विवाह के बदलते स्‍वरूप


हमारी शादियां सचमुच सर्कस में बदल गई है। द ग्रेट इंडियन फैट वैडिंग की बजाय इसे द ग्रेट इंडियन सर्कस कहना चाहिए। इसमें भी लोग-बाग हाथी दरवाजे पर बांध देते हैं। दूल्‍हा, बग्‍गी पर राजा महाराजा की तरह तैयार  होकर अभी भी आता है।



हाल ही में सूरत में एक शादी में जाने का मौका मिला।  वहां बारात के ऊपर चलती सड़क पर द्रोण विमान उड़ रहा था और तस्‍वीरें ले रहा था।  लोग बहुत उत्‍साहित थे कि ये लग्‍न के समय पुष्‍पवर्षा  भी करेगा। देख-देखकर धन्‍य हो रहे थे। खाने-पीने की सामग्री भी देशी-परदेशी सब थी। टेप वाले फिल्‍मी गानों की बजाय गानेवाली लड़की (बाई कहना तो ठीक नहीं होगा) अच्‍छे सुर में पारम्‍परिक विवाह गीत गा रही थी।  दरवाजे पर ही तोरण की बजाय वरमाला डाल दी गई। दरवाजे पर ही बड़े-बडे रंगीन फोटो लड़की के परिवार के लगे थे और लड़के-लड़की के फोटो भी रंगीन ऐश्‍वर्या राय-सलमान के जैसे लगे थे। थोड़ी देर के बाद ही देखा तो लड़की डोली में बैठकर आ रही थी। चार-पांच लड़कियां आगे खींच रही थी -चार-पांच  पीछे।  फूलो से सजी थी डोली।

द्रोण और डोली का यह संगम गुजरात में ही आप देख सकते हैं। एक तरफ तो इतनी आधुनिकता कि ड्रोन ले आए और दूसरी तरफ डोली-इतनी पुराने जमाने की चीज। या तो हम ठीक से आधुनिक हुए नहीं या फिर हम इतने आधुनिक हो गए हैं कि लाज शर्म सब ढंक दी है।

सूरत में ही शाम को अभी भी तीन-तीन बेलपत्र गिन-गिनकर खरीदे जाते हैं और भगवान को चढ़ाए जाते हैं। स्‍वामी नारायण मंदिर, अक्षरधाम, द्धारका सब यहीं हैं।

विवाह और स्‍वागत भोज में अब कोई अंतर नहीं रह गया है। दोनों में वे ही मेहमान, वैसा ही एक जैसा खानपान। वैसा ही लॉन और परिसर। अलग-अलग टेबलें लगी हुई।  वैसे ही लकदम फैशन, ग्‍लेमर, नई काट के कपड़े, ब्‍यूटी पार्लर से सीधी आई हुई लड़कियां। यहां तक कि जूस, पिजा, बर्गर, ग्रालिक ब्रेड, पातीपूरी, पनीर, कुल्‍फी, आईसक्रीम, सलाद, चटनी, गर्म तवे की रोटी, तंदूरी रोटी आदि।

रिसेप्‍शन में द्रोण ने पुष्‍प वर्षा की। यहां उसे हेलीपैड बोलते हैं। दूल्‍हा दुल्‍हन जमीन से जैसे अवतरित हुए। पाताल-लोक से जैसे देवता आते हैं। वैसे निकले और ऊपर-ऊपर चढ़ते गए, खड़े- खड़े  ही। कभी आसाराम बापू भी ये सब तकनीक दि‍खाते थे। मंच पर जहां दूल्‍हा-दुल्‍हन खड़े थे वहां एक झरना भी था जिससे पानी लगातार बह रहा था। उस पानी में शायद द्रोण की पुष्‍प वर्षा हो गई तो वह चैनल रूक गया। बगल में गानेवानी लड़कियों के साथ नाचने वाली लड़कियां थी। कोमल नाम की एक लड़की या महिला ने प्रेम रतन धन पायो गाने पर अच्‍छा नृत्‍य किया। गुजराती दो गाने भी अच्‍छे थे। युगल-गान थे संगीत जरा लाऊड था। जगह-जगह खाने की मेज पर मेहमानबाजी के लिए सजी-धजी लड़कियां खड़ी थी -नेपकिन लिए साड़ी पहने।  एक से मैंने  नाम पूछा तो उसने जान्‍हवी बताया। उसकी मदद को बैरा भी था।

गाने वाली स्‍टेज पर बच्‍चों के लिए जादू का आयोजन भी था। रूमाल कैंची से काटा गया फिर भी वह साबुत निकला।  खाली डिब्‍बे से खाली डिब्‍बे निकाले गए। बच्‍चों का एक बंदर के माध्‍यम से भरपूर मनोरंजन किया गया।

इसके बाद जैसलमेर का एक कलाकार आया। उसने मंच पर नृत्‍य किया। फिर बियर की बोतलें अपने पैरों से फोड़ी और उसके कांच के टुकडे पर खड़ा हो गया। फिर दो टयूबलाईटें लाकर अपने मुंह से तोड़ी और खा गया।  मुंह से खून निकल रहा था।  फिर चार गिलास पानी भी पी गया।  पैरों से भी खून निकल रहा था।

फिर और किसी आईटम की कमी रह गई हो तो वह साईकिल के चार पहिये ले आया जिनके टॉयर नहीं थे।  उनको मुहं से नचाने लगा एक सिर से घुमाने लगा। चार एक साथ बैलेंस किए था। तरह-तरह के करतब देखकर लग रहा था जैसे हम किसी सर्कस में आए हों -शादी में नहीं।

हमारी शादियां सचमुच सर्कस में बदल गई है। द ग्रेट इंडियन फैट वैडिंग की बजाय इसे द ग्रेट इंडियन सर्कस कहना चाहिए। इसमें भी लोग-बाग हाथी दरवाजे पर बांध देते हैं। दूल्‍हा, बग्‍गी पर राजा महाराजा की तरह तैयार  होकर अभी भी आता है। शादी के बहाने घोड़ों, मनुष्‍यों, बच्‍चों पर  कितना अत्‍याचार होता है। बग्‍घी के साथ-साथ छोटी-छोटी लड़कियां या लड़के गैस के हंडे या रोशन के डेक या टयूबलाइटें लेकर चलते हैं। उनमें से कई ने तो सुबह से कुछ भी नहीं खाया होता है।  भूखे-प्‍यासे वे चलते ही रहते हैं।  उनसे कोई कुछ नहीं पूछता।

एक तरफ इतना इंतजाम पर बारात पहुंचने पर बारातियों को सादा पानी।  ठंडा भी नहीं, जूस भी नहीं। एक पुष्‍प भी नहीं। लड़के के पिता को शॉल ओढ़ाकर स्‍वागत किया गया।

स्‍वागत समारोह में ही शादी की, तिलक की, सगाई की रिंग सेरेमनी की। विडियों, बड़े पर्दे पर चल रही थी। दूल्‍हा -दुल्‍हन  को फिल्‍मी हिरो-हिरोईन की तरह प्‍यार की मुद्राओं में दिखाया जा रहा था।  दुल्‍हा-दुल्‍हन भी जैसे किसी नाटक के सिनेमा के, खेल के पात्र ज्‍यादा लग रहे थे।  दोनो अपने माता-पिता के साथ शाम 7 बजे से रात 12 बजे तक खड़े रहे भूखे प्‍यासे। रिसेप्‍शन में आनेवालों-लिफाफा देनेवालों का तांता लगा था।  कतार लंबी से लंबी होती जा रही थी।  दूल्‍हा-दूल्‍हन किस किसको पहचानें।  दुल्‍हन किस किस को याद रखेगी।

मेरी तो स्‍टेज पर जाकर दोनों को आशीर्वाद देने या हाथ मिलाने या फोटो खींचाने की हिम्‍मत ही नहीं हुई।  दुल्‍हा-दुल्‍हन प्‍लाटिस्‍क की मुस्‍कान लेकर मुस्‍काए जा रहे थे।

इतनी बार पानी और जूस पी लेने के कारण बाथरूम ढूंढना अनिवार्य हो गया।  किसी को पता न था। इतने बड़े लंबे-चौड़े मैदान में किसी को पता भी नहीं था।  कुछ मजदूरों से पूछकर पर्दो के पार पीछे की ओर गया।  इतना गंदा बाथरूम  मैंने कभी देखा न था। उसमें रोशनी भी नहीं थी। मूत्रपात्र का पाईप भी नहीं था।  नए कपड़ों पर वह गिर सकता था।  हाथ धोने का पात्र भी इतना गंदा था कि सब खाया-पिया बाहर आ जाए।

आपने इतने लाख खर्चा किए। सजावट में, पुष्‍पवर्षा में, खान-पान में, थोड़ा बाथरूम पर भी करते। उसे भी साफ करवा देते। दिल्‍ली में प्रयाग जी के साथ इंडिया आर्ट फेयर में गया – वो भी तो बगीचे में था लेकिन इतनी साफ-सफाई। बाथरूम के लिए बकायदा वैन थी जिसमें लेडिज-जैंटस अलग-अलग  टायलैटस थे। साबुन था। शीशा था।  बॉश-बेसिन था। सब साफ-सुथरा। और यहां हम आधुनिक तो हो गए। लाज शर्म सब छोड़ दी। दुल्‍हन का घूंघट शादी के दूसरे दिन ही नदारद था। दुल्‍हन जैसे गुजराती नहीं-सीधे मुंबई की मायानगरी से आई हो।  वैसा ही कृत्रिम केशविन्‍यास, पोशाक। पोशाक भी आधुनिक।  साढ़ी, लहंगा, चोली, घाघरा नहीं।  दूल्‍हा भी टाई लगाकर सीधे अमेरिका से आया लगा रहा था।