
पंजाब देश का पहला राज्य बन गया है जिसने केंद्र सरकार द्वारा बनाए गए नए कृषि क़ानून के विकल्प के रूप में राज्य विधान सभा से तीन विधेयक और एक प्रस्ताव पारित कर केंद्र के क़ानून को चुनौती देने का काम किया है। राज्य के मुख्य मंत्री अमरिन्दर सिंह का कहना है की कृषि राज्य का विषय है इसलिए इस मामले में केंद्र को क़ानून बनाने का कोई अधिकार नहीं है। राज्य सूची के विषयों पर क़ानून बनाना राज्यों का काम है।
केंद्र सरकार ने नए कृषि क़ानून बना कर राज्यों के अधिकारों का अतिक्रमण किया है। गौरतलब है कि संसद के मानसून सत्र के अंतिम दिनों में केंद्र सरकार ने कृषि से सम्बंधित तीन विधेयक पारित कर कानून बनाए थे। इन विधेयकों को लेकर किसान नाराज थे और विपक्ष के साथ ही कई दशक तक भाजपा के साथ गठबंधन की राजनीति में उसके सहयोगी रहे अकाली दल ने भी उससे किनारा करना उचित समझा था। अकाली दल ने न केवल केन्द्रीय मंत्रिमंडल से अपनी एकमात्र प्रातिनिधि हरसिमरत कौर का इस्तीफा दिलवा दिया था बल्कि बाद में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन से भी बाहर हो गया था।
गौरतलब यह भी है की जब संसद से ये किसान विरोधी विधेयक पारित हुए तब मुख्य विपक्षी पार्टी कांग्रेस की अध्यक्ष सोनिया गाँधी ने इसकी संवैधानिक काट का विकल्प खोजने और इसके आधार पर कांग्रेस शासित राज्यों की विधान सभाओं से इस आशय के वैकल्पिक क़ानून बनाने का आह्वान किया था। सोनिया गाँधी की उसी सलाह पर अमल करते हुए कांग्रेस शासित राज्य पंजाब ने केंद्र के किसान विरोधी क़ानून के खिलाफ चर्चा के लिए राज्य विधान सभा का विशेष सत्र आयोजित किया था।
इसी सत्र में ये विधेयक और प्रस्ताव पारित किये गए। माना जा रहा है की पंजाब विधान सभा द्वारा पारित किये गए ये विधायी प्रावधान किसान के लिये हितकारी होने के साथ ही केंद्र के कृषि क़ानून को बेअसर साबित करने में भी सहायक बनेंगे।प्रसंगवश उल्लेखनीय है की इस साल संसद का मानसून सत्र विशेष परिस्थितियों में पिछले महीने के चौदह तारीख यानी 14 सितम्बर से शुरू हुआ था और इस सत्र की अंतिम बैठक निर्धारित अवधि से करीब एक सप्ताह पूर्व 23 सितम्बर को संपन्न हुई थी।
पूर्व निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार संसद का यह सत्र इस महीने की पहली तारीख (1 अक्टूबर) तक चलना था लेकिन कोरोना की मार से बचने की गरज से इसे अधबीच स्थगित करना पड़ गया था। इसी दौरान 16 सितम्बर को लोकसभा ने कृषि विधेयक पारित कर दिया था। लोकसभा में यह विधेयक सत्र के शुरू होने के पहले ही दिन रख दिया गया था। जिस दिन यह विधेयक लोकसभा में रखा गया था उसी दिन हर सिमरत कौर ने केन्द्रीय मंत्रीमंडल से त्याग पत्र दे दिया था।
लंबे अरसे तक राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन का हिस्सेदार रहा शिरोमणि अकाली दल शुरू से ही इस विधेयक को लेकर सरकार से नाराज था, यही वजह है की जब पंजाब की कांग्रेस सरकार ने इसकी काट के लिए वैकल्पिक विधेयक राज्य विधान सभा में रखा तो न केवल अकाली दल ने उसका समर्थन किया बल्कि उसे पारित करवाने में कांग्रेस सरकार की मदद भी की। केंद्र के किसान विरोधी कृषि क़ानून के खिलाफ पंजाब विधान सभा द्वारा पारित किये गए इस विधेयक को पास करने में राज्य के दूसरे विपक्षी दल आम आदमी पार्टी ने भी सहयोग किया था।
जब कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने पार्टी शासित प्रदेशों की सरकारों से कहा था कि वे केंद्र सरकार के ‘कृषि विरोधी’ कानूनों को निष्प्रभावी करने के लिए अपने यहां कानून पारित करने की संभावना पर विचार करें। तब कांग्रेस के संगठन महासचिव केसी वेणुगोपाल ने एक बयान जारी कर कांग्रेस शासित राज्यों को सलाह दी थी कि वे संविधान के अनुच्छेद 254 (ए) के तहत कानून पारित करने के बारे में विचार करें। संविधान का यह अनुच्छेद केंद्र सरकार द्वारा बनाए गए कृषि कानून और राज्यों के अधिकार क्षेत्र में दखल देने वाले केंद्रीय कानूनों को निष्प्रभावी करने के लिए राज्य विधानसभाओं को कानून पारित करने का अधिकार देता है।
संविधान में प्रदत्त प्रावधान का उपयोग करते हुए पंजाब सरकार ने केंद्र सरकार के नए कृषि क़ानून के विकल्प के रूप में विधेयक तो पारित करवा लिया लेकिन इसके क़ानून बनाने में एक पेचीदा कानूनी पेच अभी बाकी है। हमारे संविधान के मुताबिक़ संसद से पारित कोई भी विधेयक क़ानून का रूप तभी ले सकता है जब उस विधेयक पर राष्ट्रपति के हस्ताक्षर हो जाएँ। इसी तरह राज्य विधान मंडल द्वारा पारित कोई भी विधेयक तब तक क़ानून नहीं बन सकता जब तक राज्यपाल उस विधेयक पर हस्ताक्षर न कर दें। हालांकि संविधान के प्रावधान के मुताबिक़ राज्यपाल या राष्ट्रपति सरकार द्वारा भेजे गए किसी भी विधेयक को तीन बार से ज्यादा बार वापस नहीं कर सकते अंत में उन्हें हस्ताक्षर करने ही होते हैं।
पंजाब विधान सभा के ताजा मामले में एक बात यह भी है कि इस राज्य में विपक्षी कांग्रेस पार्टी की सरकार है और केंद्र में प्रतिद्वंदी पार्टी की सरकार है। देश का राष्ट्रपति केन्द्रीय मंत्री परिषद् की सिफारिश के अनुसार काम करता है और राज्यों के राज्यपाल राष्ट्रपति के निर्देशानुसार काम करते हैं। इन परिस्थितियों में राज्यपाल के लिए राज्य विधान सभा द्वारा पारित किये गए उस विधान पर हस्ताक्षर करना कदाचित आसान नहीं होगा जो विधान राष्ट्रपति के विधान का विरोध करता हो।
गौरतलब है की पंजाब विधान सभा ने जो विधान पारित किया है वो राष्ट्रपति के विधान का इसलिए भी विरोध करता है क्योंकि केंद्र ने जब नया कृषि क़ानून बनाया था तब उसे राष्ट्रपति के हस्ताक्षर के बाद ही राजाज्ञा का दर्जा मिला था। इन हालात में यह देखना भी कम दिलचस्प नहीं होगा की आने वाले समय में पंजाब के राज्यपाल का इस बारे में क्य़ा रुख होता है।
हालांकि पंजाब ने यह सब किया तो संविधान और विधि सम्मत ही है क्योंकि भारत के संविधान में आनुच्छेद 254(2) के तहत साफ़ साफ प्रावधान है कि राज्य सरकारें समवर्ती सूची के विषयों पर कानून बना सकती हैं, भले ही इसका केंद्र के कानून से किसी तरह का कोई टकराव ही क्यों न हो लेकिन। इस सन्दर्भ में बात संविधान सम्मत होने से ज्यादा इस बात की है की क्या पंजाब के राज्यपाल अपने राजनीतिक आकाओं को नाराज करने की इच्छाशक्ति रख सकते हैं। क्योंकि ऐसे मामलों में राष्ट्रपति से सहमति लेनी भी जरूरी मानी जाती है।