राकेश टिकैत से डरी भाजपा…


नतीजा यह हुआ कि अगले दिन जाटलैंड में हलचल शुरू हो गई। महापंचायत होने लगी। आंदोलन को नया जोश देने की मुहिम चल पड़ी। वह मुहिम कई मायनों में ऐतिहासिक है।



राकेश टिकैत के आंसूओं ने सियासी तूफान खड़ा कर दिया। तभी प्रधानमंत्री को खुद आगे आना पड़ा। यह टिकैत का ही चमत्कार है। नहीं तो आंदोलन को खत्म मान लिया गया था। मगर राकेश टिकैत ने उसे जिंदा कर दिया। इससे सरकार बहादुर का हलकान होना स्वभाविक है। उन्हें तो 26 जनवरी को लगा था कि आंदोलन कुचल दिया गया है।

रात में एक कोशिश योगी सरकार ने भी की थी जब गाजीपुर बार्डर पर सुरक्षा बलों की संख्या बढ़ा दी थी। माना जा रहा था कि आंदोलनकारी किसानों का हटा दिया जाएगा। इसके अलावा भी चर्चा कई तरह की थी। सबके केंद्र में यही था कि आंदोलन खत्म होने जा रहा हैं।

कई किसान नेता आंदोलन से अलग होने लगे थे और यह माना जाने लगा था कि किसान आंदोलन हिंसा की भेंट चढ़ गया। हिंसा के कारण सरकार को दमन का रास्ता मिल गया। तमाम तरह की जांचे बैठा दी गई। फंड कहां से आ रहा है, यह जानने में एजेंसियों को लगा दिया गया। किसान नेताओं के खिलाफ लुक आउट नोटिस जारी कर दिया गया। इसका मतलब यह हुआ कि वे बिना अनुमति के देश से बाहर नहीं जा सकते।

सरकार को डर था कि कही भाग न जाए। मगर किसान कहां रणछोर होते हैं। वे तो दिल्ली की सीमाओं पर डटे रहे। उनको न तो सोशल मीडिया का दुष्प्रचार खौफजदा कर सका और न ही सुरक्षा बलों की घूरती बंदूकें। अगर उन्हें किसी बात ने परेशान किया तो वह सरकार का सौतेला रवैया रहा। इस वजह राकेश टिकैत भावुक हो गए। उनका भावुक होना जाट बिरादरी को अखर गया।

नतीजा यह हुआ कि अगले दिन जाटलैंड में हलचल शुरू हो गई। महापंचायत होने लगी। आंदोलन को नया जोश देने की मुहिम चल पड़ी। वह मुहिम कई मायनों में ऐतिहासिक है। पहली बात तो यही है कि किसान आंदोलन को तेज करने के लिए देशखाप और बालियान खाप ने हाथ मिला लिया। इन दोनों में मनमुटाव चल रहा था।

ये दोनों सबसे बड़ी खाप है। इनके 84-84 गांव माने गए है। दूसरी गठवाला खाप है। इसके 52 गांव माने गए है। इसके अलावा बत्तीसा खाप, कालखंडे खाप, चौगामा खाप भी किसान आंदोलन के समर्थन में आ गई हैं। गुर्जरों की कलस्यान खाप भी आंदोलन के साथ है।

पश्चिमी उत्तर प्रदेश के लिहाज से यह बड़ी घटना है। उसका तो एक कारण यही है कि भाजपा यहां 2014 से काफी मजबूत स्थिति में है। जाट समाज पूरी तरह भाजपा के पक्ष में लामबंद रहा है। उसी कारण पहले चौधरी अजीत और बाद में जयंत चधौरी अपनी पुश्तैनी सीट नहीं बचा पाए थे।

आंकड़ों की माने तो 2014, 2017 और 2019 में जाटों का तकरीबन 80 फीसदी वोट भाजपा को गया है। इसी कारण 14, 17 और 19 में भाजपा पश्चिमी उत्तर प्रदेश में अपना परचम लहरा पाई। इनके बिना भाजपा का यहां से सीट निकालना मुमकिन नहीं था और न है।

इसी कारण भाजपा डर गई है। यूपी का चुनाव सिर पर है, उस पर जाट की नाराजगी, भाजपा के लिए सिरदर्द बन गई है। पीएम का बात के लिए आगे आना उसी से जोड़ कर देखा जा रहा है।

वैसे भी पीएम यूपी को लेकर बेहद संजीदा है। इस मामले में वे अपने विश्वस्त सहयोगियों की भी नहीं सुनते हैं। यहां से जुड़े मसलों में उनका सीधा हस्तक्षेप होता है। शायद इसीलिए जब आंदोलन का केन्द्र यूपी बन गया तो उन्होंने खुद बातचीत का प्रस्ताव रखा।