कोविद-19 से उपजे सभ्यता के संकट का समाधान


मानवीय स्वतंत्रता व गरिमा, न्याय, समानता और शांति की स्थापना सभ्यताओं का शिखरध्वज होना चाहिए। मनुष्य जाति के पास इस शिखर को हासिल करने के सैद्धांतिक और व्यवहारिक अनुभव तथा उपाय मौजूद हैं। संसाधनों और टेक्नोलॉजी की कमी भी नहीं है। कुछ देशों ने इनमें से कई चीजों को हासिल करके भी दिखाया है, भले ही उनका आकार उतना बड़ा न रहा हो।



कैलाश सत्यार्थी

इस सबके बावजूद डर हमेशा बुरा नहीं होता। यदि हम जाने-अनजाने खतरों के विचार से पैदा हुए डर से विचलित न हों और घबरा कर हिम्मत न छोड़ें, तो वही भय उस खतरे और संकट से छुटकारा दिलाने का कारण बन सकता है। दूसरे, जब समाज में अनिश्चितता और अस्पष्टता के बादल छा जाते हैं, तब नए विकल्पों और संभावनाओं का सूर्योदय होता है। आज वही स्थिति है। सत्ता और व्यवस्था के प्रतिष्ठान, पारंपरिक सोच वाले बुद्धिजीवी और अर्थशास्त्री सामान्य तौर पर यथास्थितिवादी, सुधारवादी या प्रतिक्रियावादी बने रहते हैं। मैं उनकी नीयत पर सवाल नहीं उठा रहा हूं, लेकिन यही वह मौका है जब परिवर्तन के लिए नई सकारात्मक, व्यवहारिक तथा सृजनात्मक और मानवतावादी सोच रखने वालों को और ज्यादा क्रियाशील बनने की जरूरत है। ताकि वे ही नई सभ्यता के मूल्यों का निर्माण कर सकें।

चौमुखी पहल

मेरे मन में एक चौमुखी समाधान की परिकल्पना आ रही है। ये चार तत्वों, करुणा (कम्पैशन), कृतज्ञता (ग्रैटिट्यूड), उत्तरदायित्व (रिस्पॉन्सिबिलिटी) और सहिष्णुता (टॉलरेंस) को एक चक्र में पिरो कर उसे पूरे संकल्प और ऊर्जा के साथ चलाने का विचार है। इससे कोविद-19 के बाद की सभ्यता में चमत्कारी सुधार लाए जा सकते हैं। यहां मैं कोई नई बात नहीं कह रहा हूं। सभ्यताओं की जड़ों में ये चारों चीजें पहले से कहीं न कहीं छुपी पड़ी हैं। वे धर्मों, संस्कृतियों, मनुष्य के स्वभाव या जरूरतों से पैदा हुई हैं। दुर्भाग्य से ये जीवन जीने का तरीका बनी रहने के बजाय खोखले उपदेश बन कर रह गई हैं। अब इन्हें जिंदगियों में वापिस उतारना मुश्किल तो है, लेकिन असंभव नहीं। कुछ लोग ही सही, हिम्मत करके इन्हें जीने लगेंगे तो जिस तरह एक छोटा सा दीया हजारों साल पुराने अंधेरे को हराने की शुरूआत कर देता है, उसी तरह वे लोग भी होंगे।

मानवीय स्वतंत्रता व गरिमा, न्याय, समानता और शांति की स्थापना सभ्यताओं का शिखरध्वज होना चाहिए। मनुष्य जाति के पास इस शिखर को हासिल करने के सैद्धांतिक और व्यवहारिक अनुभव तथा उपाय मौजूद हैं। संसाधनों और टेक्नोलॉजी की कमी भी नहीं है। कुछ देशों ने इनमें से कई चीजों को हासिल करके भी दिखाया है, भले ही उनका आकार उतना बड़ा न रहा हो। फिर भी ऐसे उदाहरणों की कमी नहीं है जिनसे हम यह भरोसा कर सकें कि वे कागजी दस्तावेज नहीं, बल्कि हासिल की जा सकने वाली सच्चाई हैं। 

करुणा का वैश्वीकरण

मैं कई वर्षों से यह कहता रहा हूं कि जब तक हम दूसरों के दुख और परेशानियों को अपने दुख की तरह महसूस करके उनको दूर करने के उपाय नहीं करते, तब तक एक सभ्य समाज की रचना नहीं की जा सकती। यही करुणा है। करुणा का यह भाव हमारी राजनीति,आर्थिकी, धर्मतंत्र और सामाजिक जीवन की रीढ़ होना चाहिए। मनुष्यों से ही नहीं, बल्कि पशु-पक्षियों, पेड़-पौधों, नदियों, समुद्रों, पहाड़ों और रेगिस्तानों के साथ करुणा के रिश्ते बनाकर हम सतत विकास (सस्टेनेबल डेवलॅपमेंट) कर सकेंगे। करुणा को सार्वजनिक जीवन की प्राणवायु बनाना जरूरी है। इसीलिए मैं करुणा के वैश्वीकरण की वकालत करता रहा हूं।

कृतज्ञता की सप्लाई चेन

दूसरा है,व्यक्तिगत रिश्तों,औद्योगिक प्रबंध और शासन व्यवस्थाओं में कृतज्ञता की जीवनशैली अपनाना। हमें यह भाव भी किसी से उधार लेने की जरूरत नहीं है। अपने भीतर थोड़ी सी ईमानदारी और विनम्रता उत्पन्न करने से वह अपने आप बाहर आ जाएगा। हमें पैदा करने से लेकर, हमारे भोजन, पानी, कपड़े, मकान, शिक्षा, स्वास्थ, मनोरंजन, सुरक्षा और सुख-सुविधाओं का इंतजाम करने जैसी जिंदगी की हर कड़ी में किसी न किसी का योगदान है। हमें यह भी याद रखना चाहिए कि हम धरती, सूरज, हवा, जलस्रोत, वनस्पतियों आदि प्रकृति के हर तत्व की मेहरबानी से ही जिंदा हैं। मेहरबानियों और योगदानों की इसी कड़ी से कृतज्ञता आपूर्ति की श्रृंखला (सप्लाई चेन ऑफ ग्रैटिट्यूड) बनाई जा सकती है। बस, इतनी सी कोशिश हमारी सभ्यता में क्रूरता की जगह सम्मान, समता और समरसता पैदा कर सकती है। 

उत्तरदायित्वों का ताना-बाना

तीसरा तत्व, उत्तरदायित्व का एहसास पैदा करना है। यूं तो दुनिया के देश सदियों से मनुष्यों की आवाजाही, प्राकृतिक साधनों का आयात-निर्यात और बने हुए सामान की खरीद बिक्री आदि के कारण एक-दूसरे से जुड़े रहे हैं। परन्तु धीरे-धीरे कार्पोरेट और सरकारें यह महसूस करने लगी थीं कि बाजारों को ज्यादा से ज्यादा खुली छूट मिलने से सभी का फायदा हो सकता है। इसलिए दो-ढाई दशक पहले वैश्वीकरण का विचार और दर्शन अपनाया गया। इस व्यापारिक सोच को मानवीय चेहरा देने के लिए आपसी जिम्मेवारी के सिद्धांत को भी बढ़ावा देने की कोशिशें होती रही थीं, जैसे कार्पोरेट का सामाजिक दायित्व आदि। इसी तरह सरकारों के बीच आपसी व्यापार के अलावा गरीब देशों को विकास सहायता और कर्जे देने का चलन भी बढ़ा।

पिछले कुछ वर्षों की काफी हद तक नकारात्मक तथा विघटनकारी राजनीति ने भूमंडलीकरण के तथाकथित मानवीय चेहरे ने ढेरों खरोचें लगा दी थीं। इनमें तेल उत्पादक देशों में बाहरी दखलंदाजी, मध्य पूर्व में आंतरिक कलह और हिंसा, आर्थिक क्षेत्र में चीन की जबर्दस्त छलांग, हिंसक अतिवाद और आधुनिकतम टेक्नोलॉजी पर चंद देशों और कम्पनियों का एकाधिपत्य जैसे कारणों से सार्वभौमिक उत्तरदायित्व की प्रक्रिया को बड़ा आघात लगा। ब्रिटेन का यूरोप से अलग होना और यूरोपीय यूनियन के अस्तित्व पर सवाल उठने लगना देशों के बीच आपसी जिम्मेवारियों से भागने के प्रमाण हैं। 

निजी और सार्वजनिक जीवन की बात करें तो, हर कीमत पर पैसा कमाने या लुभावने रोजगार हासिल करने की गलाकाट होड़ और पारिवारिक तथा सामाजिक इकाईयों के तानेबानों के टूटने से उत्तरदायित्व की भावना लगातार घट रही है। कोविद-19 के बाद की दुनिया में ये प्रवृतियां और बढ़ेंगी। दूसरी ओर यह पहला मौका है जब विश्व के किसी भी कोने में रहने वाला गरीब से गरीब और अमीर से अमीर व्यक्ति एक ही खौफ के साए में जी रहा है। जो लोग सुरक्षित हैं और जिन्हें सुरक्षित व स्वस्थ रखने की कोशिशें हो रही हैं, अब उन्हें यह महसूस हो जाना चाहिए कि एक-दूसरे के लिए जिम्मेवारी निभाने के कारण ही ऐसा हो पा रहा है। ऐसे में जरूरी है कि हम नए सिरे से उत्तरदायित्वों के तानोंबानों की बुनाई शुरू करें। हम तय करें कि उन तानोंबानों में हम भी एक धागा बन सकें। वेदों में संसार की परिभाषा बताते हुए कहा गया है, “भवत्वमेक नीड़म्”, यानि यह विश्व पक्षियों द्वारा मिलकर बनाए गए एक घोसले की तरह है। उसका हरेक तिनका सामूहिक जिम्मेवारी की अभिव्यक्ति है। 

सहिष्णुता की जीवन-शैली

चौथा है, सहिष्णुता। सभ्यताओं के टकराव, संक्रमण और संकट में असहिष्णुता, यानि विविधता और भिन्नता को सहन न करना एक बहुत बड़ा कारण होता है, और परिणाम भी। युद्धों, महामारियों या अन्य प्रकार की त्रासदियों के दौरान संवेदनाएं, दान-पुण्य, राहत और मदद के भावों में जरूर उफान आता है, लेकिन बाद में स्वार्थों के दायरे सिकुड़ने लगते हैं। अपनों-परायों का भेद फिर से नागरिकों और सत्ताधारियों को नस्लीय, जातीय, वर्गीय, राष्ट्रीय तथा सांस्कृतिक पहचानों और हितों की तरफ मोड़ने लगता है। यह प्रक्रिया असहिष्णुता को बढ़ाती है। विचारों, पूजा पद्धतियों, खान-पान, कपड़ों और राजनैतिक प्रतिबद्धताओं की भिन्नता पहले से ही संकट में है। नए दौर में यह संकट और बढ़ सकता है। 

हाल ही में भारत में मुसलमानों के एक समूह, तबलीकी जमात ने अपने मजहबी अंधेपन से कोरोनावायरस फैला कर खुद को और बहुत लोगों को मौत के मुंह में धकेल दिया। कुछ लोगों की आपत्तिजनक करतूतों की प्रतिक्रिया में जगह-जगह मुसलमानों के प्रति नफरत और भेदभाव फैल गया। चूंकि आम भारतीय लोगों में भाईचारे की जड़ें गहरी हैं, इसलिए ऐसी घटनाएं ’सभी’ हिन्दुओं बनाम ’सभी’ मुसलमानों के बीच रंजिश नहीं बन पातीं। हमें दुनिया भर में अपने साझा हितों की रक्षा के लिए ही नहीं, बल्कि जातीय, भाषायी और साम्प्रदायिक हिंसा से बचने के लिए साथ ही साथ अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए दूसरों की मान्यताओं और पहचानों के प्रति सहनशील बनना पड़ेगा।

सहनशीलता एक बहुत बड़ा मानवीय गुण होती है, कमजोरी नहीं। किसी अन्याय या बुराई से डर कर चुप्पी साधे रहना सहनशीलता नहीं, बल्कि कायरता होती है। सहमति या असहमति के बिना विविधता की असलियत को स्वीकार करने से कोई कमजोर नहीं होता, बल्कि ऐसा करने से द्वेष, वैमनस्य और घृणा की बुराईयों से भी छुटकारा मिल सकता है। कार्य स्थलों पर विविधता का सम्मान करने और सहिष्णुता बरतने से तीन भावना के साथ-साथ उत्पादकता भी बढ़ती है। यह विविधता ही हमारी आंखों के सौन्दर्य, कानों की ध्वनि, मुंह की वाणी तथा स्वाद, मष्तिष्क के विचारों और समाज का रचना का आधार होती हैं। क्या आप एक ही रंग, एक ही आवाज व स्वाद, एक ही विचार और एक ही व्यक्ति की तरह अकेले जिंदा रह सकते हैं? जिस तरह अलग-अलग अक्षरों से शब्द, अलग-अलग शब्दों, अनुभूतियों और जानकारियों से विचार बनते हैं, उसी तरह अलग-अलग विचारों, मान्यताओं और विश्वासों से समाज बनता है। कोविद-19 के दौरान और उसके बाद सहिष्णुता को जीवनशैली बनाने से एक वैसा समाज बन सकता है।

कोविद-19 के श्राप को वरदान में बदलें

भारतीय पौराणिक कथाओं में सृष्टि के निर्माता ब्रह्मा के चार मुंह बताए गए हैं। ये चारों दिशाओं में साथ-साथ सृजन, उन्नति और रक्षा के प्रतीक हैं। सभ्यता के संकट से उबरने और सार्वभौमिक मानवीय मूल्यों से संचालित सभ्यता के सृजन के लिए ऊपर लिखी गई चारों बातें उपयोगी हो सकती हैं, क्योंकि वे अपने आप में सार्वभौमिक मूल्यों के ही व्यवहारीकरण (एप्लीकेशन्स ऑफ यूनिवर्सल वेल्यूज) हैं। और ये चारों अलग-अलग होते हुए भी एक-दूसरे के पूरक हैं। मैं फिर दोहरा दूं, करुणा का वैश्वीकरण (ग्लोबलाइजेशन ऑफ कम्पैशन), कृतज्ञता आपूर्ति की श्रृंखला (सप्लाई चेन ऑफ ग्रैटिट्यूड),उत्तरदायित्वों का तानाबाना (वीविंग रिस्पांसिबिलिटी) और सहिष्णुता की जीवनशैली (लिविंग विद टॉलरेंस) अपनाकर हम कोविद-19 के श्राप को नई सभ्यता के निर्माण का वरदान बना सकते हैं। 

(कैलाश सत्यार्थी बचपन बचाओ आंदोलन के संस्थापक हैं।)

(भाग-2,समाप्त)