चलो, हवा से दोस्ती कर लें


आंकडे इसकी गवाही देते हैं। पिछले चार साल के आंकड़ों को देखें तो कुल 1660 दिनों में खराब हवा के दिन 1440 रहे। फिर भी क्या दिल्ली ने खद कोई ऐसी व्यापक पहल की कि लगे ‘क्लाइमेट इमरजेंसी’ है? फटकार व आदेश तक सीमित अदालत। मास्क और एयर-प्यूरीफायर बेचती कम्पनियां।


अरुण तिवारी
मत-विमत Updated On :

यह क्लाइमेट इमरजेंसी यानी जलवायु आपातकाल है! यदि तत्काल उचित कदम नहीं उठाए गए, तो इससे जबरदस्त दिक्कतें पैदा हो जाएंगी।’ एक तरफ दुनिया के 153 देशों के 11 हजार से अधिक वैज्ञानिक संसार के बिगड़ते पर्यावरण संतुलन को लेकर ऐसी संयुक्त चेतावनी जारी कर रहे हैं तो दूसरी तरफ हमारी दिल्ली में हालात दिन-प्रतिदिन बद से बदतर होते जा रहे हैं। और यह स्थिति केवल दिवाली बाद सर्दियों के तीन-चार माह ही नहीं होती, बल्कि पूरे सालभर तक कमोबेश यही हालात होते हैं। आंकडे इसकी गवाही देते हैं। पिछले चार साल के आंकड़ों को देखें तो कुल 1660 दिनों में खराब हवा के दिन 1440 रहे। फिर भी क्या दिल्ली ने खद कोई ऐसी व्यापक पहल की कि लगे ‘क्लाइमेट इमरजेंसी’ है? फटकार व आदेश तक सीमित अदालत। मास्क और एयर-प्यूरीफायर बेचती कम्पनियां। प्रदूषण, पराली और सम-विषम, इन तीन शब्दों को ताश के पत्तों के तरह फेंटती-बांटती दिल्ली की पॉलिटिक्स। तत्पश्चात् चुप्पी। इमरजेंसी में किसी ‘चिकित्सक’ के कर्तव्य क्या यही हैं?

दिल्ली प्रदूषण के दर्ज आंकड़ों और दर्ज पीड़ा से उपजे दो निष्कर्ष एकदम स्पष्ट हैं : पहला, क्लाइमेट इमरजेंसी और इसके दुष्प्रभाव वर्ष-दर-वर्ष की परिस्थिति है। इसे सिर्फ स्मॉग-टाइम इमरजेंसी मानना ग़लती होगी। साफ है कि इसकी मुख्य आरोपी सिर्फ त्यौहारी पटाखे, पराली जलाना व स्मॉग जैसी अल्पावधि की घटनाएं नहीं हो सकतीं। इसलिए न तो पटाखा-पराली दाह नियंत्रण और सम-विषम (ऑड-इवेन) जैसे अल्पकालिक फॉर्मूले इस समस्या का सम्पूर्ण व स्थाई समाधान हो सकते हैं और न ही एयर-प्यूरीफायरों की खरीद-बिक्री में ही इसके निवारण का कोई रास्ता छिपा है। समस्या का निवारण मूल कारणों की समग्रता में तलाशा जाना चाहिए।

पूरे मैदान पर हमसाया रहा। ग्रीनपीस रिपोर्ट (2018) के अनुसार दुनिया के सर्वाधिक वायु प्रदूषित 10 नगरों में से 7 भारत के थे। अब यदि भारत के सर्वाधिक वायु प्रदूषित 10 नगरों में कोलकोता, विशाखापट्टनम, हैदराबाद, चेन्नई, बेंगलुरु, मुंबई जैसे किसी नगर का नाम नहीं है, तो इसका मतलब यह कतई नहीं लगाना चाहिए कि इनमें वायु-प्रदूषण का कोई कारण मौजूद नहीं है। इनका वायुमंडल अपेक्षाकृत बेहतर इसलिए है क्योंकि ये या तो समुद्रतटीय हैं या समुद्र इनसे बहुत ज्यादा दूर नहीं है। समुद्रतटीय हवा की दिशा, गति, बारिश, शीतलता और ताप की अनुकूल स्थानीय मौसमी परिस्थितियां प्रदूषित तत्वों को एकत्र नहीं होने देती। किंतु इसका मतलब, समुद्रतटीय नगरों को प्रदूषित करने का लाइसेंस मिल जाना नहीं है

क्या केवल पराली ही हैं खलनायक?

बुनियादी तथ्य यह है कि स्मॉग में मौजूद स्मोक यानी धुआं सिर्फ पत्ते-पराली जलाने से पैदा नहीं होता, जैसा कि प्रचारित किया जा रहा है। यह अन्य कडा-कचरा, इंधन, पटाखे, गैस, भोज्य पदार्थों आदि के जलने, धात. पत्थर, लकड़ी, रबर, प्लास्टिक आदि के गलने, रगड़ने तथा शीतलन की अनेक प्रक्रियाओं से भी उत्पन्न होता है। ये प्रक्रिया हमारी रसोई, जंगलों, कारखानों, गाड़ियों, उपकरणों आदि में साल के बारह महीने चलती रहती है। तथ्य यह भी है कि वायु प्रदूषण का मतलब सिर्फ वायुमण्डल में मौजूद गैसों में सिर्फ कार्बन डाइऑक्साइड अथवा कार्बन मोनोऑक्साइड की मात्रा का आवश्यकता से अधिक बढ़ जाना नहीं होता, यह क्लोरो-फ्लोरो कार्बन, सीसा, अमोनिया, धूल, ओजोन गैस, मीथेन, सल्फर डाइऑक्साइड, नाइट्रोजन ऑक्साइड आदि का नुक़सानदेह सम्मिश्रण भी होता है। इनका उत्पादन हेयर डाई, चूड़ी, पेंट, कागज, धातु, पनबिजली निर्माण, वातानुकूलन, शीतलन व कचरा सड़ान जैसी कई जैविक, रासायनिक व भौतिक प्रक्रियाओं के दौरान होता ही है।

दिल्ली की हवा में मिश्रित पार्टिकुलेट मैटर में धूल की अत्यधिक मात्रा सबसे बड़ी चुनौती है। आंकड़ा है कि मौजूदा वाहन टायरों से करीब एक लाख किलोग्राम रबर सिता गति का निजी जीवना में – ना ।

क्या हैं समाधान?

वायु प्रदूषण की समस्या तात्कालिक नहीं है तो इसके समाधान भी तात्कालिक या अस्थाई नहीं हो सकते। समाधान दीर्घकालीन उपायों में ही निहित हैं, भले ही उन्हें प्रथम दृष्टया अव्यावहारिक कहकर खारिज कर दिया जाए। प्रदषण कम करने के लिए हमें ये ठोस कदम उठाने होंगे।

•सादगी को सम्मानित करना होगा और अधिक उपभोग करने वाले को हतोत्साहित। जितना संभव हो सके, रिसाइकल को बढ़ावा देना होगा

• अध्ययनों में सामने आया है कि ऑनलाइन शॉपिंग में पैकेजिंग मटेरियल का बेजा इस्तेमाल होता है। ऐसी पैकेजिंग को बढ़ावा देना होगा, जो कम से कम कचरा पैदा करे। पैकेजिंग मटेरियल का कचरा घटने से कार्बन उत्सर्जन में भी कमी होगी।

• गीले-सूखे कचरे को अलग-अलग करने को हर घर अपनी आदत बनाएं। गीले कचरे की खाद बनेगी। सूखा निष्पादित हो रिसाइकिल हो जाएगा। इससे कूड़ा जलाना ही नहीं पड़ेगा। धुआं स्वतः घट जाएगा। इसके लिए मप्र के इंदौर मॉडल को भी आजमाया जा सकता है।

•साइकिल के इस्तेमाल को प्रोत्साहित करना होगा। इसके अलावा कार पूलिंग एक अन्य उपाय है। हालांकि सर्वसुलभ और सस्ती सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था को बढ़ावा देने का जिम्मा सरकार का है।

• तमाम सरकारी और निजी कार्यालयों, कारखानों और स्कूल-कॉलेजों की कार्य अवधि में विविधता (जैसे एक साथ सुबह 10 बजे का समय न होकर दो-दो घंटे के अंतराल से समय रखा जाए) से न केवल ट्रैफिक जाम की समस्या से निजात मिलेगी, बल्कि धुएं से भी। इससे धुआं तो उतना ही होगा, लेकिन असर कम हो जाएगा।

• जरूरत न हो तो बिजली उपकरण, मोबाइल, कंप्यूटर, इंटरनेट व वाई-फाई बिल्कुल न चलाएं। कई लोगों की आदत होती है कि काम करने के बाद लैपटॉप को शटडाउन करने के बजाय ऐसे ही बंद कर देते हैं। इससे बैटरी खर्च होती रहती है

• तीनों की नीति, नीयत व क्षमता की परी जांच-परख के साथ बनाई जानी चाहिए

• दूसरा यह कि मौसम की कोई प्रशासनिक सीमा नहीं होतीअतः क्लाइमेट इमरजेंसी सिर्फ दिल्ली तक सीमित होना तार्किक नहीं है। नासा की तस्वीरें इसका समर्थन करती हैं। दिवाली के बाद का स्मॉग सिर्फ दिल्ली नहीं, उत्तर भारत पर पड़ा , धूल की बढोतरी में सडक निर्माण में सीमेंट का प्रयोग (क्रांकीट की सड़कें), खनन, मिट्टी-कचरे को ढोकर ले जाने तथा जमीन की ऊपरी परत में घटती नमी यानी उतरते भूजल, बढ़ते वाष्पीकरण व बढ़ते रेतीले क्षेत्रफल का भी भरपूर योगदान है। जाहिर है कि कारण कई हैं, तो समाधान के कदम भी अनेक ही होंगे।

• जितना और जहां संभव हो सके, पीपल, नीम, कदम्ब व खेजड़ी के पेड़ लगाएं। इंडस्ट्रियल एरिया में सरकारों और नीति नियंताओं को 30 प्रतिशत क्षेत्रफल में फैक्टरी और 70 प्रतिशत में हरियाली होने का नियम बनाना चाहिए।