अलास्का के ऐंकरेज शहर में अमेरिकी और रूसी राष्ट्रपतियों की मुलाकात से सार्वजनिक स्तर पर कोई बड़ा नतीजा सामने नहीं आया है। दोनों के बीच तीन घंटा लंबी बातचीत हुई लेकिन दोनों के साथ गए हाई-पावर प्रतिनिधिमंडलों ने अगर आपस में कुछ काम की बातें की भी हों तो वे दुनिया की जानकारी में नहीं आई हैं। अनुमान था कि दोनों पक्षों के बीच वार्ता सात घंटे तो चलेगी ही, लेकिन जैसा डॉनल्ड ट्रंप ने वापसी की यात्रा में बताया- ‘एक खास डील के बिना कोई और डील नहीं।’ खास डील, यानी यूक्रेन में शांति की स्थापना।
ट्रंप जानते हैं, और बाकी दुनिया भी जानती है कि एक दिन में बंदूकें खामोश करवा देने वाली बात चुनाव प्रचार के लिए ही ठीक है। यूक्रेन में लड़ाई रोकना टेढ़ा काम है। लेकिन पूतिन से उनका मिलना संवाद के लिए एक रास्ता खोलने वाला जरूर साबित हुआ है। अभी साल भर पहले तक तो यही नहीं समझ में आ रहा था कि यूरोपीय देश और अमेरिका जब व्लादिमीर पूतिन को मानवाधिकार के मसले पर हर हाल में गिरफ्तार कर लेने पर ही अड़े हुए हैं तो आगे कभी शांतिवार्ता का मौका आ भी गया तो वे बात किससे करेंगे।
साढ़े तीन साल से ज्यादा लंबी चल चुकी लड़ाई में मैदान-ए-जंग का फैसला अभी दूर है, लेकिन पिछले कुछ महीनों से पलड़ा रूस का ही भारी दिख रहा है। शायद यह दिखाने के लिए कि मामला उतना एकतरफा भी नहीं है, ऐन बातचीत के दिन ही यूक्रेन ने अपने लंबी दूरी के ड्रोन्स से सुदूर कैस्पियन सागर में खड़े एक रूसी मालवाहक जहाज पर हमला किया। लड़ाई में इससे चाहे जितना भी फायदा उसे हुआ हो, बैठक में यूरोपीय देशों को शांति के रास्ते में रोड़े अटकाने वाली शक्ति बताने का एक मौका पूतिन को जरूर मिल गया।
टूटा अलगाव
जिस एक बात को दुनिया के सारे राजनीतिक विश्लेषक रेखांकित कर रहे हैं, वह यह कि पूतिन को अलग-थलग कर देने की यूरोपीय कोशिशें अलास्का में रेड कार्पेट पर चलकर डॉनल्ड ट्रंप से उनके हाथ मिला लेने के साथ ही ध्वस्त हो गई हैं। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद से यह पहला मौका है, जब अमेरिका से तो रूस के रिश्ते दोस्ताना दिखाई पड़ रहे हैं, जबकि यूरोप ने उसके खिलाफ अपने सारे घोड़े खोल रखे हैं।
छवि के स्तर पर यह इतना प्रबल संकेत है कि वार्ता के तुरंत बाद यूरोप के सभी बड़े नेताओं को ट्रंप द्वारा ब्रीफ किए जाने के बावजूद वोलोदिमीर जेलेंस्की, राष्ट्रपति यूक्रेन को अमेरिका पहुंचकर उनसे आमने-सामने मुलाकात के लिए पहली संभव तारीख लेनी पड़ी। यूरोप के नेताओं को आज भी लगता है कि अपने हथियारों और कूटनीति के बल पर वे रूस के खिलाफ इतना मजबूत दबाव बना सकते हैं कि पूतिन तत्काल लड़ाई रोकने और यूक्रेन से अपनी फौजें हटाने को मजबूर हो जाएं। अभी की स्थिति में यह किसी दिवास्वप्न जैसा ही लगता है।
इस तरह की स्थिति एक बार 2023 में बनती हुई लग रही थी, जब यूक्रेन के कई इलाकों से रूसी फौजों को पीछे हटना पड़ा था। 2024 के अमेरिकी आम चुनाव में और कई यूरोपीय देशों के चुनावों में भी यूक्रेन के उग्र समर्थक नेताओं की पराजय के बाद से स्थितियां बहुत बदल गई हैं। सौदेबाजी की आखिरी कोशिश की तरह यूक्रेनी फौजों को रूस के कुर्स्क प्रांत का कुछ हिस्सा अपने कब्जे में कर लेने को राजी किया गया। लेकिन यह कब्जा हटाने के लिए ऐन मौके पर उत्तर कोरिया की मदद लेकर रूस ने बाजी पलट दी। उसके बाद से यूक्रेन का हर दांव उलटा पड़ रहा है और यूरोप की भी बार-बार भद पिटती जा रही है।
फोर्ट्रेस बेल्ट
पूर्वी यूक्रेन के जिस हिस्से में अभी सबसे घनघोर लड़ाई चल रही है, उसे फोर्ट्रेस बेल्ट यानी किलेबंदी का इलाका कहा जाता रहा है। इस ठंडे इलाके में आमने-सामने की जंग सितंबर या हद से हद अक्टूबर के पहले पखवाड़े तक ही चल पाती है। उसके बाद चार महीना पूरा इलाका बर्फ में जमा रहता है, जंगल पारदर्शी हो जाते हैं और बात सुरक्षित जगहों से एक-दूसरे पर ड्रोन या मिसाइल फेंकने तक सिमट जाती है। अभी हाल यह है कि रूसी फौजें किलेबंदी वाले यूक्रेन के आधे से ज्यादा शहरों पर या तो कब्जा कर चुकी हैं, या तीन तरफ से उन्हें अपने घेरे में ले चुकी हैं। जेलेंस्की की कोशिश फिलहाल यही होगी कि युद्धबंदी अगर होनी है तो जल्द से जल्द हो जाए।
ऐसा न हो पाया और लड़ाई अभी जैसी ही एकतरफा शक्ल में अगले डेढ़-दो महीने और खिंच गई तो रणनीतिक महत्व के कई शहर उनके हाथ से निकल जाएंगे और जाड़े शुरू होने के साथ सौदेबाजी की उनकी क्षमता बहुत कम हो जाएगी। डॉनल्ड ट्रंप के लिए यह स्थिति एक मायने में बहुत उत्तम है कि उनकी अथॉरिटी को चुनौती देने वाला अभी कोई नहीं है। सारी ताकतें टकटकी लगाए देख रही हैं कि अमेरिकी राष्ट्रपति के मन की मौज कब उन्हें कहां ले जाती है।
भारत की मुश्किलें
पिछले कार्यकाल में उन्हें चुनौती या तो यूरोपीय नेताओं की ओर से मिली थी, या फिर चीनी राष्ट्रपति शी चिनफिंग की तरफ से। चीन ने इस बार अपने हितों की एक रेखा खींच दी है और ट्रंप के रास्ते में ज्यादा न ही पड़ने का फैसला कर लिया है जबकि यूरोप के किसी नेता में बराबरी की टक्कर देने वाला कद ही नहीं बचा है। ग्लोबलाइजेशन के बाद बनी कमोबेश ‘लेवल प्लेयिंग फील्ड’ वाली दुनिया के लिए यह स्थिति बड़ी घातक सिद्ध हो रही है।
खास तौर पर भारत की नजरें ट्रंप-पूतिन वार्ता पर इसलिए लगी हुई थीं कि रूस पर दबाव डालने के लिए सेकंड्री टैरिफ की जो तलवार उससे व्यापार करने वाले देशों के सिर पर अमेरिका की ओर से लटका दी गई है, उसे हटाने का शायद कोई रास्ता निकल आए। ट्रंप ने न तो पूतिन से बातचीत के बाद पत्रकारों को संबोधित करते हुए, न ही अलास्का से वापसी के बाद दिए गए बयानों में अपनी धमकी से पीछे हटने का कोई संकेत दिया है।
जितना बड़ा भूगोल रूस के हिस्से में आता है, छोटा से बड़ा तक संसार का एक भी देश ऐसा नहीं है, जो किसी न किसी चीज के लिए किसी न किसी हद तक रूस पर निर्भर न करता हो। यूक्रेन युद्ध को अपने लिए जीवन-मरण का प्रश्न बताने वाले यूरोपीय देश भी इसी गहमागहमी में हर महीने अरबों डॉलर का आयात उससे करते आ रहे हैं। लेकिन उसी रूस से तेल खरीदने के लिए अमेरिका बहुत जल्द 25 प्रतिशत अतिरिक्त आयात कर भारत पर लगाने जा रहा है।
(चंद्रभूषण वरिष्ठ पत्रकार हैं और दिल्ली में रहते हैं)