एक और चिपको आन्दोलन,सांगली में बच गया चार सौ वर्ष पुराना बरगद


महाराष्ट्र के सांगली जिले में बरगद का एक पेड़ राजमार्ग के बीचों बीच आ रहा था और सरकार इसे कटवाना चाह रही थी। स्थानीय नागरिक पेड़ को किसी भी हालत में काटने या वहां से अन्यत्र स्थानांतरित करने नहीं देना चाहते थे। सरकार और स्थानीय प्रशासन 400 साल पुराने बरगद के पेड़ को राजमार्ग से हटाने का ही मन बना लिया।



कोरोना, लॉकडाउन-अनलॉक, चीन की सीमा पर तनाव, राजस्थान के सियासी संकट और ऐसी ही तमाम अन्य ख़बरों के बीच एक अलग किस्म की खबर ने पर्यावरण प्रेमियों का ध्यान अपनी तरफ आकृष्ट किया है। खबर छोटी सी है लेकिन पूरे देश के लिए प्रेरणादायक बन गई है। महाराष्ट्र के शांगली जिले की इस खबर से यह पता चलता है कि यदि पर्यावरण के सरोकारों को लेकर स्थानीय जनता चौकन्नी हो तो जिला प्रशासन से लेकर राज्य और केंद्र सरकार को झुकाया जा सकता है। 

बात इतनी सी है कि महाराष्ट्र के सांगली जिले में बरगद का एक पेड़ राजमार्ग के बीचों बीच आ रहा था और सरकार इसे कटवाना चाह रही थी। स्थानीय नागरिक पेड़ को किसी भी हालत में काटने या वहां से अन्यत्र स्थानांतरित करने नहीं देना चाहते थे। पहले तो सरकार और स्थानीय प्रशासन ने लोगों को समझाने की कोशिश की लेकिन बाद में 400 साल पुराने बरगद के पेड़ को राजमार्ग के रास्ते से हटाने का ही मन सरकार ने बना लिया और इसे काटने की तैयारियां भी शुरू हो गईं। स्थानीय नागरिकों को जब सरकार के इस मंसूबे की भनक मिली तो उन्होंने भी तय कर लिया कि चाहे अपनी जान की ही कुर्बानी क्यों न देनी पड़े वो सांस्कृतिक विरासत के प्रतीक बरगद के इस वृक्ष को काटने नहीं देंगे और हर हाल में इसकी रक्षा करेंगे।

कोरोना महामारी के इस दौर में जब महामारी से बचाव के लिए सामाजिक दूरी बनाए रखना एक जरूरी शर्त है और भीड़-भाड़ के रूप में धरना प्रदर्शन करना भी उचित नहीं है तब कैसे बरगद के इस पेड़ को बचाया जा सकता है। स्थानीय लोगों ने कोरोना से बचाव के सभी नियमों-कानूनों का पालन करते हुए एक बार फिर चिपको आन्दोलन को अपनाया और पेड़ से ही चिपक गए। अंत में सरकार को हस्तक्षेप करना ही पड़ा और राज्य सरकार के पर्यावरण मंत्री आदित्य ठाकरे ने केन्द्रीय भूतल परिवहन मंत्री नितिन गडकरी को विश्वास में लेकर बरगद के उस पेड़ को बचाने के लिए राजमार्ग का रास्ता ही बदल देने के लिए राजी कर लिया।

महाराष्ट्र में रत्नागिरी-शोला पुर के बीच निर्माणाधीन राजमार्ग संख्या-166 के मार्ग में सांगली के बोसे गांव में बरगद का यह पेड़ बाधक बन रहा था। सड़क बनाने वाली ठेकेदार फर्म इसे काटने की तैयारी पूरी कर चुकी थी लेकिन स्थानीय ग्रामीण किसी भी हालत में इसे काटने से बचाने की कोशिशों में लगे हुए थे। बोसे गांव के लोगों की कोशिशें रंग लाई और राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण को रत्नागिरी-शोला पुर राजमार्ग संख्या-166 के मार्ग में बदलाव करना पड़ गया।

पेड़ से चिपक कर बरगद के ऐतिहासिक और सांस्कृतिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण समझे जाने वाले इस पेड़ को काटने से बचाने की सांगली के ग्रामवासियों की इस मुहीम ने सत्तर के दशक के मशहूर चिपको आन्दोलन  की याद ताजा कर दी। उत्तराखंड के सीमावर्ती चमोली जिले के एक गांव से पेड़ को बचाने की यह मुहीम तब शुरू हुई थी जब वन विभाग के ठेकेदार विकास कार्यों के नाम पर जंगल काटने के लिए दल-बल के साथ उस गांव में पहुंचे थे। उस इलाके के करीब चौबीस हजार से ज्यादा पेड़ों को काटा जाना था और जब ठेकेदार के कर्मचारी पेड़ काटने के लिए कुल्हाड़ी और अन्य हथियार लेकर वहां पहुंचे तो उनको यह देख कर अचरज हो गया कि पेड़ काटने वाली टीम के वहां पहुंचने से पहले ही स्थानीय ग्रामवासी भोटिया महिला गौरा  देवी के नेतृत्व में घटना स्थल पर पहुंच चुके थे और सभी पेड़ों से चिपके हुए थे। इन आन्दोलन कारियों का कहना था कि पेड़ काटने से पहले उनको काट दो। अपने जीते जी तो वो लोग पेड़ नहीं काटने देंगे। पेड़ से चिपकना पर्यावरण के सरोकारों से सम्बद्ध होने का एक प्रतीक है।

यह आन्दोलन तत्कालीन उत्तर प्रदेश के चमोली ज़िले में सन 1970 में प्रारम्भ हुआ था। एक दशक के अन्दर यह पूरे उत्तराखण्ड क्षेत्र में फैल गया था। चिपको आन्दोलन की एक मुख्य बात थी कि इसमें स्त्रियों ने भारी संख्या में भाग लिया था। इस आन्दोलन की शुरुवात 1970 में भारत के प्रसिद्ध पर्यावरणविद् सुन्दरलाल बहुगुणा, कामरेड गोविन्द सिंह रावत, चण्डीप्रसाद भट्ट तथा श्रीमती गौरादेवी के नेतृत्व में हुई थी। असल में कामरेड गोविन्द सिंह रावत ही चिपको आन्दोलन के व्यावहारिक पक्ष थे, जब चिपको की मार व्यापक प्रतिबंधों के रूप में स्वयं चिपको की जन्मस्थली की घाटी पर पड़ी तब कामरेड गोविन्द सिंह रावत ने झपटो-छीनो आन्दोलन को दिशा प्रदान की।

उत्तराखंड के एक छोटे से इलाके से शुरू हुए इस आन्दोलन ने बाद में देश में ही नहीं वैश्विक स्तर पर अपनी अलग पहचान बनाई। तब उत्तराखंड का एक राज्य के रूप में अपना अलग वजूद नहीं था लेकिन इस आन्दोलन से पहचान बनाने वाले सुनारलाल बहुगुणा और चंडी प्रसाद भट्ट जैसे आन्दोलनकारियों को लोग पूरी दुनिया में जानने-पहचानने लग गए। 

चिपको आंदोलन वनों का अव्यावहारिक कटान रोकने और वनों पर आश्रित लोगों के वनाधिकारों की रक्षा का आंदोलन था रेणी में 2400 से अधिक पेड़ों को काटा जाना था, इसलिए इस पर वन विभाग और ठेकेदार जान लडाने को तैयार बैठे थे जिसे गौरा देवी जी के नेतृत्व में रेणी गांव की 27 महिलाओं ने प्राणों की बाजी लगाकर असफल कर दिया था।चिपको आन्दोलन का सूत्र वाक्य है।

“क्या हैं जंगल के उपकार, मिट्टी, पानी और बयार, जिन्दा रहने के आधार।”