COVID-19: शहरों से पलायन और गांव का पुनर्निर्माण


लॉकडाउन जैसे कई महत्वपूर्ण कदमों और निर्णयों से उसके भीषण प्रकोप से अभी हम किसी हद तक बचे हैं लेकिन दूसरी तरफ दशकों से रोजगार की तलाश में शहरों की ओर पलायन किए हुए ग्रामीण कामगारों का घबराहट के कारण अपने गांव की ओर वापस लौटने की अकुलाहट से देश के विभिन्न क्षेत्रों में जो असंतोष और अव्यवस्था पैदा हुई है उससे राज्य और समाज दोनों की चिंता की लकीर काफी गहरी होती जा रही है।



डॉ. चंद्रशेखर प्राण 

कोरोना की महामारी ने जहां एक ओर सारी दुनिया को हिला कर रख दिया है वहीं दूसरी ओर राज्य व्यवस्था और मानव विकास के कई संदर्भों पर नए सिरे से सोचने के लिए भी बाध्य किया है। भूमंडलीकरण के मोह जाल में फंसी दुनिया के लिए जो विचार और संदर्भ अप्रासंगिक और गैर महत्वपूर्ण हो गए थे वह सब आज की तारीख में चर्चा के केंद्र में आ गए हैं।वैसे तो इस तरह के संकट या संत्रास की आशंका और संभावना दशकों से व्यक्त की जाती रही है। एक दिन तो यह होना ही था। कोरोना ने शायद समय से पहले इसकी गहरी पीड़ा से साक्षात्कार करा दिया। 

जहां तक भारत का संदर्भ है वहां इस संत्रास का जो रूप उभर कर सामने आया है उसमें कई पहलुओं पर गंभीरता से विचार करने का समय है। एक तरफ समय से उठाए गए लॉकडाउन जैसे कई महत्वपूर्ण कदमों और निर्णयों से उसके भीषण प्रकोप से अभी हम किसी हद तक बचे हैं लेकिन दूसरी तरफ दशकों से रोजगार की तलाश में शहरों की ओर पलायन किए हुए ग्रामीण कामगारों का घबराहट के कारण अपने गांव की ओर वापस लौटने की अकुलाहट से देश के विभिन्न क्षेत्रों में जो असंतोष और अव्यवस्था पैदा हुई है उससे राज्य और समाज दोनों की चिंता की लकीर काफी गहरी होती जा रही है। 

प्रधानमंत्री का बार-बार लोगों से हाथ जोड़कर यह निवेदन करना कि जो जहां है वहीं रहें लेकिन शहरों में फंसे मजदूरों का किसी न किसी तरह अपने गांव पहुंचने की कोशिश के बीच कई तरह के सवाल खड़े हो रहे हैं,और ऐसे ही सवालों का उत्तर प्रधानमंत्री को गांव की आत्मनिर्भरता ही बीच से निकलता नजर आ रहा है। 24 अप्रैल को राष्ट्रीय पंचायतराज दिवस के अवसर पर देश के पंचायत प्रतिनिधियों को संबोधित करते हुए उनका कहना कि इस संकट से यही सबसे बड़ा सबक मिला है कि हमें प्रत्येक स्तर पर आत्मनिर्भर बनना ही पड़ेगा। उनके अनुसार यह आत्मनिर्भरता ग्राम, जिला, राज्य और राष्ट्र चारों स्तरों पर प्राप्त करनी है। लेकिन इसकी शुरुआत गांव से ही होगी। प्रधानमंत्री की इस चर्चा में कोरोना के प्रकोप तथा बड़ी संख्या में प्रवासी कामगारों के अव्यवस्थित तरीके से गांव वापसी की पैदा हुए संकट पूर्ण स्थिति को बेहतर तरीके से ग्राम पंचायतों द्वारा किए गए प्रयासों की भी झलक मिली। 

गांव में शहर की ओर पलायन पिछले कई दशकों से जारी है। शहर में पलायन मोटे तौर पर कई रूपों में देखा जा सकता है।एक रूप उन लोगों का है जो स्थाई रूप से गांव छोड़कर शहर जा बसे हैं। इनमें वे लोग हैं जो नौकरी अथवा व्यवसाय के बल पर आर्थिक रूप से सक्षम होकर वहीं बस गए हैं। दूसरे वे लोग हैं जो नौकरी रोजगार अथवा व्यवसाय के लिए शहर में स्थापित तो हो गए हैं लेकिन वहां स्थाई रूप से बसे नहीं है। अपने गांव से उनका नाता टूटा नहीं है। उनके परिवार का एक हिस्सा अभी भी गांव में है। 

तीसरे वे लोग हैं जो सिर्फ रोजगार की तलाश में शहर जाते हैं वह भी 4-6 माह के लिए, जब काम का अवसर होता है। बाकी अपने गांव लौट आते हैं। इनमें दो तरह के लोग होते हैं एक जो अपने जिले के मुख्यालय अथवा राज्य के किसी अन्य नजदीकी जिले के शहर के बजाय किसी दूर राज्य के महानगरों अथवा शहरों में जाकर मासिक वेतन या दिहाड़ी मजदूरी पर काम करते हैं। दूसरे वे जो अपने जिले के ही मुख्यालय में सुबह काम की तलाश में जाते हैं और शाम को वापस गांव आ जाते हैं।
गांव का एक बड़ा तबका उन किशोरों और नौजवानों का है जो शिक्षा प्राप्त करने या नौकरी की तैयारी में शहरों में जाकर रहते हैं। कोरोना महामारी के संत्रास ने पहले और दूसरे वर्ग को छोड़कर बाकी अन्य सभी वर्गों के लिए आवास और भोजन दोनों के लिए गंभीर संकट खड़ा कर दिया है। जिसके चलते बहुत सारे ग्रामीण कामगार अपने परिवार के साथ हजारों किलोमीटर पैदल चलकर गांव पहुंच रहें हैं तो कोई बीच में अटक गया है। कोई मोटरसाइकिल से निकाल पड़ा तो कोई रिक्शे से ही भाग रहा है। सामान की तरह ट्रकों में छुपकर अपने गांव पहुंचने की बेचैनी तों कई जगह देखने को मिली। 

कोरोना के संकट ने जिस आत्मनिर्भरता की ओर ध्यान आकृष्ट किया है शताब्दियों से वह भारत के गांव समाज की सबसे बड़ी विशेषता रही है। जीवन की जो आवश्यक भौतिक जरूरतें थी उसे गांव अपने श्रम और संसाधन से स्वयं जुटा लेता था। बापू इसे स्वावलंबन के रूप में रेखांकित करते थे। लेकिन यह स्वावलंबन तभी संभव हो सका जब गांव को स्वराज्य प्राप्त था। स्वराज्य अर्थात स्वयं के बारे में स्वयं को निर्णय लेने का अधिकार। चूंकि आत्मनिर्भरता अथवा स्वावलंबन स्थानीय आवश्यकता और परिस्थिति की समझ के साथ स्थानीय पहल और स्थानीय संसाधनों के द्वारा ही संभव होती है। अतः इसके बारे में निर्णय और नियोजन का अधिकार तथा अवसर के प्राप्त होने पर ही यह हो सकता है। स्वराज्य के बिना स्वावलंबन की बात बेमानी हो जाती है। इसी नाते बापू ने आजादी के आंदोलन में ग्राम स्वराज्य के सवाल को सबसे शीर्ष पर रखा। भारत की सच्ची आजादी का आधार वे गांव की आजादी को ही मानते थे। 

बापू ने भारत के गांव और उसके समाज को बड़ी गहराई से समझा था। अतीत में उसकी ताकत और उपलब्धि की भी एक समझ विकसित कर ली थी। वे गांव की सामर्थ्य और कुशलता से प्रभावित तों होने के साथ ही उसे ही भारत की नियति मानते थे। उनका मानना था कि “हमें ग्रामीण सभ्यता विरासत में मिली है। हमारे देश की विशालता, उसकी विराट जनसंख्या, उसकी भौगोलिक स्थिति तथा उसका जलवायु सबको देखते हुए लगता है कि ग्रामीण सभ्यता ही उसके भाग्य में लिखी है।” 

जैसा कि सर्वविदित है कि मानव सभ्यता के अब तक के इतिहास के लगभग 2 हजार वर्ष ऐसे रहे हैं जब भारत समृद्धि और संपन्नता दोनों दृष्टियों से दुनिया में सबसे आगे रहा है। 17वीं शताब्दी से पूर्व की संपन्नता और समृद्धि का श्रेय उसके गांव को ही जाता है, क्योंकि तब तो देश में जनसंख्या और प्रसार की दृष्टि से गांव का ही पूर्ण वर्चस्व था। अंग्रेजी राज्य का सबसे बड़ा दुर्भाग्यपूर्ण परिणाम यही था कि उसने भारत के गांवों की स्वायत्तता को नष्ट कर उसे गुलाम बना दिया था। 

इतिहासकार रमेश दत्त के शब्दों में भारत के ब्रिटिश राज्य का सबसे अफसोस जनक फल यह हुआ कि उसने ग्राम राज्य की प्रथा को तहस-नहस कर दिया जो विश्व के सब देशों में सर्वप्रथम भारत में विकसित हुई और सबसे अधिक काल तक पनपी। इसका परिणाम यह हुआ कि सुख और समृद्धि के शीर्ष पर खड़े देश की 60 से 70 प्रतिशत आबादी भुखमरी, कंगाली, गंदगी और बदहाली में जीने लगी थी। अंग्रेजी शासन द्वारा 1928 में प्रकाशित रिपोर्ट ‘इंडिया इन’ में इसे अच्छी तरह से देखा जा सकता है। 

आज की परिस्थितियों में एक बार फिर से जब गांव की ओर आशा भरी निगाह से देखा जा रहा है तब उसकी वास्तविक ताकत जो उसकी संस्कृति की विशेषता रही है उसको गहराई से समझने की आवश्यकता है। क्योंकि पुनर्निर्माण कीकल्पना में विरासत और परंपरा के धरातल पर ही समय की आवश्यकता, मांग और परिस्थिति के अनुसार निर्माण की प्रक्रिया प्रारंभ करनी होती है। 

पुनर्निर्माण को यदि व्यवहारिक तरीके से समझना चाहें तो उसके दो उदाहरण लिए जा सकते हैं। जैसे किसी मकान के पुनर्निर्माण में उसकी नींव को सुरक्षित करते हुए उसके उस भाग को पुनर्निमित किया जाता है जो क्षतिग्रस्त हो गया है या फिर जीर्ण-शीर्ण हो गया है। इस निर्माण की प्रक्रिया में उसकी नींव की मूल संरचना का ध्यान रखते हुए वर्तमान की आवश्यकता के अनुसार अनुकूल और उपयुक्त संरचना और डिजाइन का बेहतर तरीके से प्रयोग किया जाता है। जो उसे सभी रूपों में प्रासंगिक बना देता है। 

दूसरा उदाहरण वृक्ष का है। समय के साथ वृक्ष की डाली टूट जाती है,पत्ते झड़ जाते हैं, फल और फूल तो मौसम के हिसाब से आते जाते ही रहते हैं,और इन सब के स्थान पर सदैव नई डाली, नए पत्ते तथा फिर से फल और फूल आते हैं। लेकिन यह तभी संभव होता है जब उसकी जड़ को संरक्षित रखा जाता है। क्योंकि उसी जड़के आधार पर ही यह सब कुछ संभव हो पाता है। यदि इसकी जड़ जो मूल आधार है उसे छोड़ दिया जाए या नष्ट कर दिया जाए तो वृक्ष के पुनर्जीवित होने की कल्पना ही नहीं की जा सकती। 

यहां एक बात और स्पष्ट करनी आवश्यक है कि किसी भी वस्तु का पुनर्निर्माण हमेशा उसके स्वरूप का होता है उसकेगुण का नहीं।किसी भी वस्तु की उपादेयता उसके गुण के कारण है क्योंकि वही उसकी जरूरत है।स्वरूप तो उसके उपयोग के लिए निर्मित किया जाता है। गुण की शास्वतता या निरंतरता ही उसकी जीवंतता है जो उसे उपयोगी बनाए रखती है। अतः जब हम पुनर्निर्माण की बात करते हैं तो मूलतः किसी भी वस्तु के स्वरूप के पुनर्निर्माण की बात करते हैं उसके मूल्यों या गुणों के पुनर्निर्माण की बात नहीं। 

एक उदाहरण के माध्यम से इसे और अधिक स्पष्ट रूप से समझा जा सकता है। कलम का उदाहरण। कलम का गुण-धर्म है लेखन। इसका जब से जन्म हुआ है तब से उसका यह गुण-धर्म आज तक सुरक्षित है जबकि उसका स्वरूप देश काल और परिस्थिति के हिसाब से बदलता रहा है। लेकिन गुण नहीं बदला। यदि उसका गुण बदल जाता तो वहकितनी भी आकर्षक होती वह कलम न रहती और उस अर्थ में उसका कोई उपयोग भी न रहता। ठीक इसी प्रकार यदि हम गांव के पुनर्निर्माण की बात करते हैं तो गांव के जीवन मूल्यों को सुरक्षित रखते हुए उसके स्वरूप के पुनर्निर्माण की बात करते हैं। 

इसी संदर्भ में एक बार हमें फिर से गांव के जीवन मूल्य और उसकी संस्कृत को समझना होगा तभी उसके पुनर्निर्माण की दिशा और स्वरूप तय किया जा सकेगा। भारत का गांव सिर्फ भूगोल का शब्द नहीं है, यह एक सांस्कृतिक इकाई है जो परिवार और पड़ोस से मिलकर बनती है और इसी के आधार पर भारत की पूरी संस्कृति व्याख्यायित व व्यावहारिक होती है। 

भारत की संस्कृति के दो मूल तत्व हैं-सहजीवन और सहअस्तित्व। सहजीवन अर्थात एक साथ मिलजुल कर जीवन जीना तथा सहअस्तित्वअर्थात परस्पर एक दूसरे के बने रहने अथवा जीवित रहने की अनिवार्य शर्त। यह दोनों मूल तत्व क्रमशः परिवार और पड़ोस की सामाजिक इकाई में ही समाहित हैं।इसी नाते भारत की संस्कृति को गांव जीवन में सदैव तलाशा गया है। बापू की यह समझ कि भारत की आत्मा और संस्कृति गांव में बसती है, इसी की समझ थी। 

आज गांव जीवन के इसी मूल्य पर पुनर्निर्माण की प्रक्रिया शुरू करनी होगी और इस पुनर्निर्माण के पहले गांव समाज के पुनर्जागरण का भी ख्याल रखना होगा। बदली हुई परिस्थितियों में बिना गांव समाज के पुनर्जागरण के पुनर्निर्माण का कार्य संभव नहीं हो सकेगा। निर्माण उसके स्वरूप का होगा लेकिन पुनर्जागरण उसके मूल्यों का होगा। बिना मूल्यों के पुनर्जागरण के पुनर्निर्माण की दिशा सही नहीं होगी। बापू तों ग्राम समाजों को पुनर्जीवित करने की बात करते थे। उन्होंने हरिजन के 27 फरवरी 1937 के अंक में इस पर विशेष जोर दिया था। 

यह सही है कि आज की तारीख में गांव का जीवन सबसे अधिक विवाद ग्रस्त और संघर्षों से भरा है।जिसके चलते आपस का सहयोग व सद्भाव काफी कम हो गया है। लेकिन संबंधों की गर्माहट अभी भी वहां बची है।ठीक उसी तरह जैसे आग के गोले के ऊपर भले राख की मोटी परत जम जाए लेकिन उसके अन्दर आग बची रहती है। राख की परत को झाड़ते ही आग की गर्मी और तेज दोनों महसूस और दिखाई पड़ते हैं। गांव समाज के पुनर्जागरण का भी यही प्रभाव होगा। वास्तव में मानव जीवन साधन और संबंध जैसे दो तत्वों से चलता है। साधन हमारी भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए होता है और संबंध हमारी भावनात्मक, विचारात्मक तथा आत्मिक जरूरतों के लिए। 

परिवार और पड़ोस से बने गांव में सदैव संबंध ज्यादा महत्वपूर्ण रहे हैं। साधन के प्रति एक मर्यादित विचार रहा है। “साईं इतना दीजिए जामे कुटुंब समाय, मैं भी भूखा ना रहूं साधु न भूखा जाए”। यही दर्शन गांव जीवन को संचालित करता था।संबंधों के लिए साधनों को त्यागने की परंपरा भारतीय संस्कृति का वह मूल दृष्टि थी जिसने राम को महानायकत्व प्रदान किया। आज इसका बिखराव प्रत्यक्ष दिखाई पड़ रहा है। परस्पर सहयोग और मिल बांट कर खाने की परंपरा समाप्त होती जा रही है।

बाजार जो मुनाफे की शर्त पर खड़ा होता है वह अब गांव जीवन का भी एक महत्वपूर्ण हिस्सा बन गया है।जब हम गांव समाज के पुनर्जागरण की बात करते हैं तो हमारा संकेत इसी की ओर है कि यदि गांव के परस्पर संबंधों के बनने वाले भाईचारे की संस्कृति को पुनर्जीवित नहीं कर सके तो गांव का पुनर्निर्माण संभव नहीं होगा। भारत के संविधान की उद्देशिका में भी यही शर्त रखी गई है कि भारत के नागरिकों को न्याय स्वतंत्रता और समानता के रूप में जो भी मौलिक अधिकार प्रदान किए गए हैं वे इसलिए कि वह राष्ट्र की एकता व अखंडता तथा व्यक्ति की गरिमा को सुरक्षित करने के लिए अपने अंदर बंधुता का विकास करेगा।  यह बंधुता या भाईचारा ही गांव समाज की सबसे बड़ी पूंजी थी जो उसके संबंध केंद्रित जीवन दृष्टि से पनपी थी। गांव समाज के पुनर्निर्माण का यही मूल आधार है और इसी के धरातल पर ही उसके पुनर्निर्माण की भी भित्ति खड़ी होनी है।

(डॉ. चंद्रशेखर प्राण तीसरी सरकार अभियान के संस्थापक हैं और ग्राम स्वराज्य की स्थापना के लिए काम कर रहे हैं।)

(भाग-1,जारी…..)