यह निर्विवाद सत्य है कि कोरोना वायरस और उससे पैदा हुई कोविड-19 एक हद तक लाइलाज बीमारी है। यह वायरस इतना घातक है कि इसने आज पूरी दुनिया को अपने लपेटे में ले रखा है। लाखों लोग इसका शिकार होकर दुनिया के हज़ारों अस्पतालों में अपना इलाज करा रहे हैं तो हज़ारों की तादाद में लोग इसकी वजह से असमय मौत के आगोश में समा गए हैं। यह बीमारी इतना क्रूर रूप ले चुकी है कि इससे संक्रमित होने वाले व्यक्ति का अगर समय पर उचित उपचार न मिल सके तो इसके वायरस का सीधा असर इंसान के दिल, दिमाग, गुर्दे और फेफड़ों पर होता है और जब इंसान के ये महत्वपूर्ण अंग काम करना बंद कर देते हैं तो उसकी मृत्यु हो जाती है। अभी तक इसकी कोई विशेष दवा और वेक्सीन भी उपलब्ध नहीं है इसलिए इसके शिकार व्यक्ति को राम भरोसे ही छोड़ना पड़ता है।
हालांकि कुछ देशों में मलेरिया प्रतिरोधी हाइड्रोक्सी क्लोरोक्वीन को इसकी दवा के एक विकल्प के रूप में स्वीकार किया है फिर भी आम धारणा यही है कि जितना हो सके सामाजिक दूरी के नियम का पालन कर इस वायरस को फैलने से रोका जाए। इसीलिए दुनिया के वो सभी देश जो इसके संक्रमण का शिकार हुए हैं या संक्रमित होने के कगार पर हैं सोशल डिस्टेंस के फार्मूले को अपनाए हुए हैं। इस फार्मूले को अपनाने के क्रम में ही इन दिनों बाजार, स्कूल- कॉलेज, दफ्तर, कल- कारखाने और सभी व्यावसायिक प्रतिष्ठान सब बंद हैं, अनिवार्य सेवाओं को छोड़ कर सभी सेवाएं बंद हैं।
सड़कों के साथ ही हवाई और रेल मार्ग की आवाजाही भी बंद है। सभी अपने- अपने घरों में क़ैद हैं। यूं ऊपर से देखने पर यह सब कुछ बहुत कष्टप्रद और उबाऊ लगता है लेकिन इसके कई दूरगामी फायदे भी नजर आने लगे हैं। एक तरफ जहां इस लॉकडाउन के चलते आसमान का मूल नीला रंग अब फिर से दिखाई देने लगा है वहीँ दूसरी तरफ नदियों का जल, समुद्रों के तट एकदम साफ़, निर्मल और प्रदूषण मुक्त हो गए हैं, उधर कोरोना की मार से त्रस्त यूरोप के कई देशों ने अपने देश के समाचार संस्थानों को आर्थिक तंगी से उबारने की गरज से सोशल मीडिया के फेसबुक और गूगल जैसे घरानों से समाचारों का उपयोग करने के एवज में फीस वसूलने का नियम लागू करने पर गंभीरता से विचार करना शुरू कर दिया है।
ताजा जानकारी के मुताबिक़ ऑस्ट्रेलिया की सरकार ने विगत सोमवार 20 अप्रैल को अपने देश में एक ऐसा क़ानून बनाने पर सहमति जताई है जिसमें यह व्यवस्था है कि फेसबुक और गूगल ऑस्ट्रेलिया के उन सभी समाचार पत्र संगठनों और समाचार का व्यापार करने वाली एजेंसियों को उनके संसाधनों से जुटाई गई समाचार सामग्री का उपयोग करने पर एक निश्चित शुल्क अनिवार्य रूप से अदा करना होगा। ऐसा न करने पर ऑस्ट्रेलिया की सरकार अपने देश में फेसबुक और गूगल के खिलाफ कानूनी कार्रवाई कर सकेगी। ऑस्ट्रेलिया से कुछ दिन पहले ही फ्रांस की सरकार ने भी ऐसा एक क़ानून लागू किया है।
इस तरह का क़ानून लाने की जरूरत इन देशों को इसलिए भी पड़ी क्योंकि यहां के समाचार संगठनों ने इस आशय की शिकायत अपनी सरकार से की थी। अपनी शिकायत में संगठनों ने यह दलील दी थी कि समाचार एजेंसियों और समाचार पत्रों को समाचार से सम्बंधित सामग्री जुटाने के लिए न केवल लम्बा- चौड़ा निवेश करना पड़ता है बल्कि खबर सत्यता की पुष्टि के लिए इन संगठनों को वैधानिक जिम्मेदारी भी लेनी पड़ती है। अगर कोई समाचार गलत साबित होता है तो उसकी कानूनी लड़ाई लड़ने के लिए भी इन संस्थानों को पैसा खर्च करना पड़ता है।
इसके विपरीत फेसबुक और गूगल एक पाई भी खर्च नहीं करते और किसी खबर के गलत साबित होने पर कानूनी लड़ाई से भी मुंह मोड़ लिये हैं। इसलिए ऐसे क़ानून की इस समय सख्त जरूरत है क्योंकि कोरोना के चलते एक तो अखबारों की छपाई और वितरण पर भी परोक्ष प्रतिबन्ध लगा है और इन संस्थानों को विज्ञापन भी नहीं मिल पा रहे हैं जिसकी वजह से समाचार व्यवसाय में लगे संस्थानों को भारी घाटा हो रहा है। अखबारों को लेकर कोरोना के दौर में एक चर्चा यह भी चल रही है कि एक अखबार को प्रेस में जाने से लेकर प्रेस से बाहर आने और पाठक के घर तक पहुंचने में कई तरह के हाथों से गुजरना पड़ता है इसलिए अखबार से कोरोना के वायरस के संक्रमण का खतरा कहीं ज्यादा है।
इधर भारत सरकार के जल संसाधन मंत्रालय और गंगा प्राधिकरण द्वारा कराये गए एक सर्वेक्षण की हालिया रिपोर्ट में कहा गया है कि लॉकडाउन के बाद की स्थितियों से पता चलता है कि देश की दो बड़ी नदियां गंगा और कावेरी इस दौर की सबसे स्वच्छ और निर्मल नदियों के रूप में शुमार हो चुकी हैं। स्वच्छता की यह मिसाल तो देश की हर छोटी और बड़ी नदी ने कायम की हैं लेकिन गंगा उत्तर की सबसे बड़ी नदी है और कावेरी दक्षिण की सबसे बड़ी नदी इसलिए राष्ट्रीय सन्दर्भ में जब देश की दो प्रमुख नदियों की बात करनी हो तो गंगा और कावेरी का नाम ही स्वाभाविक रूप से सबकी जुबान पर आता है।
लॉकडाउन से पहले गंगा और कावेरी में प्रदूषण अपने चरम पर था। इन नदियों के प्रदूषण लेवल में लॉकडाउन के बाद 30 से 40 फीसदी की कमी आई है। माना जाता है कि उत्तर प्रदेश में कानपुर में गंगा सबसे ज्यादा मैली और प्रदूषित होती है। शहर की चमड़ा और दूसरे कारखानों का चेमिकल से भरा और बदबूदार जहरीला पानी सीधे गंगा नदी में ही आकर मिलता है।
कानपुर के बाद तो गंगा सूखी ही बहती है। इलाहाबाद और बनारस से पहले कुछ छोटी स्थानीय नदियां गंगा में मिलती हैं तब थोडा पानी गंगा में दिखाई देता है। यह पानी किसी भी तरह से इंसान के उपयोग का नहीं रह जाता लेकिन आस्था और परंपरा इसे विवशता में ही सही उपयोग करने की आज्ञा देते हैं। लॉकडाउन के बाद कानपुर का गंगा जल भी 34 फीसदी प्रदूषण और गंदगी मुक्त हो गया है। यही स्थित कावेरी समेत देश की अन्य नदियों की भी है। इसे कोरोना का ही एक सुखद आश्चर्य कहा जा सकता है।
(लेखक दैनिक भास्कर के संपादक हैं।)