बाल श्रम दिवस : भारत में बाल मजदूरी पर ऐसे लगेगी लगाम


नोबेल शांति पुरस्‍कार से सम्‍मानित बाल अधिकार कार्यकर्ता कैलाश सत्‍यार्थी के नेतृत्‍व में 1998 में आयोजित “बाल श्रम विरोधी विश्व यात्रा” के फलस्‍वरूप ही यह कानून बना और आईएललो ने बाल श्रम विरोधी दिवस मनाने की उनकी मांग स्वीकार की थी। तब पांच महीने चली बाल श्रम विरोधी विश्व यात्रा ने 103 देशों से गुजरते हुए 80 हजार किलोमीटर की दूरी तय की थी। यात्रा में डेढ़ करोड़ लोगों ने सड़क पर मार्च किया था।



आज देश-दुनिया में बाल श्रम के खिलाफ राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय कानून हैं। बाल मजदूरी को खत्‍म करने के मकसद से अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) ने सन 1999 में कन्वेंशन-182 पारित कर विश्व समुदाय को बाल श्रम के खिलाफ एक अंतरराष्ट्रीय कानून भी दिया है। दुनिया के ज्यादातर देश इस पर हस्ताक्षर कर इसे अपने यहां लागू कर चुके हैं।  यह अंतरराष्ट्रीय कानून और अंतरराष्ट्रीय बाल श्रम विरोधी दिवस भी भारत की ही देन है। बाल मजदूरों की दयनीय हालत पर पर बात करने से पहले आज अंतरराष्ट्रीय बाल श्रम विरोधी दिवस पर हमें भारत की इस उपलब्धि के बारे में भी जानना और गर्वान्वित होना चाहिए। 

नोबेल शांति पुरस्‍कार से सम्‍मानित बाल अधिकार कार्यकर्ता कैलाश सत्‍यार्थी के नेतृत्‍व में 1998 में आयोजित “बाल श्रम विरोधी विश्व यात्रा” के फलस्‍वरूप ही यह कानून बना और आईएललो ने बाल श्रम विरोधी दिवस मनाने की उनकी मांग स्वीकार की थी। तब पांच महीने चली बाल श्रम विरोधी विश्व यात्रा ने 103 देशों से गुजरते हुए 80 हजार किलोमीटर की दूरी तय की थी। यात्रा में डेढ़ करोड़ लोगों ने सड़क पर मार्च किया था। जबकि 100 से ज्यादा वैश्विक नेताओं और राष्ट्राध्यक्षों ने इसमें हिस्सा लिया।

 कनवेंशन-182 बदतर प्रकार की बाल मजदूरी, बाल दासता, वेश्यावृत्ति और युद्ध व आपराधिक कामों में 18 साल तक के बच्चों के इस्तेमाल पर रोक लगाने की बात करता है। इस यात्रा का सुपरिणाम यह निकला कि आज के दिन पूरी दुनिया में बाल मजदूरी के शिकार बच्‍चों की संख्‍या आईएलओ के अनुसार 15 करोड़ 21 लाख 8 हजार है, जो ग्‍लोबल मार्च अगेंस्‍ट चाइल्‍ड लेबर की शुरुआत करने से पहले 26 करोड़ थी।  

अन्‍य देशों में आईएलओ कन्‍वेंशन को समय पर सख्‍ती से लागू करने से बाल मजदूरी की दर में काफी कमी आई, लेकिन वहीं भारत में इसको काफी देर से लागू किया गया। जिसका दुष्‍परिणाम यह देखने में आ रहा है कि बाल मजदूरों की संख्‍या हमारे यहां सबसे अधिक है। यूनीसेफ के अनुसार अभी भी भारत में विश्‍व के करीब 12 फीसदी बाल मजदूर कार्यरत हैं। वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार भारत में एक करोड़ एक लाख से अधिक बाल मजदूर हैं। ये बच्चे ज्यादातर ईंट भट्ठों, होटल-ढाबों, खेतों, कचरा बीनने, कपड़ा फैक्ट्रियों, चूड़ी और जरी जैसे उद्योगों में काम करते हैं।

कार्यस्‍थलों पर बाल मजदूरों की दयनीय स्थिति का आकलन इसी बात से किया जा सकता है कि उनसे 16-16 घंटे काम लिए जाते हैं। काम में थोड़ी भी कोताही बरतने पर शारीरिक और मानसिक प्रताड़ना दी जाती है। खाने में मोटा अनाज दिया जाता है। मजदूरी का भुगतान भी नहीं किया जाता है। उन्हें बंधुआ और गुलाम बना कर काम कराया जाता है। लड़कियों को तो यौन शोषण का शिकार बनाया जाता है। बाल मजदूरों का बाहरी सम्‍पर्क काट दिया जाता है।

ऐसी भयावह स्थिति के बावजूद बाल मजदूरी समाप्त करने की दिशा में राजनीतिक इच्छाशक्ति का अभाव दिखता है। ताज्‍जुब की बात तो यह है कि 2018 में बाल एवं किशोर श्रम (प्रतिषेध एवं विनियमन) अधिनियम के तहत देशभर में मात्र 464 मुकदमे ही दर्ज किए जा सके थे। श्रम विभाग के अनुसार बाल श्रम एक संज्ञेय अपराध बना हुआ है। लेकिन, देश में 10 से अधिक बाल संरक्षण एजेंसियों के होने के बावजूद प्रति वर्ष प्रत्तेक जिले के में बाल श्रम के औसतन मात्र 3 मामले ही पंजीकृत किए जाते हैं।

लॉकडाउन में तो बाल मजदूरों का और भी बुरा हाल हुआ है। अभी भी हजारों बाल मजदूरों के कारखानों, ईंट-भट्ठों एवं अन्‍य कामकाजी जगहों पर फंसे होने का अनुमान है। सामान्‍य दिनों में काम करने के बावजूद जब उनसे अमानवीय बर्ताव किया जाता है, तब कल्‍पना की जा सकती है कि आज जब वे कोई काम नहीं कर रहे होंगे, तो उनके साथ कैसा सलूक किया जा रहा होगा? 

लॉकडाउन में बेकाम हो चुके करोड़ों प्रवासी मजदूरों को अपने गांव को लौट जाना पड़ा है। उनके बेकार हो जाने से भुखमरी की खबरें आ रही हैं। इससे उनके बच्‍चे बंधुआ मजदूरी और दुर्व्‍यापार (ट्रैफिकिंग) के और आसान शिकार बनेंगे। बच्‍चों पर चौतरफा मार एक बार फिर से शुरू हो गई है। बच्‍चों के इसी हालात से चिंतित कैलाश सत्‍यार्थी ने पिछले दिनों प्रधानमंत्री को एक पत्र भी लिखा था, जिसमें उन्‍होंने आपदा से दुष्‍प्रभावित बच्‍चों को बचाने के लिए तत्‍काल कदम उठाने की मांग की थी। सरकारों से तमाम अपीलों के बावजूद मामूली से कदम उठाए गए हैं।

इस बात को बार-बार दुहराने की जरूरत है कि बालश्रम को तभी खत्‍म किया जा सकता है जब सरकार और स्‍वयंसेवी संस्थाओं के साथ-साथ आम आदमी भी इस सामाजिक बुराई के खात्में में रुचि लेना शुरू करें।  लोग जहां भी बाल मजदूरी के मामलों को देखें उसके खिलाफ आवाज उठाएं। पुलिस में उसकी रिपोर्ट करें। उन्‍हें चुप्‍पी और उदासीनता का त्‍याग करना होगा। बाल मजदूरी और दुर्व्‍यापार के दृष्टिकोण से संवदेनशील क्षेत्र में जन-जागरुकता अभियान को और तेज करने की जरूरत है। गरीब मां-बाप को शिक्षा के महत्‍व और बाल मजदूरी के फलस्‍वरूप होने वाले नुकसान से अवगत कराना होगा।

बाल श्रम की समस्‍या का समाधान तभी होगा जब हर बच्चे के पास उसका अधिकार पहुंच जाएगा। अभी तक जो बच्चे अपने अधिकारों से वंचित हैं, उनके अधिकार उनको दिलाने के लिए देश और समाज के प्रत्‍येक नागरिक को सामूहिक प्रयास करने होंगे। भारत में जब तक एक भी बच्‍चा गुलाम और असुरक्षित है, विकास और तरक्‍की की बात बेमानी ही होगी। बच्‍चों की आजादी, सुरक्षा, स्‍वास्थ्य किसी भी देश के विकास के मापदंड होते हैं। 

प्रभावी कानूनों तथा सर्वोच्‍च और उच्च न्‍यायालयों के निर्देशों के बावजूद बाल श्रम उन्मूलन पर कोई बड़ी प्रगति नहीं हुई है। इसका कारण है कि कानूनों के कार्यान्‍वयन में लाने की दिशा में कोई ठोस पहल नहीं की गई है। इसलिए जरूरी है कि बाल मजदूरी के उन्‍मूलन हेतु जो कानून बने हुए हैं उनको सख्‍ती से लागू किया जाए। कानूनों का कार्यान्‍वयन और अनुपालन जब तक नहीं होगा समस्‍या में कोई बड़ा सुधार नहीं होने वाला है। यह संवैधानिक व नैतिक दायित्व भी है।

लॉकडाउन के बाद बाल मजदूरी की समस्‍या और बढ़ने वाली है। इसलिए आने वाली चुनौती से निपटने के लिए जरूरी है कि संबंधित मंत्रालयों की एक टास्क फोर्स बनाई जाए और बाल श्रम उन्मूलन के लिए समयबद्ध और एक निश्चित बजट के साथ राष्ट्रीय कार्य योजना तैयार की जाए। सरकारों और स्‍वयंसेवी संस्‍थाओं के साथ-साथ समाज के प्रत्‍येक नागरिक को भी इस समस्‍या को दूर करने के लिए उठ खड़ा होना होगा। बाल हिंसा को खत्म करने के लिए हमें करुणा, कृतज्ञता, कर्तव्‍य और जिम्‍मेदारी के मूल्‍यों को अपने दिल में आत्‍मसात करना होगा।

 (लेखक बाल अधिकार कार्यकर्ता हैं।)