कोरोना-काल एवं उसके बाद की चुनौतियां


कोरोना के चलते दुनिया के कमोबेश सभी देशों में, कहीं आज तो कहीं कल के नाम पर अलग -दिनों की निर्धारित अवधि के लिए लॉक डाउन जैसे अमोघ शस्त्र का इस्तेमाल किया गया और आज तक किया भी जा रहा है। अब धीरे-धीरे ही सही दुनिया के देश अपनी-अपनी जरूरत के हिसाब से इसकी मुक्ति के रास्ते भी तलाशने लग गए हैं।



यह निर्विवाद सत्य है कि जो आया है वो एक दिन जाएगा भी। नियति के हवाले से भी लोग कहते ही रहते हैं कि जीवन में आना- जाना लगा ही रहता है और आने वाले को एक दिन जाना ही पड़ता है। न किसी के आने का मालूम होता है न वापस जाने का ही पता चल पाता है। लेकिन यह निश्चित है कि हर आने वाले को एक दिन जाना अवश्य होता है। इंसान से लेकर पेड़-पौंधे, पशु-पक्षी, मौसम-माहौल, रोग, आपदा-विपदा और जानदार चीज से लेकर हर बेजान चीज को भी, चाहे वो जो भी हो आने के बाद एक दिन जाना ही होता है।

इसी सिद्धांत के चलते करीब छः माह पहले चीन से चल कर दुनिया के इरान-इराक, अमेरिका, इटली, स्पेन, रूस और ब्रिटेन का रास्ता तय कर भारत तक पहुंचने वाले जानलेवा कोरोना वायरस और उससे पैदा हुई कोरोना बीमारी का भी एक दिन अंत निश्चित है और वो समय दिन जल्दी भी आ सकता है। ऐसा होना एक स्वागत योग्य कदम होगा लेकिन ध्यान रखने वाली बात यह होगी कि जितने दिन यह वायरस इस दुनिया में रहा, उसने कितना नुक्सान पहुंचाया और आने वाले समय में सब कुछ ठीक-ठाक चलता भी रहा तो इसकी भरपाई कब और कितने समय में होगी। 

कोरोना आया है तो जाएगा भी चिंताजनक बात तो यही होगी इसकी वजह से हुए नुक्सान की भरपाई कैसे हो? कोरोना के बाद भविष्य की एक सबसे बड़ी चुनौती यह भी होगी। कोरोना से होने वाले नुक्सान की भरपाई का काम एक चरण में नहीं कई चरणों में पूरा करना होगा। नुक्सान की भरपाई के लिए किये जा सकने वाले  राहत और पुनर्वास जैसे इन कामों को प्रमुखतः तीन चरणों में तो बांटा ही जा सकता है। ये तीन चरण हैं- आर्थिक नियोजन, रोग और वायरस मुक्त वातावरण का निर्माण और पर्यावरण संरक्षण के साथ पृथ्वी का भी बचाव। 

कोरोना के चलते दुनिया के कमोबेश सभी देशों में, कहीं आज तो कहीं कल के नाम पर अलग -दिनों की निर्धारित अवधि के लिए लॉक डाउन जैसे अमोघ शस्त्र का इस्तेमाल किया गया और आज तक किया भी जा रहा है। अब धीरे-धीरे ही सही दुनिया के देश अपनी – अपनी जरूरत के हिसाब से इसकी मुक्ति के रास्ते भी तलाशने लग गए हैं। दुनिया में हर जगह दुकाने भी खुलने लगी हैं। सड़कों में भी चहल -पहल शुरू होने लगी है। रेस्टोरेंट में बैठ कर खाने की न सही, वहां से सामान खरीद कर घर लाने की इजाजत तो मिल ही गई है। स्कूल -कॉलेज नहीं खुले लेकिन ऑनलाइन पढ़ने -पढ़ाने का सिलसिला तो जारी है। 

दफ्तरों में पूरी तरह काम करने की आजादी चाहे अभी न हो लेकिन सीमित संख्या में ही सही कुछ लोगों के दफ्तर जाकर काम करने और कुछ को घर में रह कर ऑफिस का काम करने की इजाजत तो है ही। कारखाने और निर्माण का काम भी धीरी -धीरे ही सही शुरू होने लगा है। कहा सकते हैं कि कुल मिला कर अब लगभग दो -ढाई महीने की राष्ट्रव्यापी और विश्वव्यापी बंदी के बाद ताला खुलने के दौर की भी शुरुआत हो गई है। अभी स्थिति को सामान्य तो नहीं माना जा सकता फिर भी यह तो कहा ही जा सकता है कि कोरोना के जाने का समय धीरे – धीरे पास आता जा रहा है। इसके साथ ही देश – विदेश में स्थितियां सामान्य होने की दिशा में आगे बढ़ रही हैं। 

कोरोना के बाद की स्थ्तितियों में सबसे पहले इस बात पर ध्यान देने की जरूरत होगी कि इस दौर में आर्थिक नुक्सान की दर क्या रही और इससे निजात पाने के लिए क्या किया जा सकता है। इस सम्बन्ध में सोचने वाली बात यह भी होगी कि कोरोना की वजह से जितने लोगों को बेरोजगारी का सामना करना पडा है क्या उन सभी को वापस रोजगार मिल पायेंगे? इसी तरह कोरोना से बेघर-बार हुए प्रवासी मजदूरों को उनके गृह राज्यों में ही रोजगार की उपलब्धता भी एक बड़ी चुनौती है। मजदूरों की समस्या केवल उनके रजगार से ही जुडी हुई नहीं है बल्कि इसका समबन्ध आर्थिक उत्पादन की दर से भी है। अगर उद्योगों को वांछित संख्या में मजदूर उपलब्ध नहीं हो सके तो यसका असर उत्पादन पर पड़ेगा ही। श्रमिक कानूनों में मन माफिक बदलाव कर मजदूरों के काम के घंटे तो बढ़ाए जा सकते हैं लेकिन ज्यादा देर तक काम करने का उत्पादन में कितना फर्क पड़ेगा यह तो उद्योगों का भविष्य ही बता पायेगा लेकिन देश की आर्थिक उत्पादकता दर पर कोई ख़ास फर्क नहीं आएगा यह बात एकदम तय है।

आर्थिक नियोजन की इस चुनौती का सफलता पूर्वक सामना करने के साथ ही हमको दूसरे चरण की चुनौती के रूप में इस बात का भी पूरा ख्याल रखना होगा कि शुरुआती दौर में कोरोना को एक रोग और वायरस के रूप में समझ न पाने की वजह से स्वास्थ्य और इलाज संबंधी किन-किन परेशानियों का सामना करना पड़ा था। उनके समाधान के पर्याप्त इंतजाम हम कर भी सकें हैं या नहीं। इस सन्दर्भ में तमाम तरह की भ्रांतियों का निष्पादन करने के साथ ही नई व्यवस्था लागू करना भी हमारी प्राथमिक जिम्मेदारियों में से एक जिम्मेदारी होनी चाहिए। इस दौर में इसका भी विवेचन करना होगा कि कोरोना की वजह से घर बैठे रहने की मजबूरी में ऑनलाइन का जो भी कार्य व्यापार पढ़ाई-लिखाई अथवा दूसरे शासकीय और गैर शासकीय सन्दर्भों में किया गया वो कितना व्यावहारिक था और उसका कितना लाभ अथवा नुक्सान हुआ है। 

अगर वर्क फ्रॉम होम की यह परंपरा कोरोना विहीन समय भी जारी रखी जाती है ति इससे पर्यावरण को किस हद तक संरक्षित रखने में मदद मिल सकती है और इसका देश की आर्थिक स्थिति पर क्या प्रभाव पड़ सकेगा। कोरोना के दो दौर में देश के अनेक शिक्षा संस्थानों से इस तरह की जानकारियां भी मिली हैं कि वहां वर्क फ्रॉम होम व्यावहारिक धरातल पर सफल नहीं हो पाया क्योंकि कहीं इन्टरनेट की सुविधा निरंतर नहीं मिल सकी तो कहीं बिजली ही उपलब्ध नहीं थी। देश के सुदूरवर्ती सीमान्त पहाडी क्षेत्रों और पिछड़े राज्यों में वर्क फ्रॉम होम की कमोबेस यही स्थिति रही। ऐसे में आर्थिक और शैक्षिक विकास के सन्दर्भ में ऑनलाइन व्यवस्था पर कितना भरोसा किया जा सकता है। इसी सन्दर्भ में एक महत्वपूर्ण बात यह भी है कि लॉकडाउन के चलते इंसान की आमो-दरफ्त एकदम शून्य होने से पूरे विश्व में पर्यावरण की स्थिति में जो आशाजनक सुधार और बदलाव आया है उसे आगे भी ऐसे ही बना कर कैसे रखा जा सकता है?