इलाहाबाद हाईकोर्ट ने सुप्रीमकोर्ट को आईना दिखाया


अभी कुछ दिन पहले उच्चतम न्यायालय ने जामिया मामले में टिप्पणी की थी कि जब तक
उपद्रव नहीं रुकेगा,वह सुनवाई नहीं करेगा। सबरीमला और आरटीआई के मामले में
भी उच्चतम न्यायालय की कुछ ऐसी ही टिप्पणियाँ आईं।



इलाहाबाद हाईकोर्ट ने जाने अनजाने उच्चतम न्यायालय को भी आईना दिखा दिया है। इलाहाबाद हाईकोर्ट ने इस बात पर बल दिया है कि जब न्यायालय के समक्ष एक भयावह अवैधता होती है, तो उसे प्रभावित पक्ष के संपर्क करने की प्रतीक्षा नहीं करनी चाहिए। ऐसे मामलों में न्यायालय को न्याय की घंटी बजाने के लिए किसी व्यक्ति के आने का इंतजार करने की आवश्यकता नहीं है। न्यायालयों का उद्देश्य न्याय प्रदान करना है और यदि कोई सार्वजनिक अन्याय हो रहा है तो कोई भी अदालत अपनी आंखें बंद नहीं कर सकती। वहीं उच्चतम न्यायालय ने नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) विरोधी प्रदर्शनों के बीच जनवरी के आखिरी हफ्ते में कहा था कि जब देश में प्रदर्शन हो रहे हों तो वह, अधिकारियों के हाथ नहीं बांध सकता।

उच्चतम न्यायालय ने कुछ राज्यों और राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में लागू राष्ट्रीय सुरक्षा कानून (एनएसए) को चुनौती देने वाली याचिका पर विचार करने से इनकार कर दिया था। जस्टिस अरुण मिश्रा और जस्टिस इंदिरा बनर्जी की पीठ ने कहा था कि ऐसे समय में जब विरोध प्रदर्शन चल रहे हैं, अधिकारियों के हाथ कैसे बांधे जा सकते हैं। जस्टिस मिश्रा ने कहा, ‘यह कानून-व्यवस्था का मुद्दा है। हम कैसे हस्तक्षेप कर सकते हैं’?

अभी कुछ दिन पहले उच्चतम न्यायालय ने जामिया मामले में टिप्पणी की थी कि जब तक उपद्रव नहीं रुकेगा, वह सुनवाई नहीं करेगा। सबरीमला और आरटीआई के मामले में भी उच्चतम न्यायालय की कुछ ऐसी ही टिप्पणियाँ आईं। इन तीनों मामलों में उच्चतम न्यायालय के चीफ़ जस्टिस के इन बयानों से जो संदेश निकला वह चिंताजनक था। कहा जाता है कि न्याय न केवल होना चाहिए, बल्कि ऐसा लगना भी चाहिए कि न्याय हुआ है। लेकिन ऐसा होता दिख नही रहा।

इसी तरह जिस उच्चतम न्यायालय ने हिंसा के डर से सबरीमला के बारे में प्रतिकूल आदेश देने से परहेज़ किया था, उसी उच्चतम न्यायालय ने हिंसा को ही आधार बनाकर जामिया विश्वविद्यालय में हुई पुलिसिया कार्रवाई पर सुनवाई करने से इनकार कर दिया और कहा कियह कहते हुए कि जब तक उपद्रव नहीं रुकेगा, वह सुनवाई नहीं करेगा। दोनों पीठों की अध्यक्षता चीफ जस्टिस शरद अरविंद बोबडे ही कर रहे थे। यह न्याय है या अन्याय है कि सबरीमला के मुद्दे पर उच्चतम न्यायालय कह रहा था कि वे हिंसा कर सकते हैं, इसलिए हम उनके ख़िलाफ़ आदेश नहीं देंगे और जामिया के मुद्दे पर भी उच्चतम न्यायालय कह रहा था कि वे हिंसा कर रहे हैं, इसलिए हम उनका पक्ष नहीं सुनेंगे।

उच्चतम न्यायालय यह बात तब कह रहा है जबकि अभी यह तय भी नहीं हुआ है कि जामिया मामले में हिंसा किसने की। याचिका भी इसी मुद्दे पर थी कि पुलिस ने जामिया विश्वविद्यालय में घुसकर छात्रों को मारा-पीटा और तोड़फोड़ की। उनका मुद्दा यही था कि पुलिस ने निर्दोष छात्रों के ख़िलाफ़ अनुचित कार्रवाई की।याचिका पुलिस की ज़्यादतियों पर थी और उच्चतम न्यायालय मांग कर रहा था कि पहले हिंसा रुके। इससे क्या यह नहीं प्रतीत होता कि उच्चतम न्यायालय इस पूर्वाग्रह से ग्रस्त था कि हिंसा छात्रों ने की और वे ही इसके लिए ज़िम्मेदार हैं। इसी आधार पर उसने प्रथम दृष्टया छात्रों को दोषी ठहरा दिया।

इन विपरीत परिस्थितियों में पोस्टर लगाने के मामले में इलाहाबाद हाईकोर्ट का स्वत: संज्ञान लेने की घटना हवा के एक ताज़ा झोंके के रूप में सामने आई और यह संदेश देने में सफल रही कि न्यायपालिका में अभी भी ऐसे न्यायाधीश हैं जिनके लिए संविधान और कानून का शासन सर्वोपरि है।

इलाहाबाद हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस गोविंद माथुर और जस्टिस रमेश सिन्हा की खंडपीठ ने कहा कि न्यायपालिका आमतौर पर किसी मामले में तब कार्यवाही करती है जब वह उसके सामने लाया जाता है और अधिकतर यह प्रतिकूल मुकदमेबाजी होती है, लेकिन, जहां सार्वजनिक प्राधिकरणों और सरकार की ओर से घोर लापरवाही होती है, जहां कानून की अवहेलना की जाती है और जनता सार्वजनिक रूप से पीड़ित होती है और जहां संविधान के कीमती मूल्यों को चोटों पहुंचाई जाती है, वहां एक संवैधानिक अदालत बहुत अच्छी तरह से संज्ञान ले सकती है।

खंडपीठ ने सुओ मोटो कार्रवाई के औचित्य पर विस्तार से बताते हुए कहा कि इस मामले में, भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत संरक्षित अधिकारों पर गंभीर चोट पहुंचाने की एक वैध आशंका मौजूद है, जो न्यायालय द्वारा अपने आप में पर्याप्त उपचार की मांग करता है। ऐसे मामलों में सीधे प्रभावित व्यक्तियों की आर्थिक स्थिति प्रभावित होती है। हाईकोर्ट के समक्ष प्रमुख विचार मौलिक अधिकारों, विशेष रूप से भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत संरक्षित अधिकारों पर हमले रोकना है।

इस मामले में उत्तर प्रदेश के महाधिवक्ता राघवेन्द्र सिंह की पहली आपत्ति यह थी कि हाईकोर्ट इस मुद्दे के संबंध में स्वत: संज्ञान  नहीं ले सकता। उन्होंने तर्क दिया था कि पीआईएल दायर करने का उपाय उन वंचितों के लिए है जो अदालतों तक नहीं पहुंच सकते। जिन व्यक्तियों के व्यक्तिगत विवरण बैनर में दिए गए हैं, यदि उन्हें कोई शिकायत है तो वे अपनी शिकायत को सुलझाने में सक्षम हैं, एजी ने तर्क दिया। महाधिवक्ता राघवेन्द्र सिंह ने स्टेट ऑफ उत्तरांचल बनाम बलवंत सिंह चौफाल और अन्य, 2010 (3) एससीसी 402 मामले में उच्चतम न्यायालय के फैसले का हवाला दिया जिसमें पीआईएल क्षेत्राधिकार को कारगर बनाने के लिए न्यायालयों के लिए दिशा निर्देश जारी किए गए हैं। इस पर प्रतिक्रिया देते हुए पीठ ने कहा कि उच्चतम न्यायालय द्वारा निर्धारित दिशा-निर्देश एक पक्ष द्वारा जनहित याचिका के संदर्भ में थे, जिसमें न्यायालय द्वारा स्वत: संज्ञान लेकर की गई कार्रवाई से उत्पन्न मामले का कोई लेना देना नहीं था। पीठ ने यह भी कहा कि यह सुनिश्चित करने के लिए अपने दिमाग को लागू किया कि जनहित याचिका वास्तविक जन हानि या सार्वजनिक चोट के निवारण के उद्देश्य से है।

खंडपीठ ने कहा कि यूपी सरकार हमें यह बता पाने में नाकाम रही कि चंद आरोपियों के पोस्टर ही क्यों लगाए गए, जबकि यूपी में लाखों लोग गंभीर आरोपों का सामना कर रहे हैं। बेंच ने कहा कि चुनिंदा लोगों की जानकारी बैनर में देना यह दिखाता है कि प्रशासन ने सत्ता का गलत इस्तेमाल किया है।

स्वत: संज्ञान लेते हुए इलाहाबाद हाईकोर्ट ने सोमवार को लखनऊ में यूपी पुलिस द्वारा लगाए गए सभी पोस्टरों और बैनरों को हटाने का आदेश दिया। इन बैनरों में नागरिकता संशोधन अधिनियम (सीएए) के विरोध प्रदर्शन ले दौरान हिंसा फैलाने के आरोपी व्यक्तियों के नाम और फोटो वाले होर्डिंग्स लगाए थे। न्यायालय ने इन्हें हटाने का आदेश दिया। खंडपीठ ने अंततः राज्य की कार्रवाई को निजता में अनुचित हस्तक्षेपके रूप में पाया जिसका कोई कानूनी आधार और वैध उद्देश्य नहीं था। चीफ जस्टिस ने यूपी सरकार को निर्देश दिया कि बिना कानूनी इजाजत के इस तरह के बैनर सड़कों के किनारे न लगाएं

हाईकोर्ट ने रविवार को सुनवाई के दौरान कहा था कि कथित सीएए विरोधी प्रदर्शनकारियों के पोस्टर लगाने की सरकार की कार्रवाई बेहद अन्यायपूर्ण है। यह संबंधित लोगों की आजादी का हनन है।ऐसा कोई कार्य नहीं किया जाना चाहिए, जिससे किसी के दिल को ठेस पहुंचे। पोस्टर लगाना सरकार के लिए भी अपमान की बात है और नागरिक के लिए भी। किस कानून के तहत लखनऊ की सड़कों पर इस तरह के पोस्टर लगाए गए? सार्वजनिक स्थान पर संबंधित व्यक्ति की इजाजत के बिना उसका फोटो या पोस्टर लगाना गलत है। यह निजता के अधिकार का उल्लंघन है।

19 दिसंबर, 2019 को जुमे की नमाज के बाद लखनऊ के चार थाना क्षेत्रों में हिंसा फैली थी। ठाकुरगंज, हजरतगंज, कैसरबाग और हसनगंज में तोड़फोड़ करने वालों ने कई गाड़ियां भी जला दी थीं। राज्य सरकार ने नुकसान की भरपाई प्रदर्शनकारियों से कराने की बात कही थी। इसके बाद पुलिस ने फोटो-वीडियो के आधार पर 150 से ज्यादा लोगों को नोटिस भेजे। जांच के बाद प्रशासन ने 57 लोगों को सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुंचाने का दोषी माना। उनसे 88 लाख  62 हजार 537 रुपए के नुकसान की भरपाई कराने की बात कही गई। जिन लोगों की तस्वीरें होर्डिंग में लगाई गई हैं उनमें पूर्व आईपीएस एसआर दारापुरी, एक्टिविस्ट सदफ जफर और दीपक कबीर भी शामिल हैं। कबीर ने कहा कि सरकार डर का माहौल बना रही है। होर्डिंग में शामिल लोगों की कहीं भी मॉब लिंचिंग हो सकती है। दिल्ली हिंसा के बाद माहौल सुरक्षित नहीं रह गया है। सरकार सबको खतरे में डालने का काम कर रही है।

 (जेपी सिंह वरिष्ठ पत्रकार एवं कानूनी मामलों के जानकार हैं।)