म्यांमार में गहराता संकट


सेना के इस अचानक लिए फैसले से कई प्रश्न खड़े हो गये हैं। म्यांमार में लोकतान्त्रिक सरकार के कार्यकाल में भी सेना सत्ता पऱ हावी थी। वर्ष 2015 में जब सू ची की पार्टी नेशनल लीग फॉर्म डेमोक्रेसी सत्ता में आयी, तब भी सू ची ने सेना के विरुद्ध कोई कड़ा रुख नहीं दिखाया।


शिवेन्द्र राणा
मत-विमत Updated On :

म्यांमार में सैन्य जुंटा ने आपातकाल लगाते हुए सत्ता हस्तगत कर ली है। हालांकि म्यांमार के इतिहास में यह कोई विस्मयकारी घटना नहीं है। इससे पूर्व सन् 1962 में वहाँ सेना ने तख्ता पलट दिया और अगले पांच दशकों तक सत्ता पऱ काबिज़ रही। 2011 में पांच दशकों से चले आ रहे सैन्य शासन का अंत हुआ और लोकतान्त्रिक सरकार की स्थापना हुईं थी। लेकिन एक फरवरी को सेना ने वहाँ पुनः शासन अपने हाथ में लेते हुए आपातकाल लगा दिया है। सू ची समेत कई नेता गिरफ्तार कर लिए गये हैं।

म्यांमार के सैन्य प्रमुख मिंग आंग लाइंग ने नेशनल चैनल पऱ जनता को संबोधित करते हुए लोकतंत्र की रक्षा करने और नये चुनाव कराने जा वादा किया, लेकिन विरोध प्रदर्शन थम नहीं रहे।10 सालों से लोकतंत्र की खुली हवा में सांस ले चुकी जनता इस आपातकाल को आसानी से स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं है। युवाओं समेत बड़ी संख्या में लोग सड़को पऱ उतर आये हैं और सेना के विरुद्ध प्रदर्शन कर रहें हैं। प्रदर्शनकारी आरपार की लड़ाई कि स्थिति में लग रहें हैं। उनका हैं कि उनका भविष्य दांव पर लगा है और अगर वो इस बार जीत हासिल कर पाए तभी उनके बच्चे शांति के साथ रह पाएंगे।

प्रदर्शनकारियों का कहना है कि वो अपनी जान देने को तैयार हैं। कई प्रदर्शनकारियों की जान जा भी चुकी है। अब तक लगभग 800 लोग मारे जा चुके हैं, जिनमें 80 से अधिक पुलिस और सेना के लोग है, तथा 6000 लोगों की गिरफ़्तारी हो चुकी है जिनमें कई लापता बताये जा रहें हैं। इस बीच सेना प्रमुख ने प्रदर्शनकारियों की तरफ से ही सुरक्षा बलों पऱ गोलीबारी करने का आरोप लगाया है। इस दौरान 1,75,000 लोग भारत, चीन और थाईलैंड में विस्थापित हुए हैं। अभी ये दावे से नहीं कहा जा सकता है कि आगे सेना कितनी सख़्ती कर सकती है और लोग किस हद तक बर्दाश्त कर पाते हैं।लेकिन ये भी स्पष्ट है कि अपने हितों के दांव पर होने की आशंका में घिरे सेना के जनरल आसानी से पीछे नहीं हटेंगे।

म्यांमार के इतिहास में ये दूसरा बड़ा जन आंदोलन है। पहला सन 1988 में सैन्य शासन के ख़िलाफ़ छात्रों ने एक बड़ा आंदोलन शुरू किया था।इस आंदोलन में सू ची एक राष्ट्रीय नेता बनकर उभरीं थीं। इसके बाद जब 1990 में सैन्य प्रशासन ने चुनाव कराया, तो उनकी पार्टी, नेशनल लीग फ़ॉर डेमोक्रेसी ने ज़बरदस्त जीत हासिल की। सैन्य जुंटा ने चुनाव के नतीजों को खारिज करते हुए आंग सान सू ची को उनके घर पर नज़रबंद कर दिया गया। नज़रबंदी कि मियाद साल 2010 में ख़त्म हुई। इसके बाद से उन्होंने देश में लोकतंत्र लाने की कोशिशों में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। वो 2016 से लेकर 2021 तक म्यांमार की स्टेट कौंसिलर (प्रधानमंत्री के बराबर पद) और विदेश मंत्री भी रहीं।

सेना के इस अचानक लिए फैसले से कई प्रश्न खड़े हो गये हैं। म्यांमार में लोकतान्त्रिक सरकार के कार्यकाल में भी सेना सत्ता पऱ हावी थी। वर्ष 2015 में जब सू ची की पार्टी नेशनल लीग फॉर्म डेमोक्रेसी सत्ता में आयी, तब भी सू ची ने सेना के विरुद्ध कोई कड़ा रुख नहीं दिखाया। कहीं ना कहीं परदे के पीछे एक प्रकार के सहअस्तित्व की भावना दोनों पक्ष स्वीकार कर चुके थे। कट्टरपंथी रोहिंग्या के विरुद्ध कार्यवाही के दौरान सेना पऱ जब मानवाधिकार हनन के आरोप लगे तब भी सू ची का रुख सैन्य बलों के समर्थन में ही रहा।

2011 के बाद म्यांमार पऱ प्रतिबन्ध भी ढीले होने लगे थे, विदेशी निवेश प्रारम्भ हो चुका था। म्यांमार के संविधान में वर्ष 2008 के संशोधन द्वारा संसद की एक चौथाई सीट सेना के लिए आरक्षित कर दी गई हैं। इसके अतिरिक्त सरकार के महत्वपूर्ण मंत्रालयों यथा, गृह, रक्षा आदि पऱ नियंत्रण का अधिकार भी सेना के पास है। इसके बावजूद सेना को आपातकाल लगा कर तख्ता पलट करने की आवश्यकता क्यूँ पड़ी?

इसकी पहली वजह तो नई सरकार द्वारा संविधान संशोधन किये जाने की संभावना को बताया गया है। दूसरी वजह नवंबर के चुनाव में सेना द्वारा समर्थित दल यूएसपीडी की करारी पराजय से सेना बौखला गई। सेना ने इसे देश पऱ अपने सिकुड़ते प्रभाव के तौर पऱ देखा। भले ही अंतर्राष्ट्रीय जगत में सू ची म्यांमार की पहचान मानी जाती हो, पऱ सेना देश को अपनी जागीर समझती है और बात जहाँ सत्ता की हो, सेना वहाँ किसी निर्वाचित सरकार की अधीनता स्वीकार करने को बिल्कुल भी तैयार नहीं है। तीसरी वजह थी अंतराष्ट्रीय निवेश की आवक।

हाल के वर्षों में म्यांमार की अर्थव्यवस्था ग्लोबल होती जा रही थी। सेना हर बाहरी को चाहे वो व्यक्ति हो, निवेश या की व्यापारिक संस्थान, अपने लिए एक खतरे के तौर पऱ देखती है। करोना से होने वाली मौतें और रोहिंग्याओं के मानवाधिकार हनन तथा उन्हें मताधिकार से वंचित किये जाने के मुद्दे पऱ अंतराष्ट्रीय बिरादरी के आलोचनाओं को भी सेना सहन नहीं कर पा रही थी। इन सबका परिणाम यें हुआ की एनएलडी के दूसरे कार्यकाल के लिए संसद के प्रथम सत्र के कुछ घंटे पूर्व सेना ने सू ची समेत सभी कई सारे नेताओं को हिरासत में ले लिया और सरकार का तख्ता पलटते हुए आपातकाल घोषित कर दिया।

आपातकाल और तख्ता पलट की वैधता को साबित करने के लिए सेना समर्थित मुख्य विपक्षी दल यूनियन सॉलिडेरिटी एंड डेवलपमेंट पार्टी(यूएसडीपी) द्वारा निर्वाचित सरकार पऱ चुनावों में धांधली के आरोपों को आधार बनाया गया है। सू ची पऱ आयात -निर्यात नियमों के उल्लंघन और गैरकानूनी ढंग से दूरसंचार यंत्र रखने का आरोप लगाया गया है। जबकि अपदस्त राष्ट्रपति विन मिन पऱ कोरोना महामारी के नियमों के उल्लंघन का आरोप लगाया गया है। हालांकि इसके बाद भी सेना के प्रवक्ताओं ने सू ची पर विदेशी मुद्रा और सोना रखने के अलावा भ्रष्टाचार के आरोप भी लगाये।

प्रथम दृष्टया इससे सेना को कोई तत्कालिक लाभ मिलता नहीं दिखता। इसके विपरीत पश्चिमी देशों का कोप और यू। एन। के प्रतिबधों का दबाव बढ़ने की संभावना है। लेकिन इसके पीछे सेना कुछ अन्य लक्ष्य सिद्ध करना चाहती है, जैसे की वणिज़्यिक और राजनीतिक हितों का पूर्ति और स्वयं द्वारा समर्थित यूएसडीपी को चुनावों के लिए एक बेहतर स्थिति में लाना।

आंग सांग सू ची की गिरफ़्तारी के बाद मिस ग्रैंड म्यांमार हैन ले सैन्य विरोध का नया चेहरा बनकर उभरी। हैन ले ने यंगून में एक जनसभा में सैन्य तख्ता पलट का विरोध किया था। साथ ही सौंदर्य प्रतियोगिता के मंच से उन्होंने अंतर्राष्ट्रीय समुदाय से हस्तक्षेप की अपील की।इस दौरान हैन ले की थ्री फिंगर सैल्यूट बनाती हुईं तस्वीर सोशल मिडिया पऱ खूब प्रचारित हुईं। थ्री फिंगर सैल्यूट एशिया में सैन्य सत्ता के विरुद्ध विरोध का प्रतीक बन चुका है। हालांकि इस वजह से वे सेना के निशाने पर आ गयी हैं, इस खतरे को समझकर वे थाईलैंड निर्वासित हो गयी है।

 जनता के विरोध में एक अलग कोण ‘हपोन’ और ‘सारोंग’ के मध्य का संघर्ष भी है। म्यांमार में महिलाएं सैन्य शासन के ख़िलाफ़ अपने कपड़ों से संबंधित एक स्थानीय ‘अंधविश्वास’ का उपयोग कर रही हैं जिसे म्यांमार की ‘सारोंग क्रांति’ भी कहा जा रहा है। म्यांमार में मर्दाना ताक़त को ‘हपोन’ कहा जाता है। वहीं ‘सारोंग’ दक्षिण-पूर्व एशिया में महिलाओं द्वारा कमर पर पहने जाने वाले एक वस्त्र को कहा जाता है। म्यांमार में आम धारणा है कि अगर कोई पुरुष किसी महिला के ‘सारोंग’ के नीचे से गुज़र जाता है, तो वो अपनी मर्दानगी खो देता है।

पुलिसकर्मी और सेना के जवानों को रिहायशी इलाक़ों में घुसने और गिरफ़्तारियाँ करने से रोकने के लिए, म्यांमार के कई शहरों में महिलाओं ने अपने सारोंग सड़कों पर लटका दिये हैं और कुछ जगहों पर इसका असर भी देखा गया है। उनका नारा बना गया है, “हमारा सारोंग, हमारा बैनर, हमारी विजय।” प्रदर्शनकारी  महिलाएं अपने लाभ के लिए इन लैंगिकवादी मान्यताओं का उपयोग कर रही हैं। म्यांमार की महिलाओं का कहना है कि उन्होंने अपनी ‘सारोंग क्रांति’ को स्थापित करने के लिए व्यापक रूप से लोकप्रिय मान्यताओं पर भरोसा किया है।

भारत इस मुद्दे पऱ बहुत सधी हुईं प्रतिक्रिया दे रहा है। तख्तापलट के बाद भारत के विदेश मंत्रालय ने एक बयान जारी करके म्यांमार के घटनाक्रम पर ‘गहरी चिंता’ व्यक्त करते हुए कहा, “म्यांमार में लोकतांत्रिक परिवर्तन की प्रक्रिया के लिए भारत हमेशा अपना दृढ़ समर्थन देता रहा है। हमारा मानना है कि क़ानून के शासन और लोकतांत्रिक प्रक्रिया को बरकरार रखा जाना चाहिए।” इसके अतिरिक्त  26 फ़रवरी को संयुक्त राष्ट्र में म्यांमार के मामले पर एक बहस में संयुक्त राष्ट्र में भारत के स्थायी प्रतिनिधि टीएस त्रिमूर्ति ने कहा था, “भारत म्यांमार के साथ ज़मीनी और समुद्री सीमा साझा करता है और यहाँ शांति और स्थिरता का होना उसके हित में है। इसलिए म्यांमार के हालिया घटनाक्रम पर भारत द्वारा कड़ी निगरानी रखी जा रही है।

हम इस बात से चिंतित हैं कि म्यांमार द्वारा लोकतंत्र की दिशा में पिछले दशकों में उठाए गए क़दम को कमज़ोर न किया जाए।” मानवाधिकार संगठन ह्यूमन राइट्स वॉच ने संयुक्त राष्ट्र से म्यांमार को हथियार बेचने पर रोक लगाने की अपील की थी म्यांमार के विरुद्ध संयुक्त राष्ट्र महासभा में लाये गये प्रतिबन्ध प्रस्तावों पऱ मतदान में चीन थाईलैंड, बांग्लादेश, नेपाल, लाओस भूटान आदि 36 देशों के साथ भारत भी अनुपस्थित रहा।संयुक्त राष्ट्र में भारत के राजदूत टीएस तिरुमूर्ति ने इस मौक़े पर कहा कि इस प्रस्ताव को पेश करके यह नहीं मान लेना चाहिए कि ‘म्यांमार में लोकतांत्रिक प्रक्रिया को मज़बूत करने की दिशा में हमारे संयुक्त प्रयास अनुकूल नहीं हैं।’ साथ ही तिरुमूर्ति ने कहा कि ‘म्यांमार की स्थिति को लेकर भारत का स्टैंड साफ़ और एक है।

म्यांमार में बदलते हालात को लेकर हम अपनी गहरी चिंताएं जता चुके हैं। हम हिंसा के इस्तेमाल की निंदा करते हैं और अधिक संयम का आग्रह करते हैं।’संयुक्त राष्ट्र में भारत के राजदूत टीएस तिरुमूर्ति ने इस मौक़े पर कहा कि इस प्रस्ताव को पेश करके यह नहीं मान लेना चाहिए कि ‘म्यांमार में लोकतांत्रिक प्रक्रिया को मज़बूत करने की दिशा में हमारे संयुक्त प्रयास अनुकूल नहीं हैं।’ स्पष्ट है की भारत अपने राष्ट्रीय हितों के साथ खड़ा है और सेना पर दबाव बनाने से बच रहा है, साथ ही वैश्विक बिरादरी का हस्तक्षेप भी बर्मा में नहीं चाहता।

भारत के लिए म्यांमार की स्थिति विशेष है। भारत म्यांमार के साथ 1645 किमी लंबी स्थलीय सीमा के साथ ही बंगाल की खाड़ी में जलीय सीमा भी साझा करता है। सन्  2014 में नई सरकार के सत्ता में आने के साथ ही यह स्पष्ट हो गया था कि वर्तमान सरकार विदेश नीति में नेहरूवादी आदर्श को भुला चुकी है और अपने राष्ट्रीय हितों को वैश्विक शांति के लिए तिलांजलि देने को तैयार नहीं है।भारत उन आठ देशों में शामिल था, जिन्होंने 27 मार्च को नेपीडाव में म्यांमार सशस्त्र सेना दिवस सैन्य परेड में भाग लिया था। आयोजन के दिन ही सेना ने क़रीब 100 नागरिकों की हत्या कर दी। आयोजन में भाग लेने वाले देशों में भारत के अलावा पाकिस्तान, चीन और रूस भी शामिल थे। विपक्ष इस मुद्दे पर भारत सरकार पर हमलावर है।

चीन, म्यांमार के सैन्य जुंटा के पीछे दृढ़ता से खड़ा है। चीन और रूस के लिए म्यांमार हथियारों का एक बड़ा बाजार है। म्यांमार के प्राकृतिक संसाधनों पर चीन की नज़र है तथा चीन ने वहाँ भारी निवेश कर रखा हैं। इसके अतिरिक्त वहाँ किसी तरह का आतंरिक संघर्ष चीन के लिए मुश्किलें पैदा कर सकता हैं। चीन अपने पड़ोसी देश में अस्थिरता नहीं चाहेगा। लेकिन वो म्यांमार में लोकतांत्रिक प्रक्रिया को बढ़ावा नहीं देना चाहेगा। ऐसा होने पर हांगकांग के प्रदर्शनकारियों को प्रेरणा मिल सकती है।

पूर्वी एशिया कों चीन अपना प्रभाव क्षेत्र समझता है, म्यांमार में आतंरिक संघर्ष पश्चिमी देशों को हस्तक्षेप देगा, जिसे चीन कभी स्वीकार नहीं करेगा।तरफ़ चीन ने म्यांमार में देश की सियासी पार्टियों और सैन्य प्रशासन के बीच सुलह कराने की पेशकश की है। हालांकि इसमें सफल होने की संभावना नहीं है। चीन ने रोहिंग्या और बांग्लादेश के बीच एक समझौता कराने की बात भी कही थी लेकिन वह प्रयास भी विफल रहा।

म्यांमार की जनता के बीच चीन कि छवि अच्छी नहीं है, वे चीन कों सेना का समर्थक मानती है और अपना विरोधी। बर्मी लोग भारत के प्रति अधिक झुकाव और  निकटता रखतें हैं। भारत के लिए ये एक अच्छा अवसर है कि वो म्यांमार की जनता और लोकतांत्रिक पार्टियों की आवाज़ सुने और बातचीत के ज़रिए उनकी सहायता करे। लेकिन सैन्य जुंटा का खुला विरोध राष्ट्रीय हितों के विरुद्ध जा सकता है। म्यांमार में चीन और भारत के हित टकराते हैं।

म्यांमार में चीन जो कुछ करने का प्रयत्न करता है, भारत उसका विरोध करता है और भारत जो कुछ करने की कोशिश करेगा, चीन उसका विरोध करेगा। ऐसे में भारत के लिए ये सब इतना इतना आसान नहीं होने वाला हैं। भारत को सावधानी से क़दम उठाना होगा। बर्मा के लोकतंत्र को समर्थन देने के कारण भारत म्यांमार की सेना की कटुता झेल चुकी हैं, जिसका दुस्परिणाम था, पूर्वोत्तर को अपने यहाँ गतिविधियां चलाने की छूट, नक्सलियों को हथियारों की आपूर्ति, ड्रग्स और नकली नोटों का आवागमन, अपने विपुल प्राकृतिक संसाधनों के दोहन से भारत को वंचित रखना इत्यादि। पिछले कुछ वर्षो में बर्मी सेना का रुख भारत के प्रति उदार हुआ है। भारत विरोध से बचने के साथ ही बर्मी सेना ने पूर्वोत्तर के विद्रोही गुटों उल्फा, नागा आदि के विरुद्ध भारतीय सशस्त्र बलों के अभियानों में सक्रिय सहयोग दिया है। उधर इंडोनेशिया के नेतृत्व में दक्षिण पूर्व राष्ट्रों के संघ (आसियान) की तरफ़ से सुलह के प्रयास जारी है।किंतु मामला सुलझने के बजाय संकट अभी और गहराता दिख रहा है।

म्यांमार में गृहयुद्ध का गहराता संकट दक्षिण-पूर्वी और पूर्वी एशिया के लिए नई चुनौती बन सकता है। म्यांमार में शननी नेशनलटीज आर्मी, कचिन स्वतंत्रता संगठन, अराकान रोहिंग्या सैल्वेशन आर्मी उर्फ़ हराकाह अल-हकीम, जैसे कई विद्रोही संगठन अस्तित्व में हैं, जिनका देश में अपना प्रभाव क्षेत्र है। लोकतंत्र की रक्षा के नाम पऱ अगर नाटो देश म्यांमार के विद्रोही गुटों के समर्थन में उतरते हैं तो यह देश नया सीरिया या लीबिया बन सकता है। सीमावर्ती पड़ोसी होने के नाते भारत समेत अन्य पड़ोसियों को भी इस गृहयुद्ध के दुस्परिणाम भुगतने होंगे। बांग्लादेश का मुक्ति संग्राम इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है।

यह दौर विश्व में एक नये शीतयुद्ध के आमद का संकेत दे रहा है। इस बार पश्चिम देशों का सामना USSR से अलग कहीं शातिर चीन से है। चीन अमेरिकी सर्वाधिकारवाद को बिल्कुल सहन करने के लिए तैयार नहीं है। कुछ समय पूर्व चीनी राष्ट्रपति जिनपिंग ने अपने ‘राष्ट्रीय हितों के लिए ख़ूनी जंग के लिए भी तैयार’ होने की चेतावनी जारी की थी। ताईवान में लड़ाकू विमानों की पूरी स्कवार्डन भेज कर अपनी मंशा जता दी है। अमेरिका और यूरोप के प्रतिबंधों को धता बता उसने ईरान से नई सन्धि कर ली।अनकहे ही सही लेकिन रूस विश्व राजनीति के इस द्वंद में चीन का नेतृत्व स्वीकार कर चुका है क्योंकि क्रिमिया प्रकरण के पश्चात् उसके सम्बन्ध भी नाटो देशों के साथ रसातल में हैं। हालांकि ट्रम्प के उलट बाइडन का रुख चीन के प्रति नरम है, परन्तु अमेरिकी जनमानस का रुझान चीन विरोधी है।

कोरोना वायरस को लेकर पहले ही पश्चिमी देशों और चीन के सम्बन्ध कड़वे हैं। अगर दोनों पक्ष शक्ति परीक्षण के लिए म्यांमार में उतर आये तो परिस्थितियां विकट हो सकती हैं। वियतनाम युद्ध की स्मृतियाँ अभी भी विश्व समुदाय भुला नहीं है। यह पूर्ण एशिया और विश्व के लिए संकट की घड़ी हैं, जिसका शीघ्र समाधान आवश्यक है।