कोरोना के सामने क्यों बेबस है दुनिया की सबसे बड़ी ताकत


अमेरिका का न्यूयार्क शहर जो अपने मनोरंजन और आमोद-प्रमोद की गतिविधियों के लिए दुनिया में एक मस्त शहर के रूप
में जाना जाता है, वहां बुधवार 8 अप्रैल को ऐसी
भयावह स्थिति उत्पन्न हो गई थी कि शहर कोरोनासे मरने वालों के शवों कोयहां के शव गृहों में रखने की जगह नहीं रह गई थी। अकेले न्यूयार्क
शहर में ही उस दिन तक 5400 लोग कोरोनासे मर चुके थे और
1लाख 38 हजार से ज्यादा
इससे संक्रमित थे।



किसी को कुछ भी कहने की जरूरत नहीं है। जो कुछ है सब सामने है दुनिया जान रही है कि एक मसखरे राष्ट्राध्यक्ष के नेतृत्व में आज दुनिया की सबसे बड़ी ताकत जिसे अमेरिका कहा जाता है, कोरोना के सामने एकदम बेबस और असहाय सी नजर आती है। आंकड़े बता रहे हैं हम नहीं कि बुधवार 8 अप्रैल से एक दिन पहले तक अमेरिका में कोरोना वायरस के कारण मरने वालों की संख्या अनुपातिक दृष्टि से दुनिया में सबसे ज्यादा हो गई थी। एक ही दिन में औसतन एक हज़ार से ज्यादा लोगों की इस वायरस से मौत हो जाने के कारण उस दिन तक अमेरिका में कोरोना से मरने वालों की संख्या 13 हज़ार तक पहुंच गई थी और मौत का यह सिलसिला इन पंक्तियों के लिखे जाने तक इसी तरह जारी था। 

इसका एक भयावह चेहरा इसमें भी दिखाई दिया कि अमेरिका का न्यूयार्क शहर जो अपने मनोरंजन और आमोद-प्रमोद की गतिविधियों के लिए दुनिया में एक मस्त शहर के रूप में जाना जाता है, वहां बुधवार 8 अप्रैल को ऐसी भयावह स्थिति उत्पन्न हो गई थी कि शहर कोरोना से मरने वालों के शवों को शव गृहों में भी रखने की जगह नहीं रह गई थी। अकेले न्यूयार्क शहर में ही उस दिन तक 5400 लोग कोरोना से मर चुके थे और 1लाख 38 हजार से ज्यादा इससे संक्रमित थे। 

इस मामले में दूसरे नम्बर पर अमेरिका का न्यूजेर्सी शहर था जहां मरने वालों की संख्या 1200 और संक्रमित होने वालों की संख्या 44 हजार से कुछ ज्यादा ही थी। आंकड़े बताते हैं कि पूरे अमेरिका में इस रोग से संक्रमित होने वालों की संख्या सबसे ज्यादा करीब  साढ़े 4 लाख से उपर है। इसकी वजह से अस्पतालों में भी इलाज के लिए जगह नहीं बची है और मुर्दा घर पहले से ही भरे पड़े हैं।

इन हालातों में इलाज के लिए जरूरी दवा का अभाव अमेरिका के ट्रम्प प्रशासन को असहाय और बेबस बनाने के अलावा और कर भी क्या सकता है। प्रशासन की यह बेबसी उसके मुखिया डोनाल्ड ट्रम्प के मुंह से मौके-बेमौके व्यक्त होती ही रहती है। इसी वजह से ट्रम्प को जब ऐसा लगा कि भारत से अमेरिका को हाइड्रॉक्सी क्लोरोक्वीन नामक मलेरिया की दवा  नहीं मिल पायेगी तो उन्होंने तत्काल यह कहने से भी संकोच नहीं किया कि अगर भारत ने दवा नहीं दी तो अमेरिका भी वक़्त आने पर भारत को उसका माकूल जवाब देगा। बहरहाल! भारत ने अमेरिका को उसकी जरूरत की हिसाब से दवा की आपूर्ति कर दी तो ट्रम्प में भारतीय प्रधान मंत्री की ताईफ में कसीदे कसने से भी संकोच नहीं किया।

कोरोना को लेकर ट्रम्प की बदहवासी का आलम इस रूप में भी देखा जा सकता है कि जब पिछले दिनों उनसे पूछा गया कि वो लोगों से कोरोना का इलाज करने के लिए भारत से मंगाई गई इस दवा का इस्तेमाल करने को क्यों कह रहे हैं जबकि ऐसा कोई प्रमाण नहीं है कि इससे कोरोना का इलाज हो जाएगा और ऐसी कोई जांच भी इस दवा की अमेरिका में अभी तक नहीं हुई है तो ट्रम्प का जवाब था, “अमेरिका के पास इतना समय नहीं है कि इस समय यहां उसका टेस्ट करवाया जाए, लेकिन फ्रांस में इस दवा के टेस्ट हुए हैं और उन टेस्टों से यह पता चलता है कि हाइड्रॉक्सी क्लोरोक्वीन इस रोग में भी एक कारगर दवा है।

इसके विपरीत अमेरिका और यूरोप की अखबारी रिपोर्ट्स का इस बारे में यह कहना है कि अमेरिका के शीर्ष डॉक्टरों में शुमार अन्थोनी फाऊसी इसे कोरोना में कारगर दवा होने का कोई प्रमाण नहीं देखते। उनका तो यह भी कहना है कि भारत की इस दवा की प्रमाणिकता को लेकर मीडिया के जरिये  गलत  सूचनाएं  दी गईं हैं जिन्हें प्रमाणिकता का आधार नहीं माना जा सकता। 

इस आधार पर अमेरिका के मीडिया ने ही ट्रम्प के इस कथन  पर ही  सवालिया निशान लगाना शुरू कर दिया यह दवा कोरोना वायरस का एक इलाज है। वहां का मीडिया इसे विशुद्ध रूप से सोशल मीडिया के  एक सुविचारित अभियान का हिस्सा मानता है और इसी आधार पर अपने राष्ट्रपति को कटघरे में खड़ा करना चाहता है। मीडिया ने इस दवा की फ़्रांस में हुई जांच को ही सवालों के घेरे में लेना शुरू कर दिया है। कहा जा रहा है कि फ़्रांस के अध्ययन में इस दवा की प्रमाणिकता के लिए 42 मरीजों को शामिल किया गया था जिसमें से चार की हालत फिर बिगड़ गई। उन्हें वापस आईसीयू में लाना पड़ा और उसमें भी एक की मौत हो गई और एक ने इलाज कराने से ही मना कर दिया। अलबत्ता 36 मरीज जरूर ठीक हो गए थे।

अमेरिका में केलिफोर्निया  के एक प्रोफेसर एंड्रू मोमेर का मानना है कि यह अध्ययन पूरी तरह तथ्यहीन है। बहरहाल! अमेरिका के राष्ट्रपति के कारनामों को लेकर उनके देश का मीडिया और वहां के विशेषज्ञ किस तरह का हमला करते हैं, इसका हमसे कोई लेना देना नहीं होना चाहिए। लेकिन इतनी बात तो समझ में आनी ही चाहिए कि जो अमेरिका हर रोज किसी न किसी बहाने दुनिया के किसी भी देश को हड्काने से बाज नहीं आता था। आज उसे कोरोना जैसे एक छोटे से अदृश्य वायरस ने इतना असहाय बना दिया है। उस वायरस से होने वाली हज़ारों अमेरिकियों की मौत का न तो ये महान देश कोई बदला ले पा रहा है और न ही इस वायरस से पैदा होने वाले रहस्यमय कोरोना रोग का ही उसके पास माकूल इलाज है। 

इलाज के लिए भी उसे भारत की दशकों पुरानी मलेरिया विरोधी उस दवा हाइड्रॉक्सी क्लोरोक्वीन की शरण में जाना पड़ रहा है जिसका उत्पादन अमेरिका द्वारा पैदा  किये गए बहुराष्ट्रीय घरानों के विरोध में भारत में शुरू किया गया था। हैरानी की बात ये है कि कोरोना वायरस ने अमेरिका को इतना मौका भी नहीं दिया कि वो भारत में बनी इस दवा की प्रमाणिकता की जांच ही अपने देश में करा पाता इसके लिए भी उसे फ़्रांस के अध्ययन को ही आधार बनाना पड़ा। प्रसंगवश यह कहने में कोई संकोच नहीं होना चाहिए कि अमेरिका का मौजूदा प्रशासन जनता की उम्मीदों पर तो खरा नहीं उतरा है उसने अपने कारनामों से वैश्विक स्तर पर भी अपनी साख में बट्टा लगाया है।

कोरोना को लेकर हम अपनी सरकार पर इस तरह का आरोप लगाने से संकोच नहीं करते कि सरकार ने समय पर ध्यान नहीं दिया जिससे हालात इतने खराब हो गए। पर इसके विपरीत अगर हम कोरोना के सन्दर्भ में अमेरिका की ट्रम्प सरकार के कामकाज की बात करें तो समझ में आता है कि हमारी स्थिति इस मामले में अमेरिका से कहीं बेहतर है।  

(लेखक दैनिक भास्कर के संपादक हैं।)