देशबंदी डब्लूएचओ की गाइडलाइन थी या फिर एक प्रधानमंत्री का अति उत्साह

मार्च के पहले सप्ताह से कोरोना संक्रमण के केस बढ़ने शुरू हुए और सरकारी मशीनरी को महसूस हुआ कि चूक हो गयी है। भारत चीन से आनेवाले यात्रियों को लेकर सतर्क था लेकिन भारत में जो कोरोना संक्रमित मिलने शुरू हुए वो चीन से नहीं बल्कि इटली, लंदन, दुबई और सऊदी से भारत पहुंच रहे थे।

जिन लोगों को लगता था कि नोटबंदी से देश में कालाधन समाप्त हो जाएगा उन्हीं को ये भी लगा कि देशबंदी से कोरोना समाप्त हो जाएगा। लेकिन न तो ऐसा होना था, न हुआ। तो सवाल उठता है कि आनन-फानन में देश को बंद क्यों किया गया ? क्या ये डब्लूएचओ की गाइडलाइन थी या फिर एक प्रधानमंत्री का अति उत्साह जिसने देश को भंवर में फंसा दिया है? 

मार्च के पहले सप्ताह से कोरोना संक्रमण के केस बढ़ने शुरु हुए और सरकारी मशीनरी को महसूस हुआ कि चूक हो गयी है। भारत चीन से आनेवाले यात्रियों को लेकर सतर्क था लेकिन भारत में जो कोरोना संक्रमित मिलने शुरू हुए वो चीन से नहीं बल्कि इटली, लंदन, दुबई और सऊदी से भारत पहुंच रहे थे। जब तक सरकार को ये समझ में आता कोरोना संक्रमण पूरे देश में फैल चुका था क्योंकि इन देशों की यात्रा करके लौटे हजारों लोग देशभर में फैल चुके थे। आनन-फानन में सरकार ने पूरे देश को बंद करने का फैसला किया और 22 मार्च को एक दिन का जनता कर्फ्यू भी लगा दिया। इसके अगले दिन से अंतरराष्ट्रीय उड़ानों पर रोक लगा दी गयी। फिर घरेलू उड़ानों और रेलयात्रा को भी रोक दिया गया। 

यह सब होता तो देश और समाज को कोई बड़ा आर्थिक नुकसान नहीं होता। लेकिन एकसाथ 21 दिन के संपूर्ण लॉकडाउन के ऐलान ने जो जहां था उसको वहीं रोक दिया। कल कारखानों से लेकर रेहड़ी पटरी पर व्यापार तक सबकुछ बंद पड़ गया। फिर भी इक्कीस दिन तक लोग प्रधानमंत्री मोदी की बात पर भरोसा करके इसलिए घरों में बैठे रहे कि शायद इक्कीस दिनों में कोरोना समाप्त हो जाएगा। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। फिर उन्नीस दिन और उसके बाद पंद्रह दिन। यानी 55 दिन तक देश को पूरी तरह बंद करके रखा गया लेकिन कोरोना संक्रमण कम होने की बजाय बढ़ता गया। इसके बाद केन्द्र सरकार ने तय किया कि अब देश को बंद नहीं बल्कि खोलने की तरफ आगे ले जाना है। 

बीते एक महीने से अब जबकि उद्योग धंधों, कारोबार, व्यापार सबकुछ को बंधनों से मुक्त कर दिया गया है फिर भी देश दोबापा से पटरी पर लौटता नहीं दिख रहा है। शहर के जो मजदूर पलायन करके गांव चले गये वो इतनी जल्दी लौटेंगे नहीं। ऐसे में शहर में कल कारखाने खुल भी गये तो काम कौन करेगा? इसके साथ ही कोरोना का भय भी अब कम होने की बजाय बढ़ गया है और कुल केस पांच लाख के पार चले गये हैं। ऐसे में दिल्ली, मुंबई जैसे शहरों की तरफ लोगों की जल्द वापसी होती दिख नहीं रही है। 

जाहिर है, देश के लोगों को देशबंदी की बड़ी कीमत चुकानी पड़ी है जो कोरोना संक्रमण से बहुत ज्यादा है। सरकार डीजल पेट्रोल पर बेतहाशा एक्साइज ड्यूटी बढ़ाकर अपने राजस्व घाटे को पूरा करने की कोशिश कर रही है लेकिन जनता के पास अपना घाटा पूरा करने का कौन सा जरिया है? व्यापार और कारोबार पूरी तरह से चौपट है, रोजगार का संकट पहले ही प्रबल था अब विकट हो गया है। कॉरपोरेट कंपनियां अपना घाटा पूरा करने के लिए छंटनी भी कर रही हैं और कीमतों में बढ़ोत्तरी भी। सवाल ये है कि बेरोजगारी और मंहगाई की इस दोहरी मार की दुर्दशा में जनता दोबारा से कैसे उठ खड़ी होगी?

लॉकडाउन के ऐलान के समय मोदी ने बहुत आत्मविश्वास से कहा था कि अगर ये लॉकडाउन (देशबंदी) नहीं हुआ तो देश इक्कीस साल पीछे चला जाएगा। लेकिन वर्तमान हालात तो ये बता रहे हैं कि लॉकडाउन के कारण ही देश इक्कीस साल न सही तो इक्कीस महीने तो पीछे चला ही गया है। इस दुर्दशा में डालने के लिए तो मोदी के पास ब्लूप्रिंट था लेकिन क्या इस दुर्दशा से बाहर निकालने के लिए मोदी के पास कोई प्लान है? 

फिलहाल लगता तो नहीं है। अपनी ऐतिहासिक भूल छिपाने के लिए भले ही आज भाजपा के लोग इस लॉकडाउन को यह कहते हुए जरुरी बता रहे हों कि तैयारी के लिए ये जरूरी था लेकिन तैयारी देखकर लगता है कि इसे बिना लॉकडाउन के भी किया जा सकता है। सवा सौ करोड़ लोगों की जिन्दगी को एक दम से रोक देना एक सनक तो हो सकती थी, सोची समझी रणनीति बिल्कुल नहीं। अब आने वाले लंबे समय तक जनता को इस सनक का सूत व्याज अपने खाते से चुकाना पड़ेगा। 

First Published on: June 27, 2020 10:25 AM
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