विमुक्त जनजातीय समुदाय में शोषित वर्गों में एक बड़ा वर्ग महिलाओं का भी है। इस समाज की औरतें घर और बाहर दोनों जगह पर भागीदारी निभाती हैं। सरसरी तौर पर देखने में ऐसा प्रतीत होता है कि इन समुदायों की औरतें निडर और उन्मुक्त हैं पर, वास्तविकता यह है कि वह ‘घर’ के बाहर उन्मुक्त दिखती हैं पर, घर के अंदर उसकी स्थिति बिल्कुल अलग होती है। परंपरा का उल्लंघन करने पर इनके लिए क्रूर और अमानवीय सजा का प्रावधान है जैसे, जीभ को गर्म लोहे की छ्ड़ी से दागना, आग पर चलाना, सिर के बाल उतरवा देना, उबलते तेल की कटोरी में से सिक्का निकालना इत्यादि। कुछ समुदाय की महिलाएं पारंपरिक पेशा के साथ-साथ ‘देह-व्यापार’ तक करने को मजबूर हैं ।
बुंदेलखंड एवं मध्यप्रदेश में निवास करने वाली ‘बेड़िया-समुदाय’ की स्थिति कुछ और ही है। वैसे तो इस समुदाय का पारंपरिक व्यवसाय चोरी/डकैती रहा है पर, धीरे-धीरे इन्होंने राई-नृत्य को अपना व्यवसाय बनाया । इस नृत्य को बेड़िया-समुदाय के स्त्री-पुरुष मिलकर किया करते थे। नृत्य की आड़ में इस समुदाय की महिलाओं को देह-व्यापार भी करना पड़ता था। धीरे-धीरे इस समुदाय के पुरुष आलसी होते गए और अपनी घर की औरतों पर निर्भर होते चले गए और देह-व्यापार इन महिलाओं का मुख्य पेशा बन गया। घर चलाने की ज़िम्मेदारी घर की बेटियों की बन गई और बेटे शादी करके अपना घर बसाने लगे।
जिन लड़कियों की शादी हो जाती वो ‘बेड़नी’ अर्थात देह-व्यापार में नहीं जाती थी। उसे घर की चारदीवारी में ही रहकर घर संभालने ज़िम्मेदारी उठानी होती है। देह-व्यापार का स्वरूप इस समुदाय में थोड़ा अलग है। ‘सिर-ढंकना’ नामक एक रस्म के जरीए औरतें देह-व्यापार में उतरती हैं, इस रस्म को कोई जमींदार या समतुल्य व्यक्ति पूरा करता है और तब यह माना जाता है कि आज से उक्त औरत पर उसका अधिकार है। वह जैसे चाहे उस औरत का इस्तेमाल कर सकता है। उस औरत से बच्चे पैदा कर सकता है पर, बच्चे को अपना नाम देगा या नहीं देगा इसके लिए वह स्वतंत्र होता है, औरत भी किसी अन्य व्यक्ति से संबंध बनाने और बच्चा पैदा करने के लिए स्वतंत्र होती है। इस तरह से इस समुदाय में बच्चों की पहचान माँ के नाम से भी हो जाती है या फिर पिता के रूप में किसी भी रूपक (मेटाफर) जैसे रूपया, पैसा या कोई काल्पनिक नाम भी देने का चलन है ।
प्रचलित मिथक में इन्हें राजपूत का वंशज बताया जाता है। सतीप्रथा का प्रचनल के दौरान युद्ध में मारे गए सैनिकों की विधवाओं को सती होने के लिए बाध्य किया जाता था। धीरे-धीरे इन महिलाओं ने सती न होने और जीवन जीने का फैसला लिया पर, पुनर्विवाह संभव नहीं था इसलिए, कुछ ने सन्यास का मार्ग चुना तो कुछ ने दूसरी जातियों के पुरुषों के साथ संबंध बनाए।
फलत:, इन स्त्रियों को जाति से बहिष्कृत कर दिया गया। इन बहिष्कृत स्त्रियों के साथ अब एक बड़ी समस्या यह आई जो थी इनकी बेटियों का विवाह। अपनी विधवा मां की स्थिति को देखते हुए कुछ लड़कियों ने खुद को किसी पुरुष के साथ बांधने से बेहतर, स्वतंत्र रखना ही समझा और यायावरी जिंदगी को अपनाया। आजीविका के लिए यह उच्चवर्ग के आर्थिक रूप से सम्पन्न पुरुषों को लोकनृत्य के माध्यम से मनोरंजन कर, धन कमाना प्रारंभ की, धीरे-धीरे यह पेशा देह-व्यापार में तब्दील होता चला गया। इन लड़कियों की खासियत थी कि इन्हें अपने दायित्व का बोध था इसलिए ये अपने परिवार के साथ-साथ समुदाय का भी ध्यान रखती थी।
इन लड़कियों ने खुद को ‘बेड़नी’ अथवा ‘नचनारी’ कहलाना स्वीकार किया । बिना किसी सामाजिक सबंध के आर्थिक आधार पर पुरुषों के साथ ‘संबंध’ स्वीकार किया। अविवाहित मातृत्व और अपने बच्चों को पालना भी स्वीकार किया । इनकी इस प्रवृति ने पुरुषों को आकर्षित किया। आर्थिक रूप से सम्पन्न इन जमींदारों और ठाकुरों के लिए यह स्थिति इसलिए सुविधाजनक थी क्योंकि, वे इस बात से भयमुक्त थे कि संपर्क में आई स्त्री उनके गले पड़ जाएगी और किसी तरह का दावा पेश करेगी। इन स्त्रियों ने धार्मिक स्तर पर भी खुद को लचीला रखा अर्थात, जिस धर्म के संपर्क में ज्यादा रही उसे ही अपना लिया। इस समुदाय की एक खासियत यह भी है कि ‘देह-व्यापार’ से जुड़ी स्त्रियाँ अपने समाज और परिवार में अधिक प्रभावशाली और अधिकार-प्राप्त होती हैं। अपनी आय का अपने हिसाब से उपयोग करने के साथ-साथ पुरुषों को खुद पर आश्रित भी मानती हैं।
समाज-सुधार आंदोलन के समय जब तमाम वर्ग की स्त्रियों के विषय में सोचा जा रहा था, उस समय इस समुदाय की ओर किसी का ध्यान नहीं गया। तमाम चुनौतियों के बावजूद ये खुद का अस्तित्व बनाए रखीं। स्थितियाँ तब और भी सोचनीय हो जाती हैं,जब वही पुरुष जो कि इनकी जिम्मेदारी (सिर ढंकना-प्रथा) लेता था वही अपने घर के समारोह/उत्सव में राई-नृत्य करवाता था। यह स्थिति किसी भी स्त्री के लिए कितनी दर्दनाक होती होगी इस बात का अंदाजा लगाया जा सकता है। उसके पतितुल्य व्यक्ति ही अपने परिवार और दोस्तों के बीच इन्हें अश्लील भाव के साथ नाचने को बाध्य करता था। यह भी एक वजह रही की जो बेड़नी स्त्री राई-नृत्य को अपना पेशा बनाती थीं, वो किसी की ‘पत्नी’ बनने का सपना ही छोड़ देती थीं । एक महत्वपूर्ण तथ्य यह भी है कि, इनके पतितुल्य व्यक्ति की ‘वैधानिक- पत्नी’ कभी भी इन बेड़नियों को घृणा भाव से नहीं देखा करती जैसा की वह ‘देह-व्यापार’ में संलग्न अन्य स्त्रियों को देखती थीं।
इस समाज की एक खासियत और भी है कि, आज जबकि हमारे पारंपरिक समाज में बेटियों के जन्म पर अपेक्षाकृत उल्लास का माहौल कम होता वहीं, इस समुदाय में बेटियों के जन्म पर जश्न मनाने का प्रावधान है किन्तु, इसका यह अर्थ बिलकुल भी नहीं है कि ये बेटों के जन्म पर दुखी होती हैं और न ही उन्हें उपेक्षित अनुभव कराती हैं। ताकि, वह कभी भी खुद को किसी पर बोझ न मान बैठे। बस इतना है कि ये स्त्रियाँ उनसे भविष्य में किसी तरह की उम्मीद नहीं रखतीं। बेटी के जन्म पर जश्न मनाने का मुख्य कारण यह है कि यह समुदाय बेटी को ही अपना भविष्य या वृद्धावस्था का सहारा मानते हैं।
इस समुदाय के पुरुष आलसी एवं सुस्त प्रकृति के होते हैं और परजीवी की तरह जीने की चाह रखते हैं। न ही कोई स्थाई काम करना चाहते हैं और न हीं किसी तरह की पारिवारिक ज़िम्मेदारी लेना चाहते हैं। इसलिए इस समुदाय की जो लड़की अविवाहित रहकर ‘देह-व्यापार’ में उतरती है अथवा, ‘बेड़नी’ बनती है उसे अपनी भाई-भाभी, मां-बहन तथा उस परिवार से जुड़े अन्य सदस्यों का भरण-पोषण का दयितत्व लेना होता है। कभी-कभी कोई ऐसा व्यक्ति भी उसके परिवार से आ जुड़ता है जो न तो उनके परिवार से जुड़ा होता है और न ही समुदाय इत्यादि से ताल्लुक रखता पर, उस ‘बेडनी’ से आसक्ति रखने की वजह से उसके घर में ही पड़ा रहता है और वे बेड़नी उसका भी भरण-पोषण करती है।
इस तरह से सतही तौर पर देखने में यही प्रतीत होता है कि इस समाज की महिलाएँ सशक्त और उन्मुक्त हैं जबकि, वास्तविकता बिल्कुल इसके उलट है। बेड़िया औरतें अपने घर के लिए पैसा कमाने वाली मशीन हैं और बाहर के लिए बेशर्म,व्यभिचारी और अपवित्र औरत। हलांकि, वर्तमान में हर समुदाय की भांति इस समुदाय में भी सामाजिक परिवर्तन हुए हैं। समकालीन महिला-आंदोलन एवं सामाजिक संगठनों के लगातार कोशिश का परिणाम है कि अब इस समाज में भी जागरूकता आई है और खासतौर पर औरतें देह-व्यापार के विकल्प के तौर पर शिक्षा एवं अन्य कार्य जैसे, खासतौर पर तमाम कुटीर उद्योग को देखती हैं और उससे जुड़ती भी हैं । इस तरह का परिवर्तन मुख्य तौर पर नवउदारवाद आने के बाद शुरू हुआ और अब यह परिवर्तन सीमित संख्या में ही सही पर दिखाई देने लगी है।
(डॉ. आकांक्षा, सामाजिक मुद्दों पर स्वतंत्र लेखन-कार्य, नई दिल्ली)