बिहार सरकार लाचार और प्रवासी मजदूर घर वापसी को बेकरार


प्रवासी मजदूरों को बिहार में वापस लाए जाने के मुद्दे पर बिहार सरकार की खासी किरकिरी हुई है। दरअसल पूरे देश में एक मैसेज गया है कि बिहार सरकार ने कोविड-19 महामारी के दौरान अपने ही प्रवासी मजदूरों की चिंता नहीं की है। जब देश के कुछ दूसरे राज्य प्रवासी मजदूरों को वापस लाने की पूरी कोशिश कर रहे थे, तो बिहार सरकार चुप्पी साधे बैठी थी।


संजीव पांडेय संजीव पांडेय
मत-विमत Updated On :

बिहार में बाहर काम करने वाले प्रवासी मजदूरों की संख्या 1 करोड़ के करीब है। लेकिन इधर राज्य में विकास का ढोल खूब पीटा गया है। दिल्ली से लेकर मुंबई तक बिहार के प्रवासी मजदूरों की अच्छी संख्या आज भी देखते बनती है। सवाल यही है कि जब राज्य में भारी विकास हुआ तो प्रवासी मजदूर दूसरे राज्यों में इतनी संख्या में कैसे है? राज्य के विकास के दावे पर सवाल उसी समय खड़ा हो जाता है जब राज्य में प्रवासी मजदूरों की वापसी की छूट केंद्र सरकार ने दी तो राज्य सरकार के एक जिम्मेवार मंत्री ने कहा कि राज्य के पास संसाधन की कमी है, सरकार बसों से प्रवासी मजदूर को वापस नहीं ला सकती है। 

प्रवासी मजदूरों को बिहार में वापस लाए जाने के मुद्दे पर बिहार सरकार की खासी किरकिरी हुई है। दरअसल पूरे देश में एक मैसेज गया है कि बिहार सरकार ने कोविड-19 महामारी के दौरान अपने ही प्रवासी मजदूरों की चिंता नहीं की है। जब देश के कुछ दूसरे राज्य प्रवासी मजदूरों को वापस लाने की पूरी कोशिश कर रहे थे, तो बिहार सरकार चुप्पी साधे बैठी है। दरअसल लॉकडाउन के पहले चरण के दौरान ही केरल के मुख्यमंत्री ने प्रवासी मजदूरों को वापस गृह राज्य में भेजे जाने की मांग की थी। महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उदव ठाकरे भी लगातार केंद्र सरकार से प्रवासी मजदूरों को महाराष्ट्र से वापस भेजने की मांग कर रहे थे। 

दरअसल बड़े शहरों के स्लम में रहने वाले प्रवासी मजदूरों की हालात काफी खराब हो गई है। सारे काम बंद हो गए, खाने के लिए पैसे की कमी हो गई। वैसे में छोटे से गंदे कमरों में कई-कई दिनों तक कई लोगों का बंद रहना मुश्किल हो रहा है। कई राज्य सरकारों को इनपुट मिली की अगर ज्यादा दिनों तक प्रवासी मजदूरोंको लॉकडाउन में रखा गया तो लॉ एंड आर्डर की समस्या आ सकती है। प्रवासी मजदूरों का सब्र का बांध टूट सकता है। यही काऱण है कि केंद्र सरकार ने लॉकडाउन के तीसरे चरण की शुरूआत से पहले प्रवासी मजदूरों को गृह राज्य में वापसी की अनुमति दे दी।

बिहार में कोविड-19 से सरकार की लड़ने की तैयारी और इच्छाशक्ति पर सवाल ख़ड़ा हो रहा है। बिहार के मुख्यमंत्री नितिश कुमार अकेले मुख्यमंत्री है, जिनकी इच्छा शक्ति पर सवाल उठाए गए है? देश के दूसरे राज्य जब अपने राज्य के प्रवासी श्रमिक मजदूरों की खराब हालत को देख हुए अपनी राज्य में लाने की तैयारी में लगे थे, बिहार सरकार आश्चर्यनजक तौर से निष्क्रिय नजर आ रही थी। उतर प्रदेश ने लॉकडाउन के पहले चरण में ही दिल्ली से हजारों प्रवासी मजदूरों को दिल्ली से बाहर निकाला था। यूपी के इस प्रयास के बाद बिहार सरकार पर सवाल उठना लाजिमी था। 

बिहार सरकार के रवैये से बिहार के प्रवासी मजदूरोंमें रोष उठना वाजिब है। बिहारी प्रवासी मजदूरों को इस बात से नाराजगी है कि यूपी ही क्यों, झारखंड सरकार भी अपने प्रवासी मजदूरों के लिए तमाम प्रयास करती नजर आयी। नीतीश कुमार सरकार की किरकिरी तब और हो गई जब यूपी, मध्य प्रदेश, छतीसग़ड़ जैसे राज्य कोटा में फंसे अपने कुछ छात्रों को गृह राज्य में लाने में सफल हो गए। वैसे में जब नीतीश कुमार सरकार पर राज्य के लोगों ने ही सवाल उठा दिया। इससे नीतीश कुमार की परेशानी और बढ गई। नीतीश कुमार की नाराजगी प्रधानमंत्री के साथ मुख्यमंत्रियों की हुई बैठक में दिखी। उन्होंने दूसरे राज्य सरकारों और केंद्र सरकार पर सवाल उठाया कि जब लॉकडाउन है तो दूसरे राज्यों को अपने माइग्रेंट लेबर और छात्र गृह राज्य में लाने की अनुमति कैसे दी गई ?

कोविड 19 के दौरान यह साफ हो गया कि बिहार में पिछले 15 साल में विकास के नाम पर सिर्फ सरकारी प्रचार हुआ है। इसका खुलासा तो खुद डिप्टी सीएम सुशील मोदी ने अपने ब्यान में कर दिया। जिस राज्य के खजाने में अपने प्रवासी मजदूरों को वापस राज्य में लाने के लिए परिवहन खर्च की क्षमता न हो उस राज्य के विकास का पोल तो खुद ही खुल गया है। जब केंद्र सरकार ने दूसरे राज्यों में फंसे प्रवासी मजदूरों को गृह राज्य में ले जाने की अनुमति दी तो बिहार के डिप्टी सीएम सुशील मोदी ने कहा कि बिहार सरकार के पास दूसरे राज्यों में फंसे प्रवासी मजदूरों और छात्रों को वापस बस से लाने के लिए संसाधन नहीं है। यह एक सच्चाई हो सकती है। लेकिन संसाधन के आभाव में राज्य के गरीब लोगों को वापस लाने से सरकार हाथ पीछे कैसे खींच सकती है? दरअसल सुशील मोदी के इस बेबसी भरे ब्यान के कई मतलब है।

दरअसल राज्य में विकास का जो प्रचार ढोल पीटा गया है, वह झूठ है। अगर राज्य में विकास होता तो राज्य के लगभग 1 करोड़ आबादी राज्य से बाहर रोजगार के तलाश में न होती। देश भर में इंटर स्टेट माइग्रेंट लेबर की संख्या लगभग 8 करोड़ है। इसमें बिहार के लेबर की संख्या लगभग 1 करोड़ है। ये ज्यादातर देश के बड़े औधोगिक और सर्विस सेक्टर के हब में मजदूरी करते है। सूरत, राजकोट, बडोदरा, मुंबई, पुणे, दिल्ली, गुड़गांव, नोएडा, लुधियाना, जलंधऱ, बंगलौर आदि शहर में बिहार के मजदूरों की बड़ी संख्या है। इन शहरों में रहने वाले मजदूरों का जीवन स्तर बेहद ही खराब है। ज्यादातर प्रवासी मजदूर  8 से 12 हजार रुपये की मासिक आमदनी का जुगाड़ कर पाते है। दरअसल नीतीश कुमार और उनके सहयोगी सुशील मोदी को डर है कि कोविड-19 के प्रकोप के दौरान 1 करोड़ के करीब प्रवासी मजदूर वापस राज्य में आएंगे तो इन्हें रोजगार उपलब्ध करवाना सरका के लिए मुश्किल हो जाएगा।

दिलचस्प बात है कि देश के कुछ राज्यों ने कोविड-19 से निपटने के लिए अपना मॉडल दिया। उन मॉडलों की चर्चा भी हो रही है। केरल मॉडल की जोरदार चर्चा पूरी दूनिया में है। राजस्थान का भीलवाड़ा मॉडल की चर्चा हो रही है। यही नहीं भाजपा शासित दो राज्यों के मॉडल की भी चर्चा हो रही है। इसमें यूपी का आगरा मॉडल और हिमाचल प्रदेश मॉडल है। लेकिन कोविड-19 का बिहार मॉडल कुछ अलग है। प्रदेश शासन के जिम्मेवार लोग ही संसाधन कम होने का रोना रो रहे है। 

झारखंड के मुख्यमंत्री, राजस्थान के मुख्यमंत्री और यूपी के मुख्यमंत्री अपने प्रवासी मजदूरों को राज्य में लाने के लिए लगातार कोशिश कर रहे है। लेकिन सिर्फ बिहार शासन के जिम्मेवार लोग प्रवासी मजदूरों की राज्य में वापसी को रोकने का पूरा प्रयास करते रहे। दिलचस्प बात है कि कोविड-19 से निपटने को लेकर बिहार सरकार की तैयारी पर टीका टिप्पणी भाजपा के नेताओं ने भी की है। बिहार भाजपा के ही एक ही वरिष्ठ नेता पूर्व केंद्रीय मंत्री संजय पासवान ने कोविड-19 से निपटने के लिए बनायी गई सरकारी योजना के क्रियान्वयन सिर्फ नौकरशाही के बदौलत किए जाने पर सवाल उठाया। उन्होंने कहा कि सरकार का कोविड-19 के फंड की बंदरबांट भी हो सकती है। इसलिए सरकार को स्वयंसेवी संगठनों से भी सहयोग लेना चाहिए।

दरअसल राज्य भाजपा के कई बड़े नेता इस बात को स्वीकार कर रहे है कि कोविड-19 के दौरान दूसरे राज्यों में फंसे प्रवासी मजदूरों का मसला राज्य पर भारी पड़ेगा। यह सच्चाई है कि दूसरे राज्यों में फंसे प्रवासी मजदूरों को मदद बिहार सरकार के तरफ से नहीं के बराबर मिली है। जबकि इसी साल राज्य में विधानसभा चुनाव होने है। राज्य की आर्थिक हालात खराब है। राज्य में उधोग धंधे न के बराबर है। सर्विस सेक्टर की स्थिति राज्य में अच्छी नहीं है। वैसे में जब दूसरे राज्य में गए प्रवासी मजदूर जब राज्य में वापस आएंगे तो उन्हें रोजगार कहां से मिलेगा? दूसरे राज्य में अभी तक फंसे बिहारी मजदूर राज्य सरकार के रवैये से खासे नाराज है। दरअसल जद यू- भाजपा गठबंधन को यही डर है कि दूसरे राज्य से वापस आने वाले माइग्रेंट लेबर अगर राज्य में चुनाव तक मौजूद रह गए तो भाजपा-जद यू गठबंधन को इसका खामियाजा भुगतना पड़ सकता है।