मुख्य विपक्षी पार्टी अखिल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस यानी आईएनसी आजकल मीडिया ट्रायल के दौर से गुजर रही है। 2014 से लगातार दो बार लोकसभा का चुनाव हारने के बाद आज इसकी स्थिति मुहावरे के हिसाब से उस गरीब की जोरू की तरह हो गई है जिसे कोई भी हड़का लेता है। हालांकि 2019 का लोकसभा चुनाव हारने से पहले इसी कांग्रेस पार्टी ने देश के मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ राज्यों में डेढ़ दशक से कब्ज़ा जमाये हुए भाजपा को करारा झटका देकर 2018 के विधान सभा चुनाव में अच्छी जीत भी दर्ज की थी लेकिन मीडिया ट्रायल में इन बातों पर ध्यान नहीं दिया जाता। चूंकि कांग्रेस का ट्रायल किया जा रहा है इसलिए उसे सिर्फ और सिर्फ सवाल किये जा रहे हैं।
अजीब बात है कि ये सवाल करने मीडिया के वाले वो लोग हैं जो कांग्रेस के इतिहास से परिचित नहीं हैं और इतिहास जानना भी नहीं चाहते। ये मीडिया के लोग विपक्ष की पार्टी से सिर्फ यही सवाल करते हैं कि क्या गांधी-नेहरु परिवार के अलावा इस पार्टी के पास कोई और नेता नहीं है जो इसे नेतृत्व दे सके। मजेदार बात यह है कि यह सवाल देश की सबसे पुरानी (135 साल) उस पार्टी के नेताओं से किया जाता है जिसे अब तक गांधी -नेहरु परिवार के कुल छः व्यक्तियों ने ही नेतृत्व प्रदान दिया है और हर बार इस पार्टी के बड़े नेता ही पार्टी का नेतृत्व करने की गुहार लेकर इस परिवार के पास गए हैं।
कांग्रेस का गठन 1885 में हुआ था और मोहनदास करमचंद गांधी भी इसके अध्यक्ष रह चुके हैं लेकिन जिस सन्दर्भ में गांधी-नेहरु परिवार का उल्लेख कांग्रेस के मीडिया ट्रायल में किया जा रहा है उसमें गांधी का सन्दर्भ महात्मा गांधी या उनके परिवार से नहीं बल्कि देश के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरु और उनकी बेटी इंदिरा गांधी जो देश की पहली और अब तक अंतिम महिला प्रधानमंत्री रही हैं, उनके परिवार से है। इस लिहाज से देखें तो जवाहरलाल नेहरु, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, सोनिया गांधी और राहुल गांधी सातवीं बार इस पार्टी की अध्यक्षता कर चुके हैं। इसमें सोनिया गांधी का वह दूसरा कार्यकाल भी शामिल है जब उन्हें लोकसभा चुनाव की हार के बाद बेटे राहुल गांधी के कांग्रेस के अध्यक्ष पद से इस्तीफा देने के बाद अंतरिम अध्यक्ष के तौर पर यह जिम्मेदारी संभालने को कहा गया था।
इस घटना के ठीक एक साल के बाद पार्टी गुलाम नबी आजाद, कपिल सिब्बल, शशि थरूर जैसे लगभग दो दर्जन नेता जब पत्र बम के हवाले से नेतृत्व पर सवाल उठाते हैं तब उन्हें यह समझ में क्यों नहीं आता कि अगस्त 2019 में सोनिया गांधी नहीं आयीं थीं पार्टी के पास कि उन्हें अध्यक्ष बना दिया जाए, पार्टी के यही नेता तब उनके पास गए थे कि पार्टी की साख बचाए रखने के लिए वो अध्यक्ष पद संभालें। इसी तरह 1991 में भी इसी कांग्रेस पार्टी के नेताओं ने राजीव गांधी की हत्या के बाद भी सोनिया गांधी से पार्टी की कमान संभालने का अनुरोध किया था लेकिन वो वक़्त ऐसा नहीं था कि सोनिया गांधी यह जिम्मेदारी संभाल पाती इसलिए इनकार की करना था तब पीवी नरसिंह राव को पार्टी और सरकार की कमान सौंपी गई थी।
1996 में जब कांग्रेस लोकसभा का चुनाव हार गई थी तब भी एक बार फिर कांग्रेस नेताओं ने सोनिया से पार्टी कमान संभालने की गुहार लगाईं थी लेकिन तब भी सोनिया ने मना कर किया था। अंततः 1998 में सोनिया गांधी ने पार्टी नेताओं की बात मान कर पार्टी का नेतृत्व करना स्वीकार कर लिया था। इसके अनुकूल परिणाम भी सामने आये जब 2004 में 8 साल बाद कांग्रेस की केंद्र सरकार में वापसी हुई थी।
कांग्रेस के इस पत्र बम की परिणति विगत सोमवार 24 अगस्त 2020 को हुई कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक के रूप में सामने आई। कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक आम तौर पर ऐसे माहौल में होती है जिसकी जानकारी पार्टी फोरम से बाहर कभी नहीं जाती। लेकिन इस बार इसका एकदम उल्टा हो रहा था न केवल कार्यसमिति की बैठक में हिस्सा लेने वाले पार्टी नेताओं के बयान बाहर आ रहे थे बल्कि पार्टी नेताओं के ऐसे बयान भी सूत्रों के हवाले से मीडिया में परोसे जा रहे थे जो नेताओं ने दिए ही नहीं।
राहुल गांधी के उस बयान को लेकर भी मीडिया का अधकचरापन तब सामने आया जब सूत्र के हवाले से यह बात कह दी गई कि पत्र लिखने वाले नेताओं की भाजपा से सांठ-गांठ रही है। सूत्रों के हवाले की इस खबर को प्रिंट मीडिया के साथ ही टीवी मीडिया ने भी इतने प्रभावशाली तरीके से फैला दिया कि कपिल सिब्बल को राहुल गांधी के इस कथित बयान के खिलाफ ट्विटर पर कुछ लिखना भी पड़ा। ये बात अलग है कि कपिल सिब्बल ने बाद में यह कहते हुए अपना वह ट्वीट वापस ले लिया क्योंकि राहुल गांधी ने उनसे कहा है कि उन्होंने कार्यसमिति की बैठक में ऐसा कुछ नहीं कहा है।
अब इसे मीडिया ट्रायल नहीं कहेंगे तो और क्या कहेंगे कि कार्य्र समिति की बैठक में जो बयान दिया ही नहीं गया उसे एक बड़ी खबर के रूप में इतना प्रचारित कर दिया गया कि पार्टी के ही एक नेता को अपने दूसरे नेता के बयान के खिलाफ सार्वजनिक रूप से बयान बाजी करनी पड़ गई। जब यह बात सामने आई कि राहुल गांधी ने ऐसा कुछ नहीं कहा तो स्टूडियो में बैठे चेनल के एंकर और कांग्रेस मुख्यालय में बैठे उसके रिपोर्टर यह कहने से भी नहीं चूंकते कि इसमें प्रेस की कोई गलती नहीं है, पार्टी के सूत्र ही गलत जानकारी दे रहे हों तो पत्रकार क्या कर सकता है। पत्रकार और कुछ न करे कमसे कम इतना तो कर ही सकता है कि खबर को छपने या प्रसारित करने से पहले तथ्यों की जांच ही कर ली जाती।
मीडिया ने ऐसा करना जरूरी नहीं समझ क्योंकि उसे तो विपक्ष की पार्टी को किसी भी हालत में कटघरे में खड़ा करना ही था। बहरहाल जहां तक नेहरु-गांधी परिवार के सदस्यों के कांग्रेस अध्यक्ष बनने का सवाल है, उस सम्बन्ध में यह जानकारी महत्वपूर्ण होगी कि इस परिवार के राहुल गांधी और सोनिया गांधी के अलावा राजीव गांधी 1985 से 91 तक कुल 6 साल, उनसे पहले इंदिरा गांधी और जवाहरलाल नेहरु ही अलग-अलग समय पर पार्टी की तात्कालिक जरूरतों के सन्दर्भ में पार्टी के अध्यक्ष पद पर रहे हैं।
इनके अलावा जितने महान नेता इस पार्टी ने देश को अध्यक्ष के रूप में दिए हैं उनमें से 25 फीसदी के नाम भी इन मीडिया ट्रायल करने वालों को पता नहीं हैं। पत्रकार को तथ्य और सच्चाई तो जरूर सामने रखनी चाहिए लेकिन जो सत्य नहीं है उस अफवाह को सनसनी बना कर खबर की तरह प्रचारित करना और प्रसारित करना पत्रकारिता के किसी धर्म का पालन करना नहीं कहा जा सकता इसके विपरीत यह शुद्ध रूप से एजेंडा पत्रकारिता का ही एक हिस्सा है।