स्वामी रामकृष्ण परमहंस धर्म एवं मानव सेवा में एकात्म देखनेवाले महान संत थे। उनकी सबसे बड़ी खासियत धर्म के मर्म को समझने की उनकी दृष्टि रही है। वे धर्म को सत्य के प्रत्यक्ष अनुभव प्राप्त करने की मात्र एक प्रक्रिया भर मानते रहे है। सर्वधर्म समभव उनके आचरण में दिखता है। अपने इस कार्य के लिए उनके मुख्य बारह शिष्य रहे जिन्होंने अपने गुरु की समस्त जीवनशैली शिक्षा एवं संदेश को पूरे विश्व में प्रचारित प्रसारित किया क्योंकि, वो तो सिर्फ साधना त्याग और भक्ति में सदैव डूबे रहनेवाले माँ काली के भक्त ही आजीवन बने रहे।
स्वामी रामकृष्ण शिक्षा लगभग नगण्य थी लेकिन कम पढ़े- लिखे होने के बावजूद भी उन्होंने अपनी साधना एवं भक्ति से तथा अपने जीवन के व्यावहारिक ज्ञान के कारण जो भी प्रकाण्ड पंडित उनके संपर्क में आते गए वे उनके मुरीद होकर रह गए। उनकी भक्ति में कभी कोई आडंबर एवं कर्मकांड नहीं रहा माँ काली के वैसे अनन्या भक्त विरले ही हुए है। उनकी पूजा विधि व्यावहारिक सकाम भक्ति का प्रतिबिंब थी। अकसर भोग लगाने से पहले वे उसे चख लिया करते थे, लोगों के ये कहने पर की आप जो भोग लगते हैं वो तो जूठा हो जाता है आप माता को ऐसा भोग क्यों लगाते हैं पर उनका जबाब था कि जो भोग हम माता को लगा रहे है वह उनके खाने योग्य है भी या नहीं यह बिना चखे कैसे पता चल सकता है।
उनके आचरण में शुद्दता, पवित्रता और भक्ति के साथ ही बाल सुलभ सरलता एवं सहजता भी सदैव प्रवाहित होती रहती थ। उनके मन नें जिज्ञासा का भाव इतना अधिक था कि बगैर किसी की परवाह किए वे उसी के पीछे तब तक व्याकुल होते रहते जब तक उन्हें उसका वास्तविक सत्य नहीं मिल जाता। उनका यह धार्मिक उन्माद अधिकांश लोगों के लिए पागलपन भी लगता था। कभी कभी वे समाधि में इतने तल्लीन हो जाते की उन्हें कई कई घंटे तक होश ही नहीं रहता तो कभी कभी लोगो से उनके सुख दुख की बातें करते करते ही दिन रात का ख्याल नहीं रखते। उनका जीवन एवं व्यक्तित्व रहस्यमयी रहा है। उनके पागलपन का इलाज करने गए लोगों को ढाका के एक वैद ने कहा की यह व्यक्ति महान योगी और तपस्वी है और जिसे अभी दुनिया नहीं समझ पा रही है और किसी भी चिकित्सीय ज्ञान से इनका इलाज हो पाना संभव नहीं है।
स्वामी रामकृष्ण के भोलेपन का एक यह भी उदाहरण था कि वे जीवन को बिना किसी तनाव के हल्के फुल्के अंदाज में जीना पसंद करते थे। कामिनी कंचन से तो उन्हें पूर्ण विरक्ति रही। उनके लिए कोई पंथ, ग्रंथ, या विचारधारा मायने नहीं रखती थी, उनका स्पष्ट मानना रहा कि ये सब एक ही जगह पहुँचने के अलग अलग रास्ते भर हैं। एक बार वे कुछ सूफी संत के संपर्क में आए तो तो उन्हें इस्लाम धर्म को करीब से जानने की इच्छा हुई तो पूरी तरह से इस्लाम धर्म के अनुयाई की तरह व्यवहार करने लग गए। पांचों वक्त की नमाज पढ़ने के अलावा उनके बात व्यवहार का तरीका सब कुछ मुसलमान की तरह अपना लिया और तब तक अपनाए रखा जब तक कि उन्हें इस्लाम में अपना सत्य नहीं पा लिए। इसी तरह एक बार वे बाइबिल के पाठ को सुनने के बाद ईसाई धर्म के अनुरूप जीवन यापन करने लगे। उनके ईसाई धर्म के आचरण एवं व्यवहार को देखकर रोम्या रोलां ने उन्हें “ ईसा मसीह के छोटे भाई” की संज्ञा तक दे दी। अर्थात उन्होंने अलग अलग धर्म का कुछ कुछ समय तक सम्पूर्ण पालन करने के बाद भी उन्होने एक ही सत्य की अनुभूति की।
उनके सर्वप्रिय एवं सर्वश्रेस्ठ शिष्य स्वामी विवेकानंद ने न्यूयार्क में एक बार एक व्याख्यान दिया था जो बाद में “मेरे गुरुदेव” शीर्षक से प्रकाशित भी हुआ में कहा था -“एक अत्यंत महत्वपूर्ण एवं आश्चर्यजनक सत्य जो मैंने अपने गुरुदेव से सीखा वह यह है कि संसार में जितने भी धर्म हैं वे परस्पर विरोधी एवं वैर भावात्मक नहीं हैं वे केवल एक ही चिंतन शाश्वत धर्म के भिन्न-भिन्न भाव मात्र है, इसलिए हमें सभी धर्मों को मान देना चाहिए और जहां तक संभव हो उनके तत्वों में विश्वाश रखना चाहिए। उन्होने अपने जीवन द्वारा दिखा दिया कि धर्म का अर्थ न तो शब्द है न नाम न संप्रदाय बल्कि इसका अर्थ होता है आध्यात्मिक अनुभूति। जब तुम सभी धर्मों में यह समंजस्य देख पाओगे तो प्रतीत होगा कि झगड़े की कोई आवश्यकता नहीं है और तभी तुम मानव जाति की सेवा के लिए तैयार हो सकोगे। इस बात को स्पष्ट कर देने के लिए कि सभी धर्मों का मूल तत्व एक ही है, मेरे गुरुदेव का अवतार हुआ था।“
इसे हम स्वामी रामकृष्ण के जीवन एवं उपदेशों का निचोड़ मान सकते हैं। आज के समय में जब हम अपने समाज में अनेक विभाजनकारी तत्वों कि बढ़ती भूमिका देख रहे हैं जिनमे “धर्म” सबसे महत्वपूर्ण हो गया है और उससे लड़ाई लड़नी पड़ रही है इन संदेशो का स्मरण रखना आवश्यक हो गया है। आज के समय की आपा-धापी, तनाव, एकाकीपन और समाज में फैली अस्थिरता जैसे माहौल में अपने जीवन शैली एवं सामाजिक परिवर्तनों के अनुरूप खुद को ढलने में जो अड़चनें आ रही है, अगर हम उनसे अपने को मुक्त कर सामाजिक समरसता के वातावरण के पुनर्प्राप्ति कि उम्मीद करें तो इस वर्तमान परिस्थिति में भी स्वामी जी के संदेशों को बहुत उपयोगी पाएंगे।
स्वामी रामकृष्ण का मानना था कि हमारी कामयाबी का पैमाना लोग निर्धारित करते हैं परंतु संतुष्टि का पैमाना हम स्वयं निर्धारित करते हैं, अतः हमें कामयाबी कि जगह संतुष्टि प्राप्त करने पर ध्यान देना चाहिए। इस महान संत स्वामी रामकृष्ण ने 16 अगस्त 1886 कों महा समाधि ली थी जिन्होने अपने जीवन एवं प्रयोगवाद से वेदान्त, इस्लाम, ईसाईयत सबको समाहित कर इंसानियत के धर्म नई परिभाषा गढ़ने में सफलता प्राप्त कि और उनके शिष्यों ने इसका प्रचार प्रसार पूरे विश्व में किया।
(अमित कुमार स्वतंत्र लेखक हैं और बिहार के पटना में रहते हैं।)