जिस कांग्रेस के साथ देश और दुनिया का सबसे महान गुजराती, अपनी कोमल छाती पर एक हिंदू राष्ट्रवादी हत्यारे की गोलियाँ झेलने के बाद भी, अपनी अंतिम साँस तक जुड़ा रहा;उसे धता बताते हुए अट्ठाईस साल के पाटीदार नेता हार्दिक पटेल ने आरोप लगाया है कि यह पार्टी गुजरात और गुजरातियों से नफ़रत करती है!
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी गुजरात की अपनी जन-सभाओं में कांग्रेस को लेकर ऐसे ही आरोप लगाते हैं. हार्दिक पटेल ने औपचारिक तौर पर भाजपा के साथ जुड़कर मोदी के नेतृत्व में काम करने का या तो अभी तक कोई निर्णय नहीं लिया है या फिर उसे सार्वजनिक नहीं किया है.
यह भी हो सकता है कि हार्दिक की राजनीतिक उपयोगिता के मुक़ाबले 2015 के पाटीदार आरक्षण आंदोलन के दौरान देशद्रोह सहित अन्य आरोपों को लेकर क़ायम हुए मुक़दमों को वापस लेने के सम्बंध में बातचीत अभी पूरी नहीं हुई हो.
राजनीति इस समय सत्ता की सुनामी की चपेट में है और हार्दिक पटेल जैसे युवा नेता, भाग्य- परिवर्तन के लिए किसी शुभ मुहूर्त की प्रतीक्षा करते हुए अपनी महत्वाकांक्षाओं को तबाह होता नहीं देखना चाहते.
इस समय समझदार उद्योगपति बीमार उद्योगों को ख़रीदकर उनसे मुनाफ़ा बटोरने में लगे हुए हैं और चतुर राजनीतिज्ञ, कमजोर विपक्षी पार्टियों में सत्ता के लिए बीमार पड़ते नेताओं और कार्यकर्ताओं की तलाश में हैं.
उद्योगपतियों को दुनिया का सबसे धनाढ्य व्यक्ति बनना है और राजनेता को विश्वगुरु. मणि कांचन संयोग है कि राजनीतिज्ञ और उद्योगपति एक ही प्रदेश से हैं!
कोई पंद्रह-सत्रह साल पहले के ‘वायब्रंट गुजरात’ के भव्य आयोजन का स्मरण होता है. मोदी तब मुख्यमंत्री थे. मंच पर देश के तमाम उद्योगपतियों का जमावड़ा था. जो उद्योगपति आज शीर्ष पर हैं वे तब एक ही स्वर में स्तुति कर रहे थे कि नरेंद्र भाई, ‘हम आपको प्रधानमंत्री के पद पर देखना चाहते हैं.’
(हार्दिक पटेल को हाल ही में यह कहते हुए उद्धृत किया गया है कि : ’कोई उद्योगपति अगर मेहनत करता है तो हम उस पर ये लांछन नहीं लगा सकते कि सरकार उसको मदद कर रही है. हर मुद्दे पर आप अडानी, अम्बानी को गाली नहीं दे सकते. अगर प्रधानमंत्री गुजरात से हैं तो उसका ग़ुस्सा अडानी, अम्बानी पर क्यों डाल रहे हैं !’)
जिस तरह से पहुँचे हुए ‘सिद्ध पुरुष’ हज़ारों श्रोताओं की भीड़ में भी पारिवारिक रूप से असंतुष्ट धनाढ्य भक्तों की पहचान कर लेते हैं, तीसरा नेत्र रखने वाले चतुर राजनेता चुनावों के सिर पर आते ही जान जाते हैं कि किस विपक्षी दल में किस नाराज़ नेता को इस समय नींद नहीं आ रही होगी.
हार्दिक पटेल की नींद राहुल गांधी की गुजरात यात्रा के बाद से ही उड़ी हुई थी.आरोप है कि राहुल गांधी, हार्दिक का दुख-दर्द सुनने- समझने के बजाय चिकन सैंडविच खाने और मोबाइल खंगालने में ही व्यस्त रहे. कांग्रेस को अब डराया जा रहा है कि हार्दिक के चले जाने से राज्य में अगले साल होने वाले विधान सभा चुनावों में पार्टी को ख़ासा ख़ामियाज़ा भुगतना पड़ेगा.
सवाल यह है कि क्या किसी लोकप्रिय नेता के एक दल छोड़कर दूसरे में शामिल हो जाने से, उसे समर्थन देने वाली समूची जनता का भी ऑटोमेटिक तरीक़े से दल बदल हो जाता है या सिर्फ़ दल बदलने वाले नेता को ही ऐसा मुग़ालता रहता है ?
कांग्रेस से इस्तीफ़े के बाद अगर भाजपा से शर्तें भी जम जातीं हैं तो क्या मान लिया जाएगा कि गुजरात की लगभग 7 करोड़ आबादी के कोई एक-डेढ़ करोड़ पाटीदार मतदाता हार्दिक के साथ भाजपा का वोट बैंक बन जाएँगे ? कहा जाता है कि राज्य की 182 सीटों में 70 को पटेल (पाटीदार) मतदाता प्रभावित कर सकते हैं.
पश्चिम बंगाल के प्रतिष्ठापूर्ण विधान सभा चुनावों में तृणमूल कांग्रेस के दर्जनों नेताओं ने रातों -रात भगवा धारण कर ममता को राम-राम कह दिया था. इन दल बदलुओं में सांसदों, विधायकों सहित कई बड़े नेता शामिल थे. गोदी मीडिया द्वारा देश में हवा बना दी गई थी कि दीदी की दुर्गति होने वाली है और भाजपा को 200 से ज़्यादा सीटें मिलेंगी. तृणमूल विधायकों द्वारा दल बदलते ही मान लिया गया था कि उनके चुनाव क्षेत्रों के सभी ममता-समर्थक वोटरों के दिल भी बदल गए हैं. ऐसा नहीं हुआ.
चुनाव परिणामों में जो प्रकट हुआ उससे भाजपा इतने महीनों के बाद भी उबर नहीं पाई है. बाद के उपचुनावों में तो भाजपा की हालत और भी ख़राब हो गई.
तृणमूल छोड़कर जितने भी नेता भाजपा में शामिल हुए थे सभी ब्याज सहित ममता की शरण में वापस आ गए! पश्चिम बंगाल के पहले मध्य प्रदेश में क्या हुआ था ! साल 2018 में भाजपा को हराकर कमलनाथ के नेतृत्व में क़ाबिज़ हुई सरकार को ज्योतिरादित्य सिंधिया ने अपने मंत्री-विधायक समर्थकों की मदद से भरे कोविड काल में कोई डेढ़ साल बाद ही गिरा दिया.
बाद में सिंधिया के नेतृत्व में सभी छह पूर्व मंत्रियों सहित बाईस विधायक भाजपा में शामिल हो गए और प्रदेश में शिवराज सिंह की सरकार बन गई.
ऐसा मानकर चला जा रहा था कि पूरे ग्वालियर-चम्बल इलाक़े में सिंधिया का प्रभाव है इसलिए कांग्रेस छोड़कर भाजपा में शामिल होने वाले उनके सभी समर्थक उपचुनाव भी भारी मतों से जीत जाएँगे. ऐसा नहीं हुआ. केवल तेरह लोग ही जीत पाए. सिंधिया स्वयं भी 2019 के लोक सभा चुनाव में गुना की सीट से चुनाव हार चुके थे.
नेताओं और जनता के बीच एक मोटा फ़र्क़ है; वह यह कि नेताओं को तो सत्ता के एक्सचेंज में अपनी राजनीतिक वफ़ादारी और वैचारिक प्रतिबद्धता बेचने के लिए तैयार किया जा सकता है, पर जनता बंदूक़ की नोक पर भी ऐसा करने को राज़ी नहीं होती.
नागरिक अपनी मर्ज़ी से ही विचार बदलने के लिए तैयार होते हैं. अतः कांग्रेस समेत तमाम विपक्षी दलों से इस्तीफ़े देकर भाजपा में शामिल होने वालों को जनता के प्रति अपने नज़रिए में सुधार करना पड़ेगा.
कांग्रेस के लिए चिंता का एक बड़ा कारण यह अवश्य हो सकता है कि पार्टी के सारे बुजुर्ग असंतुष्ट तो पूर्ववत क़ायम हैं, पर जिन युवा नेताओं का वह अपनी ताक़त के तौर पर इस्तेमाल करना चाहती है वे एक-एक करके सत्ता के रोज़गार के लिए भाजपा में अर्ज़ियाँ लगा रहे हैं.
गुजरात के बाद राजस्थान से जो समाचार प्राप्त हो रहे हैं वे भी कोई कम निराशाजनक नहीं हैं. कांग्रेस के लिए क्या यह हार्दिक दुख की बात नहीं कि पार्टी तो अंदर से टूट रही है और राहुल गांधी भारत को जोड़ने की यात्रा पर निकलना चाहते हैं ?