
बिहार पब्लिक सर्विस कमीशन (बीपीएससी) की 70 वीं प्रारंभिक परीक्षा में लगे गंभीर आरोपों को लेकर छात्रों का आंदोलन जारी है। छात्रों की मांग है कि पुनर्परीक्षा आयोजित हो। इस प्रकरण को लेकर बीपीएससी सचिव सत्य प्रकाश शर्मा ने एबीपी न्यूज चैनल को दिए गए इंटरव्यू में अपना पक्ष रखा है। जो पूर्णतया भ्रामक और जनता को गुमराह करने वाला है। हम तथ्यों की रौशनी में देखें की सच क्या है।
सबसे पहले समझने की जरूरत है कि विवाद का प्रमुख विषय क्या है ? 13 दिसंबर 2024 को प्रस्तावित परीक्षा के पहले बीपीएससी द्वारा जिलाधिकारियों को भेजा गया पत्र सोशल मीडिया में वायरल हुआ जिसमें तीन अलग-अलग सेट में पेपर का जिक्र किया गया था। छात्रों ने आरोप लगाया कि जब अलग-अलग सेट तैयार किए गए हैं तब नार्मलाइजेशन करना पड़ेगा। इसे लेकर छात्रों ने 6 दिसम्बर को आंदोलन किया। आंदोलन के बाद बीपीएससी द्वारा विज्ञप्ति जारी कर स्पष्टीकरण दिया गया कि एक सेट में पेपर है यानी सिर्फ सीरीज अलग-अलग रहेगी और ऐसे में नार्मालाईजेशन का सवाल ही नहीं उठता।
दरअसल इस पूरे प्रकरण में मुख्य विवाद नार्मलाइजेशन को लेकर ही है। इसे आम लोग सरल भाषा में इस तरह समझ सकते हैं कि अगर किसी परीक्षा को कई शिफ्टों में कराया जाता है उसके लिए अलग-अलग सेट में पेपर तैयार किया जायेगा तो हर शिफ्ट के पेपर का स्तर भी भिन्न होगा। हर शिफ्ट के छात्रों के प्राप्त अंकों के औसत आदि के आधार पर उन्हें प्राप्त वास्तविक अंकों में बदलाव किया जाता है। इसे ही मानकीकरण अथवा नार्मलाइजेशन कहा जाता है।
इसके लिए जो सांख्यिकी पद्धति है उसे अभी तक किसी भी आयोग ने सार्वजनिक नहीं किया है। जबकि उनका दावा है कि उनकी पद्धति वैज्ञानिक व पारदर्शी है। ऐसे में इसके लिए तय फार्मूला को सार्वजनिक करने से इंकार करना ही गहरा संदेह पैदा करता है। उत्तर प्रदेश लोक सेवा आयोग और रेलवे रिक्रूटमेंट बोर्ड की परीक्षाओं में नार्मालाईजेशन में अनियमितता के तमाम गंभीर आरोप लगे हैं।
नवंबर महीने में उत्तर प्रदेश लोक सेवा आयोग में छात्रों के आंदोलन का भी यही प्रमुख विषय था। गोपनीयता का आलम यह रहता है कि छात्रों को वास्तविक अंक व नार्मालाईजेशन के बाद के अंक को सार्वजनिक नहीं किया जाता है, जिससे इसकी आड़ में तमाम अनियमितता के आरोप लगे हैं। इसी पृष्ठभूमि में बीपीएससी 70 वीं प्रारंभिक परीक्षा के विवाद को लेकर छात्रों में आक्रोश है।
बीपीएससी सचिव का यह कहना कि बापू परीक्षा केंद्र के छात्रों की पुनर्परीक्षा के बाद नार्मलाइजेशन की जरूरत नहीं पड़ेगी। आखिर यह कैसे संभव है? जबकि उन्होंने खुद स्वीकार किया है कि बापू परीक्षा केंद्र के छात्रों के लिए स्केलिंग के उपयोग किया जाएगा। स्केलिंग का उपयोग तो एक ही परीक्षा के अलग-अलग विषयों के संदर्भ में किया जाता है।
ऐसे में एक विषय की अलग शिफ्ट की परीक्षा के लिए उनकी संख्या भले ही कम हो नार्मलाइजेशन ही करना पड़ेगा। ऐसे में उनका यह कहना कि बापू परीक्षा के 12 हजार छात्रों के लिए आयोजित पुनर्परीक्षा के लिए नार्मलाइजेशन मुद्दा नहीं है, पूरी तरह से अनुचित है और पूरे प्रकरण की असलियत पर पर्दा डालने की कोशिश है।
इंटरव्यू में बीपीएससी सचिव का यह कहना कि परीक्षा प्रणाली का पूरा सिस्टम काम करता है और बापू परीक्षा केंद्र को छोड़कर कहीं से भी डीएम अथवा किसी स्त्रोत से गड़बड़ी की कोई रिपोर्ट आयोग को प्राप्त नहीं हुई है। क्या वास्तव में सिस्टम इतना बढ़िया काम करता है कि हर छोटी-बड़ी गड़बड़ी की रिपोर्ट की जाती है? क्या यह सच्चाई नहीं है कि ऐसे मामलों को संज्ञान में तभी लिया जाता है तब कोई बड़ा जनदबाव बनता है। अगर बापू परीक्षा केंद्र में छात्रों ने हंगामा नहीं किया होता और डीएम द्वारा एक छात्र को थप्पड़ मारना बड़ा मुद्दा नहीं बनता तो क्या इतनी आसानी से परीक्षा रद्द की गई होती ? इस संबंध में अनगिनत उदाहरण है।
हाल ही का सटीक उदाहरण, उत्तर प्रदेश लोक सेवा आयोग का आंदोलन है। जिसमें लोक सेवा आयोग व सरकार पेपर लीक को एक सिरे से इंकार कर रहे थे और बाद में कई शिफ्टों में परीक्षाओं के आयोजन पर आमादा थे लेकिन छात्रों के जबरदस्त आंदोलन के बाद ही न सिर्फ पेपर लीक व धांधली को स्वीकार किया गया बल्कि पीसीएस प्रारंभिक परीक्षा एक शिफ्ट में आयोजित कराई गई।
बीपीएससी सचिव बेहतर परीक्षा प्रणाली सिस्टम की बात कर रहे हैं जिस पर वह अटूट विश्वास भी जता रहे हैं। जबकि परीक्षा केंद्र में आधा एक घंटा पेपर देरी से पहुंचता है, कम संख्या में पेपर पहुंचता है और ऐसी स्थिति में जब किसी परीक्षा केंद्र में पेपर बाहर से मंगवाया गया तो बंडल खुला होता है। सबसे बड़ा सवाल है कि जब इतना अच्छा सिस्टम काम कर रहा है तो ऐसी घोर लापरवाही किस स्तर पर हुई, क्या ऐसे गंभीर मामलों में किसी की जवाबदेही तय हुई और उसे सजा दी गई। अभी तक इस बारे में कोई जानकारी नहीं है। न ही इसकी जानकारी उनके द्वारा दी गई। दरअसल सभी को मालूम है कि सिस्टम कैसे काम करता है।
बीपीएससी सचिव का यह कहना कि अगर किन्हीं वजहों से परीक्षा में देरी से पेपर मिलता है तो यह स्वत: अंतर्निहित है कि उतना अतिरिक्त समय अभ्यर्थियों को मिलेगा। लेकिन उन्होंने यह नहीं बताया कि क्या यह आयोग का नीतिगत मामला है। क्या परीक्षा के देरी से शुरू होने की स्थिति में यह रिकॉर्ड किया जाता है कि कितना देरी से परीक्षा शुरू हुई और उतना ही अतिरिक्त समय दिया गया। अमूमन ऐसे हमेशा शिकायतें रही हैं और उनमें सच्चाई भी है कि परीक्षा देरी से शुरू होने पर भी उसकी क्षतिपूर्ति नहीं होती।
बीपीएससी सचिव द्वारा छात्रों के आरोपों को काल्पनिक बताना और तथ्यों से परे बताना पूरी तरह से गलत और गुमराह करने वाला है। दरअसल इसका प्रयोजन छात्रों की वाजिब मांगों को अनसुना करना है। जिससे नार्मालाईजेशन के सवाल से विमर्श का भटकाव कर पूरे प्रकरण को ऐसे पेश किया जा सके कि बीपीएससी पर लगे आरोप बेबुनियाद हैं। जबकि उपरोक्त तथ्यों से स्वत: स्पष्ट है कि छात्रों की पुनर्परीक्षा की मांग वाजिब है।
चयन प्रक्रिया संबंधी जो विवाद उभरे हैं, इनके प्रयोजन को भी छात्रों को समझने की जरूरत है। सभी को पता है कि उत्तर प्रदेश हो, बिहार हो अथवा अन्य राज्यों व केंद्रीय विभागों में, बड़ी संख्या में सरकारी विभागों में पद रिक्त पड़े हुए हैं। इन्हें भरने का कोई सार्थक प्रयास तो दिखता नहीं है बल्कि जो भर्तियां विज्ञापित की गई हैं, उन्हें भी वर्षों तक इन्हीं विवादों व न्यायिक प्रक्रिया में उलझाए रखना है। इस तरह से हजारों मामले लंबित हैं।
बिहार में सरकारी विभागों में लगभग पांच लाख पद रिक्त हैं। उत्तर प्रदेश में लाखों सृजित पदों को ही खत्म किया गया है, इसके बाद भी अनुमानित है कि 6 लाख से ज्यादा पद रिक्त हैं। केंद्रीय कर्मचारियों के 10 लाख पद रिक्त हैं। इतनी बड़ी संख्या में पद रिक्त हैं लेकिन भाजपा की सरकारें मिशन मोड में सरकारी नौकरी मुहैया कराने का प्रोपेगैंडा कर रही हैं। देश में सरकारी विभागों में अनुमानित तौर पर एक करोड़ पद रिक्त हैं। इन रिक्त पदों को तत्काल भरना रोजगार अधिकार अभियान का प्रमुख मुद्दा भी है।
हमारा मत है कि चयन प्रक्रिया संबंधी विवादों को आसानी से हल किया जा सकता है। पहली बात तो सरकार के पास बड़ा इंफ्रास्ट्रक्चर है। जब वन नेशन वन इलेक्शन की वकालत की जा रही है, तब ऐसे में एक परीक्षा को एक शिफ्ट में आयोजित कराना कतई मुश्किल काम नहीं है। अगर इससे भी बड़ी संख्या में अभ्यर्थी हैं और कई शिफ्टों में परीक्षाओं को आयोजित कराना जरूरी हो, तो पेपर तैयार करने वाले विशेषज्ञों में समन्वय स्थापित करने की जवाबदेही संबंधित आयोग की है जिससे पेपर के स्तर में गैरजरूरी असमानता न हो।
ऐसी स्थिति में अगर नार्मालाईजेशन जरूरी भी हुआ तो सांख्यिकी के तय फार्मूला का उपयोग किया जा सकता है जिसे विशेषज्ञों के पैनल द्वारा बनाया जाए और पूरे देश में एक समान हो। इसे सार्वजनिक किया जाए, छात्रों को भरोसा में लिया जाए साथ ही पारदर्शिता की गारंटी सुनिश्चित हो।
बिहार में जेडीयू-भाजपा सरकार पूरे तौर पर दमन ढाने और आंतक का माहौल बनाने में लगी हुई है। तीन बार बीपीएससी अभ्यर्थियों पर बर्बर लाठीचार्ज चार्ज किया गया और पिछली 29 दिसंबर को तो जुल्म की इंतिहा करते हुए इस भीषण ठंड में छात्रों पर वाटर कैनन से हमला किया गया। सैंकडों आंदोलनकारियों पर मुकदमें दर्ज किए गएहैं। लेकिन छात्रों की परिक्षा को फिर से कराने और उनकी सवालों के वाजिब समाधान के लिए मुख्यमंत्री जी को मिलने का वक्त तक नहीं मिल रहा है।
आज गहराते जा रहे रोजगार संकट के इस दौर में सरकारों का मकसद न तो रोजगार सृजन का है और न ही सरकारी विभागों में रिक्त पड़े पदों को भरने का है। जो भी खाली पद हैं उन्हें आउटसोर्सिंग अथवा संविदा के माध्यम से बेहद कम वेतनमान पर काम करना इनका असली मकसद है। इन सवालों को हल किया जा सकता है बशर्ते उचित अर्थनीति बने। ऐसे में युवाओं को चयन प्रक्रिया संबंधी विवादों को लेकर होने वाले आंदोलन में अपने सवालों को समग्रता में देखना चाहिए। हम बिहार समेत देशभर के आम नागरिकों से अपील करते हैं कि अपने रोजगार को लेकर आंदोलनरत छात्रों का समर्थन करें और बिहार सरकार से कहें कि वह नौजवानों के वाजिब सवालों को हल करे।
(रोजगार अधिकार अभियान की ओर से राजेश सचान )