स्त्रियों की मानसिक अवस्था को प्रभावित कर रहा है ‘कोरोना- संकट’


आशा-कार्यकर्ता’ को ही देखा जाए तो उन्हें न्यूनतम वेतन में घर से बिना किसी निजी सुरक्षा किट के बाहर निकलकर सरकारी निर्देशों का पालन करना पड़ रहा है और साथ ही घरेलू दायित्वों को भी निभाना पड़ रहा है। दिल्ली की कुछ आशा-कार्यकर्ताओं ने साझा भी किया है कि उन्हें मास्क और सेनीटाईजर जैसी आवश्यक चीजें भी सरकार की ओर से नहीं उपलब्ध कराई जा रही है।



कोरोना महामारी का यह दौर किसी भी जाति/वर्ग की स्त्री क्यों न हों, उन्हें तमाम तरह की समस्याओं से जूझने के साथ-साथ मानसिक स्वास्थ्य के स्तर पर भी प्रभावित कर रहा है। लगातार इस तरह की खबर सुनने को  मिल रही है कि स्त्रियों को तमाम तरह की प्रत्यक्ष हिंसा (घरेलू हिंसा, यौन हिंसा) झेलने के साथ-साथ अप्रत्यक्ष हिंसा का भी शिकार होना पड़ रहा है और इस तरह की अप्रत्यक्ष हिंसा से छुटकारा पाने के लिए फिलहाल इनके पास कोई ठोस विकल्प भी नहीं है। 

खासतौर पर मध्यमवर्गीय कामकाजी महिलाएं जो इस दौर में ‘वर्क-फ्राम होम’ से लेकर घर से बाहर जाकर अपना दायित्व निभा रही हैं यदि उनकी स्थिति पर गौर किया जाए तो उन्हें लगातार घर और बाहर दोनों ओर से ‘मानसिक-प्रताड़ना’ का भी शिकार होना पड़ रहा है। वेतन कटौती के साथ एक तरफ उसे अपनी प्रोफेशनल दायित्वों को भी निभाना पड़ रहा है और दूसरी ओर घरेलू सामाजिक संरचना के साथ भी लगातार तालमेल बिठाना पड़ रहा है। 

उदाहरण के तौर पर ‘आशा-कार्यकर्ता’ को ही देखा जाए तो उन्हें न्यूनतम वेतन में घर से बिना किसी निजी सुरक्षा किट के बाहर निकलकर सरकारी निर्देशों का पालन करना पड़ रहा है और साथ-ही-साथ घरेलू दायित्वों को भी निभाना पड़ रहा है। दिल्ली की कुछ आशा-कार्यकर्ताओं ने साझा भी किया है कि उन्हें मास्क और सेनीटाईजर जैसी आवश्यक चीजें भी सरकार की ओर से नहीं उपलब्ध कराई जा रही है लेकिन, हर दिन सरकार की ओर से कोरोना को लेकर जागरूकता लाने और तरह-तरह के सर्वे करने के नए-नए निर्देश जारी किए जा रहे हैं। 

मास्क की जगह उन्हें दुपट्टे का इस्तेमाल करना पड़ रहा है। हर दिन उन्हें बहुत सारे लोगों के संपर्क में आना पड़ता है लेकिन, उनकी इन बुनियादी आवश्यकताओं पर कोई ध्यान नहीं दे रहा है। इन सबके अलावा उनके साथ संक्रमण वाहक कहकर आम जनता द्वारा दुर्व्यवहार भी किया जा रहा है। इन आशा-कार्यर्ताओं ने साझाकिया है कि उन्हें सर्वे या जागरूकता कार्यक्रम के दौरान लोग घरों के अंदर भी नहीं आने देते हैं या फिर, बदतमीजी से पेश आते हैं। इनके अनुसार इन्हें अपने ड्यूटी के दौरान लगातार मानसिक और शारीरिक शोषण का भी शिकार होना पड़ता है।

उसी तरह अगर घरेलू कामगार स्त्रियों की स्थिति पर गौर किया जाए तो इस दौर में बहुत बड़ी संख्या में इन्हें नौकरी से हटाया गया। ऐसी मान्यता है कि इन कामगारों का तमाम घरों में आना जाना होता है इससे संक्रमण का खतरा बढ़ सकता है। इसलिए, अधिकांश घरों में घरेलू कार्य खुद से करने का विकल्प चुना गया। इन घरेलू कामगारों में बहुत सारी ऐसी महिलाएं भी होती हैं जिनके कंधे पर ही आजीविका चलाने की ज़िम्मेदारी होती है। अब, नौकरी से निकाल दिए जाने की स्थिति में उनके लिए आजीविका का बहुत बड़ा संकट सामने आ गया है।

सरकारी निर्देशों के अनुसार कुछ घरों द्वारा उन्हें कुछ समय तक वेतन भी दिए गए पर, लंबे समय तक बिना कोई काम करवाए इस आर्थिक संकट के दौर में किसी के लिए भी वेतन देना असंभव है। यह स्थिति दोनों तरफ की महिलाओं (मालिक और कामगार) के लिए बहुत ही तनाव उत्पन्न कर रहा है। खासतौर पर उन घरेलू कामगारों की स्थिति और भी बदतर हो गई है जो कि प्रवासी हैं और बिहार, झारखंड, ओडिशा इत्यादि राज्य से दिल्ली, मुंबई जैसे शहरों में आकर घरेलू कामगारों का पेशा अपनाती हैं। 

इन्हें न तो मालिकों से वेतन मिल पा रहा है और प्रवासी होने की वजह से ये किसी सरकारी योजनाओं का ही लाभ नहीं उठा पा रहीं हैं। आज भी बहुत सारी ऐसी प्रवासी महिला इस इंतजार में हैं कि, कब उनके मालिक उन्हें बुलाएं और उनकी जिंदगी फिर से पटरी पर आ जाए। उधर अधिकांश घरों में तमाम परेशानियों और तनावों के बावजूद भी घर के सदस्य घरेलू सहायकों को वापस बुलाने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहे हैं। शिक्षा के क्षेत्र से जुड़ी स्त्रियों की भी यही स्थिति है। 

कुछ महिलाओं और लड़कियों ने सोशल-मीडिया के जरिये अपनी आपबीती भी साझा की जिसमें उन्हें आनलाईन क्लासेस करने या लेने में किस तरह की परेशानियों का सामना कर पड़ रहा इसका जिक्र है। कुछ के पास संसाधनों का अभावहै तो कुछ के लिए घरेलू ज़िम्मेदारी ही प्राथमिक ज़िम्मेदारी बताई जारही है और इन घरेलू जिम्मेदारियों को पूरा करने के बाद ही घर के सदस्यों द्वारा उन्हें अन्य जिम्मेदारियों को पूरा करने की अनुमति दी जा रही है।

खासतौर पर यदि उत्तर भारत की बात करें तो यहां आज भी आर्थिक, सामाजिक और मानसिक तीनों स्तर पर जेंडर के आधार पर भेदभाव देखने को मिल जाते हैं। अब जहां तक शिक्षा के क्षेत्र की बात की जाए तो सरकार द्वारा यह आदेश तो जारी कर दिया गया कि इस संकटपूर्ण अवधि में डिजिटल माध्यम का प्रयोग कर बच्चों को शिक्षा प्रदान किया जाए पर, इस बात को नजरंदाज कर दिया गया कि यह माध्यम कितने बच्चों के लिए सुगम होगा? आज भी बहुत सारे परिवार के पास कंप्यूटर और स्मार्ट फोन नहीं है और यदि है भी तो उसकी क्षमता बहुत ही कम है, लगातार वीडियो चलने की स्थिति में ये संसाधन बहुत जल्द खराब भी हो जा रहें हैं। 

छोटे-शहरों एवं गांवों में बिजली भी पर्याप्त मात्रा में नहीं रहती और सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि, आज जहां लोगों को आजीविका का संकट झेलना पड़ रहा है वहां उनके लिए इंटरनेट के ज़रिए पढ़ाई एक तरह से फिजूलखर्च भी लग रही है ऐसे में यदि घर के लड़कों को यह सुविधा मिल भी जा रही है तो लड़कियां धीरे-धीरे पढ़ाई से वंचित होती जा रही हैं। ऐसी स्थिति में ‘बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ’ और आत्मनिर्भर भारत का सपना कितना साकार हो पाएगा इस पर भी विचार करने की आवश्यकता है? 

सिर्फ आनलाईन पढ़ाई के मामले में ही नहीं प्राईवेट और सोशल सेक्टर की नौकरीपेशा स्त्रियों को भी इन सब परिस्थितियों से लगातार जूझना पड़ रहा है। संसाधन के अभाव में अपनी दायित्वों को अच्छी तरह से नहीं निभा पाने की स्थिति में या फिर घर/बाहर की जिम्मेदारियों में तालमेल न बैठा पाने की स्थिति में उन्हें नौकरी से हाथ तक धोना पड़ रहा है। 

आज भी तमाम तरह के संसाधनों पर पहला अधिकार घर के पुरुष सदस्यों का ही माना जाता है। आशय यह कि, यदि घर में एक ही स्मार्ट फोन या कंप्यूटर है और एक ही समय में घर के पुरुष और महिला दो सदस्यों को इसकी जरूरत है तो आदर्श स्थिति यही मानी जाएगी कि, पहले इस संसाधन का इस्तेमाल घर के पुरुष सदस्य ही करें। उसी तरह भाई और बहन दोनों को एक ही समय में आनलाईन क्लास करना है तो पहले स्मार्टफोन या कंप्यूटर पर उसके भाई का अधिकार माना जाता है।

ऐसी स्थिति में लड़कियों/स्त्रियों को पढ़ाई या फिर कैरियर इत्यादि में पिछड़ जाने का खतरा बढ़ता जा रहा है जो कि धीरे-धीरे उन्हें अवसाद की स्थिति में पहुंचा रहा है। इस दौर में भी तमाम तरह की हिंसा के साथ-साथ घरेलू-हिंसा की खबरें भी लगातार सुनने को मिल रहीं हैं। केंद्र और राज्य महिला आयोग के पास बड़ी संख्या में शिकायतें भी पहुंच रही हैं पर, ऐसा नहीं हैं कि इस तरह की हिंसा के पीछे सिर्फ घर के पुरुष सदस्य ही जिम्मेदार है, घर की महिला सदस्यों ने भी अपने घर की कामकाजी महिला सदस्यों पर यह आरोप लगाया है कि वो ‘वर्क-फ्राम होम’ के दौरान भी ठीक तरह से घर की जिम्मेदरियों को नहीं निभा रही हैं। 

उनके लिए यह समझ पाना बहुत मुश्किल हो रहा ही कि ‘वर्क-फ्रोम होम’ में भी उनकी घर की महिला सदस्यों को उतनी ही ज़िम्मेदारी पूरी करनी पड़ रही है जितना कि उन्हें आफिस जाकर करना होता था। यह स्थिति घर के अंदर तनाव कारण भी बनती जा रही है और मानसिक-स्वास्थ्य को भी बूरी तरह से प्रभावित कर रही है। अगर इन स्थितियों पर अभी से ध्यान नहीं दिया गया और कोई ठोस विकल्प नहीं ढूंढा गया तो आने वाले समय में यह स्थिति समाज के लिए बहुत ही गंभीर समस्या बन सकती है। 

(डॉ. आकांक्षा सामाजिक एवं महिला मुद्दों पर स्वतंत्र लेखन करती हैं।)