COVID-19: ज्ञान और बुद्धि का परिसीमन


मूर्ख होने पर इंसान का बस नहीं। मूर्ख हम-सब हैं। पर अपनी-अपनी मूर्खताओं की पहचान हमें होनी चाहिए। यह जानना ज़रूरी है कि क्या हम नहीं जानते और क्या हम नहीं जान सकते। लेकिन ज्ञान और बुद्धि का परिसीमन करने में जो बार-बार चूकते हैं, वे मूर्ख सुकरात और शेक्सपीयर की नज़र में सच्चे मूर्ख हैं।



स्कंद शुक्ल

क्या सुकरात और क्या शेक्सपीयर ! दोनों ने एक ही बात अलग-अलग शब्दों में कही और क्या ख़ूब कही ! प्लेटो हमें बताते हैं कि उनके गुरु सुकरात कहते हैं कि, “मैं केवल एक ही बात जानता हूं कि मैं नहीं जानता। मैं अपने अज्ञान को ही जानता हूं।” शेक्सपीयर ‘ऐज़ यू लाइक इट’ नाटक में यही बात कहते हैं: “मूर्ख स्वयं को विवेकवान् समझता है किन्तु विवेकवान स्वयं को मूर्ख। यही विवेकी और मूर्ख में भेद है।”

हिन्दी की कहावत ‘अधजल गगरी छलकत जाए’ को ले लीजिए। गगरी में जल कम होगा, तो वह छलकेगी। छलकने में गगरी का ज्ञानोल्लास है। गगरी को यह लगता है कि वह भर चुकी है। किन्तु छलकना बिना हवा की मौजूदगी के हो ही नहीं सकता। छलकन के लिए जल के साथ वायु का होना आवश्यक है। ज्यों-ज्यों जल भरता जाता है, गगरी छलक छोड़कर शान्त होती जाती है।

मनोवैज्ञानिक डेविड डनिंग और जस्टिन क्रुगर हमें एक प्रभाव के बारे में बताते हैं। उन्हीं के नामों पर इसे डनिंग-क्रुगर प्रभाव कहा गया है। यह एक कॉग्निटिव बायस यानी बौद्धिक पक्षपात की स्थिति है। व्यक्ति स्वयं की अक्षमता को जानता ही नहीं। वह मान ही नहीं पाता कि वह जिस विषय में जानने का दावा कर रहा है, उस विषय में वह व्यापक ढंग से कुछ नहीं जानता। उसकी जानकारी अधूरी और ग़लत है। लेकिन उससे यह कहिएगा, तो वह मानेगा नहीं। बहस करेगा। लड़ जाएगा। मैं और अक्षम ! अक्षम होंगे आप !

मैकआर्थर वीलर ने एक बैंक लूटने की सोची। बन्दूक लेकर चल दिये बैंक लूटने। नक़ाब-वकाब पहना नहीं। कैमरों में चित्र आ गये। पुलिस ने उन फोटोग्राफ़ों के माध्यम से वीलर को धर दबोचा। पकडे जाने पर वीलर ने कहा कि मैंने तो नींबू का रस मला था अपने ऊपर, फिर कैसे पकड़ में आ गया मैं !

ढेरों लोगों के अन्दर विज्ञान की हल्की-फुल्की समझ होती है। वीलर में भी थी। उन्हें पता था कि नींबू के रस के कुछ लिखा जाए, तब वह अदृश्य रहता है जब तक उसे गर्मी न दी जाए। गर्मी से नींबू के रस से लिखे अक्षर प्रकट हो जाते हैं। वीलर ने अपनी देह पर नींबू का रस मला। यह सोचकर कि इससे उनका शरीर भी कैमरों के लिए अदृश्य हो जाएगा और वे लूट के दौरान दिखेंगे नहीं। इस काम को पहले उन्होंने अपने कैमरे पर आज़माया भी। कैमरे में कदाचित् कोई त्रुटि थी, उनका चित्र नहीं खिंच सका। नतीजन वे आत्मविश्वास से भर गये। नींबू मलो, बैंक लूटो। फ़ोटो खिंचेगी ही नहीं, पुलिस कुछ न कर पाएगी !

आप वीलर पर हंस सकते हैं। मैं भी हंसा था। पर वीलर एकदम आत्मविश्वास से भरपूर हैरानी से यह सोच रहे थे कि चूक कहां हुई। नींबू के रस को मलने वाला व्यक्ति दिख कैसे गया कैमरे में ! वीलर पागल नहीं थे। वे मूर्ख आत्मविश्वासी थे। ऐसे मूर्ख आत्मविश्वासी आपको जीवन के हर मोड़ पर रोज़ मिला करते हैं।

मूर्खता अपने साथ आत्मविश्वास लाती है। अपनी योग्यता पर ऐसा यक़ीन, जैसा बड़े-बड़े ज्ञानियों को नहीं होता। बल्कि मामला उलटा देखने को मिला करता है। ज्ञानी में भरपूर सन्देह विद्यमान रहता है, जबकि मूर्ख अशंक भाव से एकदम निश्चिन्त रहा करता है। मूर्ख सभी हैं। ज्ञानी भी सभी हैं। हम-सब के भीतर मूर्खता और ज्ञानवत्ता, दोनों हैं। अन्तर केवल प्रतिशत का है। अब मान लीजिए कि हम प्रयासों से मूर्खता को घटाने में लग जाते हैं। ज्ञान जमा करते हैं। शुरू में जितना ज्ञान बढ़ता है, आत्मविश्वास बढ़ता है। अधिक अज्ञान, अधिक आत्मविश्वास। यह दृढ़ होता जाता है। हम जान गये ! एकदम जान गये ! और क्या जानना होता है ! यही तो जानना है !

ढेरों लोग ज्ञान-प्राप्ति के क्रम में यहीं कहीं रुक जाते हैं। थोड़ा अधिक ज्ञान और उसी अनुपात में आत्मविश्वास से भरपूर मन। वे यह समझ ही नहीं पाते कि अभी उनमें मूर्खता भरपूर है। लेकिन जो इस ज्ञान-प्राप्ति में आगे बढ़ते हैं, उनमें दूसरा बदलाव मिलता है। उनका आत्मविश्वास पहले से कम होता है। वे जितना अधिक जानते और सीखते जाते हैं, उस अनुपात में आत्मविश्वास नहीं बढ़ता। बल्कि घटता है। उनमें सन्देह का भाव जन्मने लगता है।

फिर एक स्थिति आती है। जब यह ज्ञान अत्यधिक हो जाता है, तब फिर आत्मविश्वास में वृद्धि मिलने लगती है। लेकिन यह वृद्धि पिछली वृद्धि की तरह तीव्र नहीं, मद्धिम होती है। आहिस्ता-आहिस्ता। इसमें अज्ञानी के नवज्ञानी बनते समय जो आत्मविश्वास का उछाल देखने को मिलता है, वह नहीं मिलता। यह वृद्धि शनैः शनैः बढ़ती जाती है। सन्देह का स्थान किन्तु फिर भी बना रहता है।

मूर्ख व्यक्ति उस चिराग की तरह है, जिसके तल पर ही अंधेरा है। किन्तु उसे स्वयं वह अन्धकार नहीं दीख रहा। उसे लगता है कि वह ज्योतिर्मय हो चुका है। जबकि उसके आधार पर ही अन्धकार एकत्रित है और हटने का नाम नहीं ले रहा। मूर्खता यह जानती और मानती ही नहीं कि वह मूर्ख है: ज्ञानी अपने भीतर की मूर्खता के अंशों को पहचाना करता है।

वर्तमान कोरोना-काल में ऐसे कॉन्सपिरेसी-प्रेमी मूर्ख आपको नित्य मिलेंगे। वे जो विज्ञान को या तो जानते नहीं अथवा बहुत कम जानते हैं। विज्ञान की उनकी जानकारियाँ ह्वाट्सऐप या फ़ेसबुक की जानकारियों तक सीमित हैं। ये जानकारियां भी विवादास्पद या भ्रमात्मक हैं। इनके पीछे विज्ञान है ही नहीं अथवा विज्ञान की भाषा और शैली में अन्धविश्वास बैठा है।

मूर्ख होने पर इंसान का बस नहीं। मूर्ख हम-सब हैं। पर अपनी-अपनी मूर्खताओं की पहचान हमें होनी चाहिए। यह जानना ज़रूरी है कि क्या हम नहीं जानते और क्या हम नहीं जान सकते। लेकिन ज्ञान और बुद्धि का परिसीमन करने में जो बार-बार चूकते हैं, वे मूर्ख सुकरात और शेक्सपीयर की नज़र में सच्चे मूर्ख हैं। वे नहीं जानते कि वे नहीं जानते, लेकिन आप से लड़ जाएंगे। कोरोनावायरस तो क्या, वे किसी वायरस की एबीसीडी नहीं जानते। अथवा बहुत सीमित ज्ञान रखते हैं। लेकिन वे अपने-आप को बड़े-बड़े विषाणु-वैज्ञानिकों से भी अधिक ज्ञानी समझते हैं। ऐसी आत्मविश्वासी मूर्खता जोखिम ले सकती है। ऐसी अविवेकी मूर्खता हिंसा कर सकती है। ऐसी अज्ञानी मूर्खता कोविड-19 के दौरान दिन-दुगुनी-रात चौगुनी बढ़ी है।

(स्कंद शुक्ल वरिष्ठ चिकित्सक हैं और लखनऊ में रहते हैं।)