इकतारा हो या पिटारा, क्या अब नहीं रहेगा हिंदी का बाल साहित्य हैरी पॉटर के सामने बेचारा?


शिक्षा-जगत से संबंधित भारत का अग्रणी स्वयंसेवी संगठन प्रथम इस बीच कई किस्म की किताबें ले आया है और प्रथम ने किताबों की गुणवत्ता को बेहतर बनाने की कोशिश की है।


योगेन्द्र यादव
मत-विमत Updated On :

बरसों बाद मेरी मुलाकात रूपा हाथी से हुई। चिड़ियाघर के इस हाथी को लगता था कि वह सुंदर नहीं दिखती। सो, बाघ ने उसे अपनी धारियां दीं और तेंदुए ने अपने सुन्दर धब्बे दिए। तोते ने उसकी पूंछ हरे रंग में रंग दिया और मोर ने उसकी सूंड़ पर अपने पंख की छाप उकेर दी। लेकिन चिड़ियाघर आने वाले बच्चों को अजीब सा दिख पड़ता यह जानवर जंचता ही नहीं था। वे चाहते थे कि उनकी प्यारा-दुलारी रूपा हाथी फिर से वापस आ जाये। आखिरकार रूपा ने अपने रंग-रोगन धो डाले, और अपनी उदासी भी।

पिछले हफ्ते विश्व पुस्तक मेले में नेशनल बुक ट्रस्ट(एनबीटी) के स्टॉल पर मुझे यह प्यारी सी कहानी याद आयी। हमारे दोनों बच्चे हिंदी की जिन किताबों को पढ़ते हुए बड़े हुए उनमें कहानी की एक किताब यह भी थी। मधुलिका और मैं, दोनों ही चाहते थे कि हमारे बच्चे अपनी भाषा सीखें। उनके लिए हिंदी की किताबें ढूंढ़ना मेरा काम था।

किताब खोजने के इस काम के दौरान ही मुझे भान हुआ कि हिंदी में बच्चों के लिए अच्छी किताबों का कितना अभाव है। हिंदी में बच्चों के लिए पाठ्यपुस्तकें और अन्य शैक्षिक सामग्री जरूर थी। प्रेरक कहानियों की बोझिल किताबें थीं। सादे-सपाट ढंग से पुराण-कथा सुनाने वाली किताबें थीं। पंचतंत्र की कहानियां या फिर विक्रम-बेताल या अकबर-बीरबल की कथाएं बेशक मिल जाती थीं। अमर चित्रकथा ऋंखला की किताबें बेशक बाकियों से तनिक बेहतर थीं।

फिर भी, हिंदी में बच्चों की किताबें कमोबेश वैसी ही थीं जैसी हमें अपने बचपन में पढ़ने को मिलीं, यानी चंपक, पराग, नंदन और लोट-पोट जैसी पत्रिकायें। साथ में वेताल के कॉमिक बुक और सोवियत संघ से छपी किताबें।

अब की पीढ़ी के बच्चों का जी ऐसी किताबों से नहीं बहलने वाला। अब के समय में बच्चों के लिए तैयार की जा रही हिंदी की किताबों का मुकाबला सुंदर साज-सज्जा और सुंदर तस्वीरों से सजी अंग्रेजी की रसीली किताबों से है। और फिर अब के वक्त पर भी गौर कीजिए जहां किताबें किसी भी भाषा की क्यों न हों, उन्हें टीवी के कार्टून चैनलों से मुकाबला करना पड़ रहा है।

अपने बच्चों के लिए किताबें ढूंढते हुए कुछ अच्छी किताबें मिलीं जरूर लेकिन अपवाद-स्वरूप ही, बहुत खोजने-ढूंढ़ने के बाद। चिल्ड्रन बुक ट्रस्ट की किताबें गुणवत्ता में कमतर नहीं थीं। नेशनल बुक ट्रस्ट ने भी बच्चों की कुछ अच्छी किताबें छापी थीं, जैसे रूपा हाथी वाली किताब। करड़ी टेल्स को हिंदी में उपलब्ध देखकर सुखद आश्चर्य हुआ। इसमें बच्चों के लिए लिखी गई अपनी कहानियों को गुलजार साहब ने आवाज दी है। इस श्रृंखला में राजा कपि की कहानी आज भी मेरे कान में गूंजती है। उन दिनों मेरी नजर गुलजार साहब की एक और किताब बोस्की का पंचतंत्र पर भी पड़ी।

उन्होंने अपनी बेटी बोस्की के लिए यह किताब एक उपहार के रूप में लिखी थी। हमारे बच्चों को अब भी कमला भसीन की किताब मालू भालू की याद रह गई है। कथा बुक्स, तूलिका बुक्स और स्वयंसेवी संगठन प्रथम ने भी बच्चों के लिए किताबें छापनी शुरू की थी। एकलव्य बच्चों के लिए विज्ञान विषयक अपनी बेहतरीन किताबों के साथ-साथ जब-तब कहानियों की भी किताब छापनी शुरु की थी। मुझे एकलव्य की ऐसी ही एक किताब भालू ने खेली फुटबॉल की याद रह गई है।

बाकी भारतीय भाषाओं के बारे में नहीं कह सकता, लेकिन जहां तक बच्चों के लिए हिंदी में उपलब्ध किताबों का सवाल है, मैने पाया कि अंग्रेजी की ऐसी किताबों के मुकाबले वे बहुत पीछे हैं जो मेरे बच्चों को उनकी प्यारी मौसियां ला कर देती थीं।

जैसे सिल्वेस्टर एंड मैजिक पेब्बल। या फिर जूलिया डोनाल्डसन की मशहूर किताब ग्रफलो और उसके बाद डोनाल्डसन-शेफल द्वय की लिखी अन्य कई बेहतरीन और बेजोड़ किताबें। (अगर आपने नहीं पढ़ा हो तो इन्हें पढ़ डालिए)। हिंदी में ऐसी कोई किताब नहीं जो इन किताबों में दर्ज चित्रांकन या फिर मन को मोह लेने वाली कथा-शैली का मुकाबला कर सके। हमने कोशिश जारी रखी। अरविन्द गुप्ता की बेहतरीन वेबसाइट पर हमें विश्व-साहित्य की कुछ अमूल्य कृतियां हिन्दी में मिलीं।

रूपा हाथी पर भारी पड़ता हैरी पॉटर

हमारे बच्चे जब किशोरावस्था की दहलीज पर पहुंचे तो उनके लिए हिंदी की किताबें ढूंढ़ पाना और भी कठिन हो गया। द एडवेंचर्स ऑफ टिनटिन का चाचा चौधरी और साबू सीरीज की किताबों से क्या मुकाबला! इसी तरह अंग्रेजी की फेमस फाइव के जोड़ की कोई किताब हिंदी में नहीं मिली।

अंततः मुझे तब हथियार डालने पड़े जन बच्चों को हैरी पॉटर का चस्का लग गया। होगार्ट एकेडमी की जादुई दुनिया की इस कथा के आगे, रहस्य-रोमांच की जो कथाएं मैंने अपने छुटपन में हिंदी में पढ़ी थीं, वे कहीं नहीं ठहरतीं। मुझे अपनी हिंदी की दुनिया के बौनेपन का अहसास हुआ।

पिछले हफ्ते विश्व पुस्तक मेले में बच्चों की किताबों के हॉल में घूमते हुए मेरे मन में यह प्रश्न गूंज रहा था कि क्या पिछले दो दशक में हालात बदले हैं। एक पक्ष में तो फिर निराशा हाथ लगी। व्यावसायिक प्रकाशक वैसे ही हैं, जैसे पहले थे। वैसी ही अनमनी किताबें जो अपनी नीरसता को चटख रंगों से छुपाती हैं। या फिर अंग्रेजी से हिंदी में अनूदित किताबें।

अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों में जिस तरह बच्चों की तादात बढ़ रही है उसे देखते हुए मुझे हैरान नहीं होना चाहिए था। कड़वा सच यह है कि जो किताबें खरीद सकते हैं वे चाहते हैं कि उनके बच्चे ऊंचाई की तरफ कदम बढ़ायें यानी अंग्रेजी की किताबें पढ़ें। जो सिर्फ हिंदी की किताबों तक सीमित हैं, वे वैसे भी किताबें खरीदने की स्थिति में नहीं हैं।

सार्वजनिक क्षेत्र यहां भी खस्ताहाली का शिकार हुआ है। चिल्ड्रन बुक ट्रस्ट की हालत कुछ समय से पतली होती गई है। अब नेशनल बुक ट्रस्ट में भी बच्चों के लिए कुछ नया नहीं था। नया छोड़िए, वो अपनी ही पुरानी किताबों जैसे गिजुभाई बधेका की कहानियों के गुलदस्ते या फिर अरविन्द गुप्ता की खेल-खिलौने वाली किताबों से बेजार नजर आया। रूपा हाथी इस बार भी उदास दिखी, उसे इंतजार था कि बच्चों की निगाह उस पर पड़ जाये।

हिन्दी किताबों का`पिटारा`

अगर इस बार मेरी आशा बंधी तो गैर-सरकारी लेकिन गैर-व्यावसायिक क्षेत्र के प्रकाशनों से। बच्चों के लिए किताबों के प्रकाशन के ऐसे प्रयासों को टाटा ट्रस्ट या फिर निलेकणी जैसी दानदाता संस्थाओं से मदद मिली है। मध्य प्रदेश स्थित स्वयंसेवी संगठन एकलव्य ऐसे प्रयासों में अग्रणी रही है। बच्चों के लिए प्रकाशित उनकी पत्रिका चकमक ने बीते चार दशकों में ग्रामीण इलाकों के बच्चों के लिए हिन्दी में पढ़ाई की एक नई दुनिया खोली है।

एकलव्य ने विज्ञान की पढ़ाई और विज्ञान-जगत की कुछ रुचिकर चीजों से संबंधित किताबें छापने से शुरुआत की थी लेकिन अब उन्होंने बच्चों के लिए किताबों का “पिटारा” खोल दिया है। बच्चों के लिए हर तरह की किताबें- कथा-कहानी, कथेतर गद्य, कविता, शैक्षिक किताबें व शिक्षकों के लिए हैंडबुक आदि कई तरह की किताबें एकलव्य से प्रकाशित हो रही हैं। एकलव्य की किताबें हर आयु-वर्ग के बच्चों के लिए हैं और ज्यादातर तो उन्हें मूलरूप से हिंदी ही में तैयार किया गया है। एकलव्य ने हिंदी में बोर्ड बुक्स की भी पहली खेप तैयार कर ली है।

शिक्षा-जगत से संबंधित भारत का अग्रणी स्वयंसेवी संगठन प्रथम इस बीच कई किस्म की किताबें ले आया है और प्रथम ने किताबों की गुणवत्ता को बेहतर बनाने की कोशिश की है। प्रथम ने बेहतर साज-सज्जा और चित्रांकन वाली किताबें 22 भाषाओं में तैयार की हैं और उन्हें पूरे देश में वितरित किया है।

मेरी इस पुस्तक मेले की असली खोज रही- इकतारा । यह संगठन भी भोपाल में कायम है। इकतारा के स्टॉल पर मैं संयोगात् ही पहुंचा था। मैंने उनकी अनूठी पत्रिका “साइकिल” को पढ़ा था। लेकिन, मुझे अंदाजा ना था कि वे बच्चों की व्यापक रुचि को ध्यान में रखते हुए कई किस्म की किताबें छापते होंगे। अचानक ही मेरे सामने बच्चों के लिए तैयार की गई किताबों का वो खजाना खुल गया जिसकी कल्पना मैने की थी।

सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की लिखी बाल-कविताएं (जिसमें “बतूता का जूता” भी शामिल है) बच्चों के पढ़ने के लिए फिर से उपलब्ध हैं। गुलजार की लिखी यहां कई किताबें दिखीं, जिसमें एलेन शॉ के बेहतरीन चित्रांकन हैं। हिन्दी साहित्य के शलाका-पुरुष विनोद कुमार शुक्ल की लेखनी से बच्चों के लिए निकली रचनाओं की एक पूरी ऋंखला दिखी। इकतारा वालों के पास हर रूप और आकार की किताबें हैं, जिसमें नन्ही सी पुस्तिका से लेकर विशाल किताब तक शामिल है। पिक्चर-बुक्स, कविता और कहानी की किताबों के अतिरिक्त इकतारा वालों ने उपन्यास और ग्राफिक नॉवेल्स भी छापे हैं। मुझे उनके बनाये कविता-पोस्टर और कार्ड भी बहुत पसंद आये। मुझे अपनी हिंदी की किताबों के इस संसार को देखकर खुशी हुई, गर्व महसूस हुआ।

अगर आप मुझसे पूछें कि आधुनिक भारत की सभ्यतागत नाकामी क्या रही है तो बच्चों के लिए अच्छी किताबें तैयार करने में नाकामी को उसमे गिनता हूं (स्वच्छ सार्वजनिक शौचालयों का अभाव भी ऐसी ही एक नाकामी है, गरीबी और पारिस्थितिकी का नाश तो हैं ही)। हिंदी में बच्चों के लिए किताब तैयार करने के इस उद्यम ने जो नये सिरे से गति पकड़ी है, उससे एक हल्की सी उम्मीद बनती है। हल्की इसलिए क्योंकि इस पहल को अभी बाजार का सहारा नहीं मिल पाया है। लेकिन उम्मीद पर इसलिए कायम हूं, क्योंकि मुझे लगता है, देर-सबेर अंग्रेजीदां अभिजन को यह एहसास होगा कि वे अपने बच्चों को अमेरिका की नकल के संस्कार नहीं देना चाहते। चिंता यही है कि क्या यह बात वे समय रहते समझ जायेंगे?

(योगेन्द्र यादव राजनीतिक विश्लेषक हैं।)