दुःख और सुख दोनों ही जीवन के साथी हैं। इंसान के जीवन में कभी दुःख तो कभी सुख आते ही रहते हैं। इंसान को कभी कभी दुःख ज्यादा होता है तो कभी इंसान को खुशी भी ज्यादा और देर तक मिलती है और इंसान दोनों ही परिस्थितियों में जीवन जीता भी है। परिस्थितियों के अनुसार इंसान अपने जीवन को ढाल भी लेता है और इंसान का यही गुण उसे अन्य पृथ्वी के अन्य प्राणियों से अलग भी बनाता है। एक सिक्के के दो पहलूओं की तरह इंसान कभी खुशी और कभी गम के सिद्धांत पर जीने भी लगता है। पिछले कई महीनों से चला आ रहा कोरोना वायरस का संकट भी कुछ ऐसा ही है।
विगत 22 मार्च से घर में बंद रह कर इस वायरस को फैलने से रोकने में काफी मदद तो मिली है लेकिन सब कुछ बंद रख कर जीने का यह सिलसिला जिन्दगी भर नहीं चल सकता। इसे कभी तो कहीं तो पूर्ण विराम देना ही होगा। फैक्ट्री से लेकर स्कूल, कॉलेज, बाजार ऑफिस, सड़क और परिवहन रेल और जहाज आज नहीं तो कल खोलने ही होंगे। सब एक साथ न सही। एक-एक कर और धीरे-धीरे ही सही सारे कार्य व्यापार खोलने ही पड़ेंगे और हमको कोरोना के साथ जीने की आदत भी डालनी ही होगी ऐसा नहीं किया तो जीना वैसे भी मुश्किल हो जाएगा।
इंसान कोरोना की बीमारी से बच भी गया तो गरीबी और भूख की मार उसे जीने नहीं देगी। दो दिन पहले कुछ इसी अंदाज में राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली सरकार के मुख्य मंत्री अरविन्द केजरीवाल ने कोरोना के साथ जीने की आदत डालते हुए 22 मार्च से चले आ रहे राष्ट्रव्यापी लॉकडाउन में कुछ ढील देने का अनुरोध केंद्र सरकार से किया था।
अरविन्द केजरीवाल से कुछ दिन पहले इन्फ़ोसिस के सह संस्थापक नारायणमूर्ति ने भी इसी बात पर जोर देते हुए कहा था कि अगर सब कुछ इसी तरह लम्बे अरसे तक बंद रहा तो भारत जैसे देश में कोरोना से मरने वालों की तुलना में भूख से मरने वालों की तादाद कहीं ज्यादा हो जायेगी। कोरोना के चलते राष्ट्रव्यापी लॉकडाउन का तीसरा चरण भी शुरू हो चुका है। लॉकडाउन के इस चरण में कई तरह के बदलाव भी किये गए हैं कोरोना के साथ जीने की आदत डालने के मन्त्र के साथ ही कोरोना से सुरक्षित रह कर लड़ने का एक अंदाज भी इस चरण में देखने को मिल रहा है।
खुलने के नाम पर बहुत कुछ तो इस चरण में भी नहीं खुल रहा है लेकिन लॉकडाउन के पहले दो चरणों के मुकाबले तीसरे चरण में कुछ आवाजाही और हलचल बढ़ी तो जरूर है। इस बदलाव की एक वजह दिल्ली के मुख्य मंत्री अरविन्द केजरीवाल और इन्फ़ोसिस के सह संस्थापक नारायणमूर्ति के सुझाव और बयान भी हो सकते हैं लेकिन लगता है कि इसके पहले ही सरकार ने भारतीय उद्योग परिसंघ (कन्फेडरेशन ऑफ़ इंडियन इंडस्ट्रीज) यानी सीआईआई की उस रिपोर्ट का अच्छी तरह से अध्ययन कर लिया होगा जिसमें बेमियादी लॉकडाउन के चलते देश के औद्योगिक और आर्थिक रूप से बुरी तरह बीमार पड़ने की बात कही गई है।
इस रिपोर्ट के अनुसार अगर लॉकडाउन का यह सिलसिला इसी तरह आगे भी चलता रहा जिस तरह 22 मार्च से अब तक चला आ रहा है तो फिर भारत जैसे देशों में भूखों मरने की नौबत आ जायेगी। सीआईआई की यह रिपोर्ट इसलिए भी चौंकाने वाली है क्योंकि यह रिपोर्ट एक ऐसे राष्ट्रीय सर्वेक्षण पर आधारित है जिसमें आम जनता से नहीं बल्कि देश के औद्योगिक और व्यापार जगत के शीर्ष प्रबंधकीय अधिकारियों से इस मुद्दे पर बातचीत की गई है।
कोरोना वायरस के असर और उस असर से निपटने के लिए देश में लगाए गए लॉकडाउन से उपजी स्थितियों के बारे में इन मुख्य व्यापारिक और औद्योगिक मुख्य कार्यकारी अधिकारियों ने जो कहा है उससे देश की आर्थिकी की एक नकारात्मक तस्वीर ही सामने आती है। इस सर्वेक्षण द्वारा प्राप्त जानकारी के अनुसार, 44.7 फीसदी कॉरपोरेट प्रमुख का मानना है कि कोरोना से लड़ने के लिए किये गए इस तरह के तमाम इंतजामों की वजह से भारतीय अर्थव्यवस्था की जो दयनीय हालत आज हो गई है उसे सुधरने में एक साल से अधिक का समय लग सकता है।
अर्थव्यवस्था और उद्योग पर कोविड-19 पर किये गए इस सर्वेक्षण का यह भी मानना है कि, इस वजह से चूंकि ज्यादातर कंपनियां अपने राजस्व में भारी गिरावट की लगातार आशंका जताई जा रही हैं, इसलिए इन कंपनियों को ऐसा नहीं लगता कि इस वजह से हुए आर्थिक नुक्सान की वसूली जल्दी हो पायेगी और इसी के चलते ये कंपनियां अब आर्थिक वसूली में देरी का अनुमान लगा रही हैं।
इस सर्वे में 300 से अधिक सीईओ ने हिस्सा लिया, जिसमें से दो-तिहाई एमएसएमई से संबंध रखते हैं। लगभग 45 फीसदी के अनुसार लॉकडाउन के बाद आर्थिक रिकवरी में एक साल से अधिक का समय लग सकता है। लगभग 36.5 फीसदी कॉरपोरेट प्रमुखों के अनुसार आर्थिक रिकवरी में छह से 12 महीने लग सकते हैं। लगभग 17 फीसदी के अनुसार रिकवरी तीन से छह महीनों में हो जाएगी। 1.8 फीसदी की मानें तो आर्थिक रिकवरी को तीन महीनों की जरूरत है। 34 फीसदी के अनुसार उनकी कंपनियों की रिकवरी में छह से 12 महीने लगेंगे।
अंत में सर्वे यह भी कहता है कि लॉकडाउन ख़त्म होने के बाद भी घरेलू मांग की स्थिति सामान्य होने में छह से 12 महीने लग सकते हैं इसके साथ ही 45 प्रतिशत प्रतिभागियों को 15 से 30 फीसदी नौकरियां खत्म होने का खतरा नजर आ रहा है।