चुनाव आयोग की साख में गिरावट लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए संगीन मुद्दा


आयोग ने यह हास्यास्पद तर्क भी दिया कि चूंकि हर बूथ की वोटर लिस्ट हर मान्यता प्राप्त पार्टी के पास होती है, इसलिए चुनाव आयोग को निर्वाचन क्षेत्र के कुल मतदाताओं की संख्या जारी करने की कोई आवश्यकता नहीं।


योगेन्द्र यादव
मत-विमत Updated On :

इस चुनाव में जिस भी पार्टी की सीटें बढ़ें या घटें, एक बात तय है कि चुनाव आयोग की साख निश्चित ही घट रही है। मतदान के आंकड़ों के बारे में हुए विवाद ने चुनाव आयोग की गिरती हुई साख को एक और धक्का पहुंचाया है। अभी से ही यह नहीं मान लेना चाहिए कि मतदान में बहुत बड़ा घोटाला हुआ है। लेकिन जो चुनाव आयोग पहले ही शक के घेरे में है, इस विवाद में उसकी भूमिका, उसकी चुप्पी और उसकी प्रतिक्रिया, सभी ने शक को पहले से ज्यादा गहरा किया है।

सैंटर फॉर द स्टडी ऑफ डिवलपिंग सोसाइटी (CSDS) के राष्ट्रीय चुनाव सर्वेक्षण के अनुसार, 1996 में चुनाव आयोग पर भरोसा करने वाले 77 प्रतिशत थे और भरोसा न करने वाले 23 प्रतिशत। इसी तरह 2019 के चुनाव में भरोसा करने वाले 78 प्रतिशत और भरोसा न करने वाले केवल 12 प्रतिशत थे। लेकिन इस वर्ष उसी संस्था द्वारा कराए गए चुनाव पूर्व सर्वेक्षण में चुनाव आयोग में भरोसा रखने वालों की संख्या घटकर केवल 58 प्रतिशत रह गई, जबकि भरोसा न करने वालों की संख्या बढ़कर 23 प्रतिशत हो गई है। चुनाव आयोग जैसी महत्वपूर्ण संवैधानिक संस्था की साख में गिरावट लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए बेहद संगीन मुद्दा है।

चुनाव की घोषणा से महज एक सप्ताह पहले दो नए चुनाव आयुक्तों की अजीबो-गरीब नियुक्ति ने इस शक को और भी गहरा कर दिया था। चुनाव आयोग की जिम्मेदारी थी कि वह अपने कामकाज से अपनी गिरती हुई साख को दोबारा हासिल करे लेकिन दुर्भाग्यवश, चुनाव की घोषणा से अब तक मुख्य चुनाव आयुक्त और दोनों आयुक्तों के काम-काज ने इस संस्था के कद को घटाया है और इस संदेह को जन्म दिया है कि  इस पवित्र संस्था में संवैधानिक पद पर बैठे अफसर सत्ताधारी दल के इशारे पर काम कर रहे हैं। मतदान के आंकड़ों के बारे में हुए विवाद को इसी परिप्रेक्ष्य में देखा जाना चाहिए। दुर्भाग्यवश इस चुनाव आयोग के बारे में किसी भी सही-गलत आरोप को बहुत लोग शुरू से ही सच मानने को तैयार हो जाते हैं। ऐसा ही कुछ पहले दो दौर के मतदान के आंकड़ों के बारे में हुआ।

इस बार चुनाव आयोग ने बिना कोई कारण बताए और बिना पहले से सूचना दिए मतदान के आंकड़े जारी करने की स्थापित परिपाटी में तीन बड़े बदलाव किए। पहला, चुनाव के दिन तक और मतदान के बाद भी प्रत्येक संसदीय क्षेत्र के कुल पंजीकृत मतदाताओं की संख्या घोषित नहीं की गई। दूसरा, चुनाव पूरा होने के 24 घंटे के भीतर मतदान के अंतिम आंकड़े देने की बजाय, इन आंकड़ों को एक एप पर डाल दिया गया, जिसमें अंतरिम आंकड़े 24 घंटे के बाद भी बदलते रहे। अंतिम आंकड़ों की घोषणा पहले दौर के मतदान के 11 दिन बाद,  यानी 30 अप्रैल को की गई और वह भी अखबारों में छपे सवालों और आलोचना के बाद। तीसरा, इतने विवाद के बाद भी जो आंकड़े प्रकाशित किए गए, उनमें केवल वोट प्रतिशत दिया गया, वोटों की पूरी संख्या नहीं दी गई।

जाहिर है, इस असाधारण देरी और बदलाव पर बवाल होना था, हुआ भी। चूंकि पहले दिन शाम 7 बजे जारी किए गए कच्चे आंकड़े और 11 दिन बाद जारी अंतिम आंकड़े में 6 प्रतिशत का अंतर था, इसलिए कई विपक्षी नेताओं ने यह शक जाहिर किया कि कहीं चुनाव पूरा होने के बाद चोर दरवाजे से सरकारी तंत्र ने 6 प्रतिशत अतिरिक्त वोट बढ़ा तो नहीं दिए? सी.पी.एम. महासचिव सीता राम येचुरी और कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे ने इस बारे में सवाल उठाए। कांग्रेस अध्यक्ष ने इंडिया गठबंधन की तमाम पार्टियों को इस आशय का पत्र भी लिखा, उसे सार्वजनिक भी किया।

चुनाव आयोग की जिम्मेदारी थी कि वह इन शंकाओं का समाधान करे। इसका सबसे आसान तरीका होता कि चुनाव आयोग पहले तीन दौर के मतदान में हर लोकसभा क्षेत्र और उसमें शामिल सभी विधानसभा हलकों के मतदाताओं और मतदान की संख्या सार्वजनिक कर देता। किसी भी संदेह के निवारण के लिए चुनाव आयोग चाहता तो हर बूथ के प्रमाणित मतदान (यानी फॉर्म 17 सी) को सार्वजनिक कर सकता था। चूंकि इस फॉर्म पर हर पार्टी के एजैंट के हस्ताक्षर होते हैं, इसे सार्वजनिक करने पर किसी भी संदेह या विवाद पर पूर्ण विराम लग जाता।

लेकिन ऐसा करने की बजाय चुनाव आयोग ने कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे को 17 पेज की एक अजीब सी चि_ी लिखकर उस पत्र का जवाब दिया, जो चुनाव आयोग को भेजा ही नहीं गया था। सरकारी अफ़सर के अहंकार और राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी के आरोप-प्रत्यारोप की भाषा का मिश्रण करती हुई यह चिट्ठी कांग्रेस अध्यक्ष को अमर्यादित भाषा में डांटते हुए उन्हें परोक्ष चेतावनी देती है कि अगर वह संवैधानिक संस्था के कामकाज में दखल देने से बाज नहीं आए तो आयोग कुछ कार्रवाई करने पर विवश हो सकता है। इस चिट्ठी में चुनाव आयोग एक अंपायर की बजाय एक राजनीतिक खिलाड़ी नजर आता है।

चुनाव आयोग ने खरगे जी द्वारा उठाए सवालों पर सफाई भी पेश की, लेकिन अजीबो-गरीब तर्क के सहारे। चुनाव आयोग ने दावा किया कि मतदान के आंकड़ों में इतनी देरी सामान्य है। चुनावों को 35 वर्ष तक देखने के आधार पर मैं कह सकता हूं कि यह बात सरासर झूठ है। आयोग ने यह हास्यास्पद तर्क भी दिया कि चूंकि हर बूथ की वोटर लिस्ट हर मान्यता प्राप्त पार्टी के पास होती है, इसलिए चुनाव आयोग को निर्वाचन क्षेत्र के कुल मतदाताओं की संख्या जारी करने की कोई आवश्यकता नहीं। साथ में यह खतरनाक तर्क भी दिया कि चूंकि इन आंकड़ों को प्रकाशित करने की कोई कानूनी बाध्यता नहीं है, इसलिए चुनाव आयोग चाहे तो इन आंकड़ों को जारी करे या न करे।

मतदाताओं के आंकड़ों के बारे में चुनाव आयोग का तर्क है कि वे चूंकि फॉर्म 17सी में हर बूथ पर कुल मतदाताओं और मतदान करने वालों की संख्या को दर्ज किया जाता है, इसलिए चुनाव आयोग निर्वाचन क्षेत्र में कुल मतदान के आंकड़े कब सार्वजनिक करे, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। यह अर्ध सत्य है। बेशक फार्म 17सी मतदाताओं की संख्या में हेरा-फेरी रोकने का एक अच्छा तरीका है लेकिन इससे चुनाव आयोग अपनी इस जिम्मेदारी से मुक्त नहीं हो जाता कि लोकसभा क्षेत्र में कुल मतदान कितना हुआ। यह मामला केवल आंकड़ों की विश्वसनीयता का ही नहीं है। इस सवाल को उठाने वाले सभी लोगों के मन में असली संदेह यह है कि किसी भी निर्वाचन क्षेत्र में कुल जितने मत पड़े और जितने मत गिने जाएंगे, उनमें कोई अंतर तो नहीं है।

इस शक का कारण यह है कि पिछले लोकसभा चुनाव में ऐसी गड़बड़ी सामने आई थी जब चुनाव आयोग ने परिणाम के बाद बूथवार मतदान के आंकड़े सार्वजनिक किए तो एक खोजी पत्रकार ने यह पाया कि जितने वोट पड़े नहीं उससे ज्यादा वोटों की गिनती हुई थी। इस अंतर पर सफाई देने की बजाय चुनाव आयोग ने आनन-फानन में अपनी वैबसाइट से मतदान के आंकड़े हटा लिए थे। आज तक इस गड़बड़ी के कारणों का खुलासा नहीं हुआ। मतदान के आंकड़ों के बारे में आरोप-प्रत्यारोप के पीछे असली सवाल यह है कि कहीं पिछले चुनाव की तरह इस बार भी जितने वोट पड़े और जितने गिने गए, उसमें अंतर तो नहीं रहेगा? यह बहुत गंभीर सवाल है।

जहां तक मुझे ध्यान पड़ता है, किसी भी लोकसभा चुनाव में मतदाताओं या मतदान की संख्या के बारे में बड़ा विवाद पहले कभी नहीं हुआ। लेकिन इसमें ईमानदारी और पारदर्शिता बरतने की बजाय चुनाव आयोग ने होशियारी, छिपाव और धमकाने का सहारा लिया है। चुनाव आयोग के इस रुख से इस संवैधानिक संस्था की साख को और धक्का लगा है। पता नहीं कितना समय लगेगा इस साख को दोबारा हासिल करने में।

(योगेन्द्र यादव चुनाव विश्लेषक एवं राजनीतिक कार्यकर्ता हैं)