
पुस्तकें मनुष्य की सच्ची मित्र हैं। पुस्तकों के महत्व के बारे में भी सभी जानते हैं। शैक्षिणिक संस्थानों की बात करें तो पुस्तकों का महत्व और बढ़ जाता है। आधुनिक समय मे कॉरपोरेट जगत ने भी पुस्तकों को महत्व देते हुए अपने-अपने पुस्तकालय बनाए हैं। पुस्तकालयों के प्रकार पर भविष्य मे चर्चा अवश्य करेंगे। पुस्तकालय के उपयोग के बारे मे सबकी अपनी अपनी गहरी पैठ है। किन्तु, क्या पुस्तकालय मे पुस्तकें स्वयं चल कर आ जाती हैं और पाठकों के पास चली जाती हैं?
पुस्तकालयों के कार्यों को सुचारु रूप से चलाने के लिए एक पुस्तकालयाध्यक्ष या लाइब्रेरीयन होता है। आज उन्हीं का दिन है। ये लाइब्रेरीयन का कान्सेप्ट आया कहां से? भारत में इसे लाने का श्रेय किसका है, और आज ही यह दिन 12 अगस्त को क्यूं मनाया जाता है? इन्हीं प्रश्नों पर थोड़ी सी बात करते हैं।
आज, भारत में पुस्तकालय विज्ञान के जनक कहे जाने वाले, डॉ. शियाली रामामृत रंगनाथन (एस आर रंगनाथन) का 128वां जन्मदिन है। उनके जन्मदिवस को पुस्तकालय विज्ञान से जुड़े सभी लोग लाइब्रेरियन्स डे के रूप में मानते हैं। भारत में ही नहीं, बल्कि पुस्तकालय पर कार्यों को लेकर विश्व भर में प्रसिद्ध रहे रंगनाथन का जन्म 12 अगस्त 1892 को मद्रास में हुआ था। दक्षिण में परंपरानुसार नाम के साथ जन्म स्थान का नाम लिखा जाता है। शियाली उनके जन्मस्थान का ही नाम है। शियाली में ही उनकी स्कूली शिक्षा हुई।
मद्रास के क्रिश्चियन कॉलेज से गणित में स्नातकोत्तर, रंगनाथन गणित के प्रोफेसर रहे।
किताबों से विशेष प्रेम था, या यूं कहें कि पुस्तकालय के महत्व को उनसे अधिक कोई नहीं समझता था। यही देखते हुए उनको 1924 मे मद्रास विश्वविध्यालय का पहला पुस्तकालयाध्यक्ष बनाया गया। इस कार्य के लिए रंगनाथन ने संबंधित विषय की डिग्री लेना आवश्यक समझा, और लंदन गए। परंतु जब तक वहां पहुंचते, कोर्स में दाखिले का समय निकाल चुका था।
भारत में तब तक पुस्तकालय विज्ञान, विषय के रूप मे नहीं जाना जाता था। पुस्तकालय विज्ञान की स्नातक डिग्री 1935 से आंध्र विश्वविद्यालय से आरंभ हुई। स्नातकोत्तर और डाक्टरेट के लिए और अधिक समय लगा। साथ ही सर्टिफिकेट कोर्स, और डिप्लोमा कोर्स भी बाद मे ही आरंभ किए गए। इंग्लैंड में कोर्स ना मिल मिल पाने का दुख हुआ, पर वहां अपने गुरु डब्ल्यू सी सेयर्स (सबसे प्रचलित सेयर्स लिस्ट ऑफ सब्जेक्ट हेडिंग के प्रणेता) से मिलकर बहुत खुश हुए। सेयर्स से रंगनाथन ने बहुत ज्ञान प्राप्त किया।
भारत वापस आकर 1925 से मद्रास विश्वविद्यालय में अच्छे ढंग से पुस्तकालयाध्यक्ष का कार्य संभाल और 1944 तक वहीं रहे। वहीं रहते हुए उन्होंने कई पुस्तकें लिखीं। जिनमें कुछ पुस्तकालय जगत में विशेष योगदान के रूप में जानी जाती हैं।
रंगनाथन के प्रमुख कार्यों में पुस्तकालय विज्ञान के पांच नियम बताएं। जिसमें-पुस्तकें सभी के लिए हैं, सभी पाठकों को उनकी पुस्तक मिले, सभी पुस्तकों को उनके पाठक मिले,पाठक के समय की बचत और पुस्तकालय एक संवर्धनशील संस्था है। इन पांच नियमों को पुस्तकालय विज्ञान का आधार माना गया। 1931 मे इन्हें व्यापक रूप से ग्रहण कर लिया गया।
डॉ. रंगनाथन ने बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय (1945-47), एवं दिल्ली विश्वविद्यालय (1947-54) में अध्यापन का कार्य किया, फिर शोध और लेखन के कार्यों मे व्यस्त रहे। मध्यप्रदेश का सौभाग्य रहा की 1957-59 तक रंगनाथन उज्जैन विश्वविद्यालय मे अतिथि प्राध्यापक के रूप मे कार्यरत रहे।
रंगनाथन ने प्रलेखों के महत्व को समझते हुए बैंगलोर में (1962) प्रलेख अनुसंधान एवं प्रशिक्षण केंद्र-DRTC स्थापित किया। “LIBRARY ON WHEELS” उन्हीं की देन है। जिसका उद्देश्य पुस्तकों को दूर दूर तक पहुंचना था। पद्मश्री सम्मानित(1957) रंगनाथन को भारत सरकार ने राष्ट्रीय शोध प्राध्यापक नियुक्त किया था। रंगनाथन ने पूरा जीवन पुस्तकालय विज्ञान के कार्यों को समर्पित किया। उनको विनम्र श्रद्धांजलि।