहारे ही अपना उत्पाद बेचना पड़ता है जो घोषित मूल्य से कम दाम पर होता है। सरकार ने जो सरकारी खरीद केंद्र प्रदेशों में बनाती हैं और जहां किसान अपना धान व गेहूं एवं अन्य उपज बेचता है उसका आंकड़ा महज 6 प्रतिशत है।
आज किसानों में देश भर में जो आक्रोश है नाराजगी है वह यह है की कृषि बिल बिना किसान संगठनो की चर्चा एवं उनकी मांग के विपरीत सदन में जल्दीबाजी में हुआ है । जून के महीने में कोरोना काल में अध्यादेश निकालना लोगों को आश्चर्य लगा उससे लोगों का संदेह सरकार पर गहरा हुआ है। किसानों को लग रहा है कि जिस तरह का कृषि बिल में प्रावधान किया गया है उससे किसानों की न्यूनतम खरीद मूल्य से पल्ला झाड़ने की दिशा में उठाया गया कदम है। यदि सरकार की नियत किसान हितैषी होती तो सरकार इस बिल में यह प्रावधान भी कर देती की कोई भी खरीदार या व्यापारी किसान से न्यूनतम खरीद मूल्य से कम पर खरीद नहीं करेगा। किन्तु सरकार ने ऐसा प्रावधान नहीं किया।
जबकि 2011 में जब नरेन्द्र मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री थे तब वह खाद्य आपूर्ति एवं खरीद के लिए केंद्र सरकार द्वारा गठित कमेटी के अध्यक्ष थे। उन्होंने तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को पत्र लिखा था कि किसान को न्यूनतम समर्थन मूल्य नहीं मिल पता है। तब मोदी ने किसानों को निर्धारित न्यूनतम समर्थन मूल्य दिलाने के लिए केंद्र सरकार से क़ानून बनाये जाने की मांग की थी।
किसानों की तरफ से आज यही मांग की जा रही है कि सरकार किसानों के हित में न्यूनतम समर्थन मूल्य दिलाने के लिए कानून बनाये और देश में जितनी मंडी समितियां चाहिए उतनी मंडी समिति का निर्माण करे और जो मंडी समितियों में कमियां हैं उसको सुधार करे। सरकार यह भी सुनिश्चित करे कि किसान का निर्धारित न्यूनतम समर्थन मूल्य उसे प्राप्त हो सके। किसान वर्तमान कृषि बिल से आशंकित है, निराश है।
जिस तरह से कृषि बिल में कांट्रैक्ट खेती का प्रावधान हुआ है और आवश्यक वस्तु अधिनियम 1955 को समाप्त किया गया है उससे बाज़ार और खेती पर कॉरपोरेट घरानों का कब्ज़ा होगा किसान के साथ मनमानी होगी उन्हें अपने ही जमीन पर बधुआ मजदूर बनकर कॉरपोरेट कंपनी की गुलामी करनी होगी इस बिल से सरकार देश में नवसामंत वाद एवं जमींदारी खड़ा कर रही है जो दुर्भाग्यपूर्ण है। देश में कृषि क्षेत्र में काम कर रहे और कृषि पर निर्भर हजारों की संख्या में किसान आत्महत्या कर रहे हैं।
भारत जैसे कृषि प्रधान देश के लिए यह अत्यंत शर्मनाक अवस्था है। सरकार को इस मुसीबत से किसान को बहार निकालना चाहिए और उसे स्वामीनाथन कमेटी की सिफारिशें लागू करना चाहिए। उसी के आधार पर लागत मूल्य में किसान का श्रम और जमीन का किराया जोड़कर किराया और लागत दोनों जोड़कर लाभकारी मूल्य तय करे तथा उसी मूल्य पर खरीदारी का कानून बनाये तभी किसान की आत्महत्या रुकेगी और देश का किसान आत्मनिर्भर बनेगा।
1955 में प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री जी ने ‘जय जवान जय किसान’ का नारा दिया था और किसानों को प्रोत्साहन के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य लागू किया था। जिसके कारण किसानों का उत्पादन का मूल्य कुछ हद तक वाजिब मिलता रहा। किन्तु इस समय जिस तरह लागत बढ़ी है उस अनुपात में किसान का न्यूनतम समर्थन मूल्य नहीं बढ़ा है। इसी बात को ध्यान में रखते हुए नए सिरे से विचार करने हेतु स्वामीनाथन कमेटी का गठन हुआ था। किन्तु उसकी रिपोर्ट आज तक लागू नहीं क्या जा सका।
नरेन्द्र मोदी सरकार बार-बार चुनाव में अपनी सभाओ में किसानों की आय दोगुनी करने और स्वामीनाथन कमेटी का जिक्र करते रहे हैं। लेकिन जिस प्रकार का वर्तमान कानून बना है कृषि पर उससे किसान का कोई भला नहीं होने वाला है। इस बिल में जिस तरह जमाखोरी कानून को समाप्त किया गया है उससे देश में किसान और उपभोक्ता दोनों परेशान होंगे।
जिस तरह प्याज की जमाखोरी के कारण किसान को कोई फायदा नहीं होता और उपभोक्ता को भरी कीमत चुकानी पड़ती है वही हालत खद्यान के क्षेत्र में भी होगा। किसान के यहां जब उत्पादन होता है तो 4 रुपये से 5 रुपये प्रति किलोग्राम के हिसाब से प्याज खरीद कर जमाखोरी कर ली जाती है और बाद के दिनों में जब किसान के घर प्याज नहीं होती है तो मनमानी कीमत पर प्याज बेचीं जाती है जिससे उपभोक्ता की कमर टूट जाती है।
सरकार का दावा कि किसान अब आजाद हो गया है अपना माल कहीं भी बेच सकता है यह इस कानून में प्रावधान कर दिया गया है, यह सही नहीं है। किसानों को अपना अनाज बेचने पर कभी कोई प्रतिबन्ध नहीं था। 1977 में ही जनता पार्टी की सरकार ने प्रतिबन्ध हटा लिया था। आज 80 से 85 प्रतिशत छोटे किसान हैं। जिनकी दो से पांच एकड़ तक अधिकतम जमीन है। जिस पर धान, गेहूं, गन्ना, मूंगफली, कपास आदि लगाता व अपनी फसल का उत्पाद स्थानीय मार्केट या खेत या घर से ही बेच देता है। किसान के पास न तो स्टोर करने की क्षमता है ना ही उसके लिए यह अनुकूल है। इसलिए किसान को आजाद कर देने का तर्क एक धोखा है।
2020 का कृषि बिल किसान के हित में कत्तई नहीं है बल्कि आजाद किसान को गुलामी के तरफ ले जाने वाला काला कानून है। धीरे-धीरे बड़ी कॉरपोरेट कंपनियां किसान को उसकी जमीन से बेदखल कर उसे बधुआ मजदूर बना देंगी। ग्रामीण अर्थव्यवस्था को यह कानून तहस नहस कर देगा तथा सरकार कुछ दिन बाद न्यूनतम समर्थन मूल्य से पल्ला झाड़ लेगी। किसानों को कॉरपोरेट के हवाले कर देगी जो भारत के लिय एक अभिशाप होगा। यदि सरकार वाकयी किसान का हित चाहती है तो उसे स्वामीनाथन कमेटी की सिफारिशें तुरंत लागू करना चाहिए। न्यूनतम समर्थन मूल्य को लाभकारी समर्थन मूल्य का कानून बनाकर लागू करना होगा तभी किसान का भला होगा। यह कृषि बिल किसान हित के विरुद्ध है, किसानों के लिये काला कानून है जिसे सरकार को वापस लेना चाहिए।
(लेखक भाजपा युवा मोर्चा के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष, पूर्व MLC और राष्ट्रीय किसान सभा के अध्यक्ष हैं।)