
कोई माने या न माने, बिहार का चुनाव इस बर थोड़ा बदले अंदाज में हो रहा है। संभवतः पहली बार बेरोजगारी का मुद्दा किसी विधान सभा चुनाव में इस शिद्दत के साथ उठा दिखाई दे रहा है। बिहार विधान सभा की 243 सीटों के लिए तीन चरण में होने वाले चुनाव का पहला चरण 28 अक्टूबर 2020 को संपन्न हो चुका है। अगले दो चरणों में 3 और सात नवम्बर को चुनाव होने हैं और 10 नवम्बर को नतीजे घोषित कर दिए जायेंगे।
इन तिथियों में बिहार विधान सभा के चुनाव कराने की घोषणा निर्वाचन आयोग ने की थी। इसके मुताबिक़ 10 नवम्बर को वोटो की गिनती हो जाने के बाद विधान सभा चुनाव की प्रक्रिया का विधिवत समापन भी हो जाएगा ताकि दीपावली (14 नवम्बर) से पहले राज्य में नई सरकार का गठन हो सके। चुनाव आयोग की अब तक की तैयारियों से तो ऐसा ही लगता है कि इस बार दीपावली तक सरकार गठन की ये औपचारिकताएं पूरी कर ली जायेंगी, वैसे राजनीति और क्रिकेट के खेल में अंतिम समय तक अनिश्चितता बनी रहती है कब क्या हो जाए कुछ कहा नहीं जा सकता और अंतिम समय में कुछ भी बदलाव हो सकता है।
इसलिए अभी से निश्चय पूर्वक कुछ भी नहीं कहा जा सकता कि किसकी सरकार बनेगी और कब तक नई सरकार वजूद में आ जायेगी। हम भी इस आलेख के माध्यम से किसी पार्टी या गठबंधन विशेष की सरकार बनने-बनाने की बात नहीं कह रहे हैं हम सिर्फ और सिर्फ यह चर्चा करना चाह रहे हैं कि इस बार बिहार विधान सभा का चुनाव भी पहले चुनावों जैसा ही है या इस बार बिहार के चुनाव का मिजाज कुछ बदला हुआ सा है।
मोटे तौर पर तो यह चुनाव भी पहले चुनाव जैसा ही दिखाई देता है। कमोबेश पक्ष और विपक्ष भी वही है सिवाय इसके कि पक्ष और विपक्ष के गठबन्धनों के एक-दो दल इधर से उधर हो गए हैं। दोनों ही तरफ के कुछ बड़े नेता स्वर्गवासी हो गए हैं, ये भी एक बदलाव माना जा सकता है पर रैलियों में भीड़-शोर-शराबा, जाति और सम्प्रदाय की उठक-पटक और मुद्दों के नाम पर पक्ष और विपक्ष का एक-दूसरे पर राज्य के विकास के लिए कुछ न करने का आरोप लगाना, यह सब पहले जैसा ही है।जहां कहीं भी सीन थोडा सा बदला हुआ दिखाई देता है उसकी वजह कोरोना महामारी का अभी तक बने रहना भी है।
बिहार देश का ऐसा पहला राज्य है जो कोरोना के कहर में चुनाव का सामना कर रहा है, यह इसका बदला हुआ रूप भी है। इस बार एक बदलाव इस रूप में भी देखा जा सकता है कि हमेशा जातिगत और साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण पर जिन्दा रहने वाले बिहार में इस बार चुनाव के दौरान रोजगार को मुद्दा बनाया गया है। देखना होगा कि आगे चल कर रोजगार का यह मुद्दा कितना कारगर साबित होगा। इसी नजर से अगर हम इस चुनाव के तीनों चरणों का विश्लेषण करें तो कई और भी बदले रूप साफ़ नजर आयेंगे।
तीनों चरणों में भाग लेने वाले राज्य के बहुभाषी मतदाताओं की बात करें तो सबसे पहले यह जानना अनिवार्य हो जाता है कि बिहार में मोटे तौर पर हिंदी, भोजपुरी, मगही या मगधी, उर्दू और अन्य स्थानीय भाषाओं के बोलने वाले हैं। इस लिहाज से देखें तो पहले चरण में राज्य की जिन विधान सभा सीटों के लिए चुनाव होना है उनमें मगधी, भोजपुरी और हिंदी भाषाओं के मतदाता लगभग बराबर संख्या में हैं। इनकी संख्या करीब 80 फीसदी है। इस चरण के शेष 20 फीसदी मतदाताओं में लगभग 14 फीसद अन्य स्थानीय भाषा-बोलियों वाले और बचे हुए 6 फीसद उर्दू भाषी मतदाता हैं।
दूसरे चरण में राज्य की जिन सीटों पर चुनाव होना है उनमें भाषा के आधार पर मगधी भाषी सबसे कम करीब 8 फीसद हैं और लगभग इतने ही मतदाता उर्दू भाषी भी हैं। पहले चरण के मुकाबले इस चरण में भोजपुरी भाषी मतदाताओं के संख्या बढ़ी है लेकिन उसी अनुपात में हिंदी भाषी मतदाताओं की संख्या थोड़ी कम हुई है। इस चरण के मतदान केन्द्रों में अन्य स्थानीय भाषाएँ बोलने वाले मतदाता भी थोडा बढ़े हैं पहले चरण के 14 फीसद से बढ़ कर यह आंकड़ा 17 से 18 फीसद के बीच आकर टिकता है।
चुनाव के तीसरे और अंतिम चरण में मगधी भाषी मतदाताओं की संख्या फिर बढ़ कर करीब 26 प्रतिशत हो जाती है जबकि भोजपुरी बोलने वाले मतदाताओं की संख्या कम होकर 16 से 17 प्रतिशत के बीच स्थिर हो जाती है। इस चरण में इतने ही वोटर उर्दू भाषी भी हैं। इस चरण में हिंदी भाषी मतदाता करीब 22 से 23 प्रतिशत और लगभग इतने ही मतदाता स्थानीय भाषा-भाषी हैं। भाषा के आधार पर बिहार के मतदाताओं का यह वर्गीकरण मतदाताओं की मातृभाषा को ध्यान में रख कर किया गया है और इस बाबत तमाम जानकारी निर्वाचन आयोग द्वारा तैयार की गई मतदाता सूची से ली गई है।
बिहार विधान सभा के चुनाव में बदलाव के नजरिये से ही यह पड़ताल भी की जा सकती है कि पहले चरण के चुनाव में दलित वोट निर्णायक साबित होंगे जबकि तीसरे चरण में मुस्लिम मतदाता निर्णायक फैसला करेंगे। 2015-16 के राष्ट्रीय स्वास्थ्य सर्वेक्षण के मुताबिक़ बिहार में जनसंख्या के आधार पर अन्य पिछड़ा वर्ग सबसे बड़ा सामाजिक समूह है। पड़ोसी राज्य उत्तर प्रदेश के मुकाबले बिहार में अन्य पिछड़ा वर्ग के लोगों की संख्या इसके राष्ट्रीय औसत से भी अधिक है। बिहार में ऐसे हिन्दू भी बहुत संख्या में हैं जो अनुसूचित जाति, जनजाति या अन्य पिछड़ा वर्ग की श्रेणी में आते हैं।
उत्तर प्रदेश से तुलना करने की ख़ास वजह यहां इसलिए भी है क्योंकि आबादी और सामाजिक ताने-बाने के लिहाज से बिहार उत्तर प्रदेश के बाद देश का दूसरे नंबर का बड़ा राज्य माना जाता है। जातिगत समीकरण भी दोनों राज्यों के एक जैसे हैं फिर भी थोडा बहुत बदलाव किसी न किसी रूप में दिखलाई पड़ ही जाता है, यह बदलाव भी उसी सन्दर्भ का ही एक हिस्सा है।
इसका मतलब यह हुआ कि उत्तर प्रदेश के मुकाबले बिहार के हिन्दुओं में सवर्णों की संख्या भी औसत से कम ही है। प्रसंगवश एक दिलचस्प बात यह भी है बिहार के चुनाव में इस बार जिन क्षेत्रों में पहले चरण के चुनाव हो रहे हैं उनमें मुस्लिम मतदाताओं का हिस्सा लगभग 10 फीसदी है जबकि अनुसूचित जाति के मतदाता लगभग 22 फीसदी हैं।
इसी तरह दूसरे चरण में मुस्लिम मतदाताओं की संख्या बढ़ कर करीब 15 फीसदी हुई है तो अनुसूचित जाति के मतदाताओं की संख्या पहले चरण के मुकाबले कम होकर करीब 14 फीसदी पर आकर टिकी है। इसी तरह तीसरे चरण के चुनाव में मुस्लिम मतदाताओं का प्रतिशत बढ़ कर करीब 23 फीसद हो गया है जबकि अनुसूचित जाति के मतदाताओं की संख्या पहले के मुकाबले कम होकर 14 फीसद हो गई है।
इस तरह कहा जा सकता है कि बिहार का चुनाव इस बार पूरी तरह पहले जैसे तो नहीं थोड़ा बहुत बदला हुआ जरूर दिखाई देता है। देखने वाली बात होगी कि यह जो बदलाव दिखाई दे रहा है उसका चुनाव परिणाम पर क्या असर होगा। कोई असर होगा भी या नहीं!