2014 के आम चुनाव के बाद करीब पांच साल तक कांग्रेस और उसकी समर्थक पार्टियों की तरफ से लगातार ये सवाल उठाया गया कि ईवीएम के साथ धोखाधड़ी की जा रही है जिसके कारण कांग्रेस की हार हो रही है। हालांकि इस बीच कांग्रेस ने पंजाब, राजस्थान, मध्य प्रदेश विधानसभा चुनावों में जीत भी हासिल की। लेकिन 2019 के आमचुनाव परिणाम आने के बाद कांग्रेस को ये महसूस हो गया कि ईवीएम पर दोषारोपण बेकार है। लेकिन अब कांग्रेस ने अपने हार के कारणों की तलाश शुरु की तो कहा गया कि टेलीवीजन कांग्रेस की हार के लिए जिम्मेवार है।
टीवी पर होनेवाली बहसें समाज में नफरत का माहौल पैदा कर रही है जिसका फायदा बीजेपी को मिल रहा है। कांग्रेस इतनी क्रुद्ध हुई कि उसने अपने प्रवक्ताओं तक को टीवी पर जाने से रोक दिया। धीरे धीरे कांग्रेस को समझ में आया कि ये एक और गलत निर्णय है और उन्होंने उसमें सुधार करके दोबारा टीवी पर अपने प्रवक्ताओं को भेजना शुरु कर दिया। अब कांग्रेस को अपनी हार का नया कारण मिल गया है। सोशल मीडिया। राहुल गांधी द्वारा सोशल मीडिया पर दोषारोपण किया गया है कि इस प्लेटफार्म पर मोदी की बीजेपी और आरएसएस नफरत फैला रहे हैं जिसके कारण हिन्दुत्ववादी ताकतें मजबूत हो रही हैं, (और कांग्रेस हार रही है।)
राहुल गांधी और उनके सलाहकारों के स्वप्नलोक से अलग प्रियंका गांधी सत्य के ज्यादा करीब नजर आ रही हैं। पहले राम मंदिर निर्माण पर दी गयी अभी शुभकामना के बाद उन्होंने कहा है कि सोशल मीडिया को समझने में हमें देर हुई, जिसका खामियाजा हमें भुगतना पड़ा है। प्रियंका गांधी बिल्कुल सही कह रही हैं। सोशल मीडिया को लेकर कांग्रेस की उदासीनता ने उन्हें नुकसान पहुंचाया है। लेकिन सवाल क्या सिर्फ उदासीनता है? सवाल तो स्वीकार्यता का भी है।
क्या कांग्रेस की तुष्टीकरण वाली राजनीति अब इस नये समाज में इतनी स्वीकार्य रह गयी है जो सोशल मीडिया के उभार के पहले थी? कम से कम प्रियंका गांधी इस सत्य को समझने का प्रयास जरूर कर रही हैं कि सोशल मीडिया के दौर की नयी राजनीति के लिए नयी कांग्रेस चाहिए जो मोदी के नेतृत्ववाली बीजेपी का मुकाबला कर सके। और इसकी शुरुआत स्वयं कांग्रेस के भीतर राज परिवार के समापन से होगी। प्रियंका गांधी ने एक बार दोहराया है कि नया कांग्रेस अध्यक्ष नेहरु गांधी परिवार से नहीं होगा।
निश्चित रूप से प्रियंका गांधी वाड्रा का ये आत्मचिंतन सत्य के ज्यादा करीब है। नेहरु गांधी परिवार की वंशवादी राजनीति का लंबे समय से विरोध करनेवाले लेखक रामचंद्र गुहा ने भी एक बार फिर कहा है कि मोदी की अक्षम नीतियों के सामने भी कांग्रेस सक्षम रूप से इसलिए खड़ी नहीं हो पा रही है क्योंकि कांग्रेस पर वंशवादी राजनीति हावी है। कांग्रेस के लिए ये कोई अच्छी बात नहीं है कि सोनिया गांधी कांग्रेस के इतिहास की सबसे लंबे समय तक अध्यक्ष रहनेवाली राजनीतिज्ञ बन गयी हैं।
मान लीजिए यही हाल बीजेपी का होता तो क्या बीजेपी का इस तरह से उभार होता? क्या बीजेपी को नरेन्द्र मोदी का नेतृत्व मिलता जिन्होंने बीजेपी की जीत के सारे रिकार्ड तोड़ दिये? नहीं मिलता। लोकतंत्र में वंशवादी राजनीति प्रतिभाओं को सीमित करता है। याद करिए राजशेखर रेड्डी को कि कैसे उन्होंने आंध्र प्रदेश में मृतप्राय पड़ी कांग्रेस को उठाकर खड़ा कर दिया था और न केवल आंध्र प्रदेश में कांग्रेस की जोरदार वापसी हुई बल्कि केन्द्र की यूपीए टू सरकार बनाने में भी आंध्र प्रदेश की बंपर जीत का महत्वपूर्ण योगदान रहा।
कांग्रेस को आत्मचिंतन करना है और उसका ये आत्मचिंतन बीजेपी या हिन्दुत्व को गाली देने की बजाय अपनी नीति, नीयत और नेता पर करना है। राजनीतिक दल पानी की तरह होते हैं। जैसे बर्तन में जाते हैं वैसा आकार ग्रहण कर लेते हैं। बदलते समय के साथ राजनीतिक दलों को भी अपनी नीति, नीयत और नेता पर चिंतन करते रहना चाहिए। कांग्रेस पार्टी को सोचना है कि कहीं उनकी विखंडनवादी राजनीति का शिकार वो स्वयं तो नहीं हो गये?
याद रखिए जिन्ना किसी आरएसएस के खिलाफ नहीं लड़ रहा था। न ही उस समय कोई वीएचपी या जनसंघ था। वो हिन्दू महासभा के खिलाफ भी नहीं लड़ रहा था। उसकी लड़ाई सीधे सीधे कांग्रेस से थी। उसे कांग्रेस हिन्दुओं की पार्टी लगती थी। मुसलमानों के मन में उसने आरएसएस का डर नहीं बैठाया था। उसने उसी कांग्रेस और गांधी डर बैठाया था जिसकी विरासत आजादी के बाद भी बची रही। नेहरु हों या पटेल वो समान रूप से हिन्दुत्ववादी और इस्लामिक कट्टरता के खिलाफ खड़े रहते थे। फिर आज ऐसा क्या हो गया कि कांग्रेस को कट्टरता भी एकपक्षीय ही दिखने लगी?
असल में कांग्रेस धीरे धीरे तुष्टीकरण से विखंडन की राजनीति का शिकार हो गयी। उसने सिर्फ अल्पसंख्यक बहुसंख्यक का बंटवारा ही नहीं किया बल्कि बहुसंख्यक में भी उसने दलित सवर्ण, आदिवासी और गैर आदिवासी का बंटवारा किया। कांग्रेस की पूरी राजनीति हिन्दू धर्म के विखंडन पर आकर टिक गयी। भारत एक ऐसा देश बन गया जहां बहुसंख्यक ही ये महसूस करने लगा कि उसकी अपनी कोई पहचान नहीं है। बीजेपी ने इसी चीज को पकड़ा और मोदी ने इसे इतना तेजी से उभारा कि जाति और वर्गों में बंटे हिन्दुओं को लगने लगा कि हमारी पहली पहचान हिन्दू की है बाकी सारी पहचान उसके बाद है।
मोदी मुसलमानों का विरोध करते हों ऐसा तो नहीं कहा जा सकता लेकिन उन्होंने राजनीति का अनिवार्य अंग बन चुके रोजा इफ्तार वाले मुस्लिम तुष्टीकरण का पूरी तरह से निषेध कर दिया। इसका परिणाम ये हुआ कि उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में जहां मुसलमान किसी राजनीतिक दल की हार जीत की गारंटी होते थे, आज हाशिये पर खड़े हैं। सपा कांग्रेस और सपा बसपा का गठजोड़ भी मोदी के हिन्दुत्व को चुनौती नहीं दे सके हैं।
इसलिए कांग्रेस को अगर आत्मचिंतन ही करना है तो उसे अपने नेता, नीति और नीयत पर चिंतन करना होगा। उसकी ऐतिहाक हार के लिए बीजेपी और मोदी से ज्यादा यही तीन कारण जिम्मेवार हैं। जिस दिन कांग्रेस ईमानदारी से इन तीनों पर चिंतन करके आवश्यक सुधार कर लेगी, उसकी जीत सुनिश्चित हो जाएगी।