किसान आंदोलन के चलते रद्द हुआ संसद का शीतकालीन सत्र


किसी भी लोकतंत्र में लोकतंत्र का मतलब सिर्फ सांसद या विधायक चुनना नहीं होता। लोकतंत्र का मतलब है, हर फैसले पर संवाद। अगर जनता से जुड़े मुद्दे पर सरकार कोई फैसला किसी लोकतांत्रिक देश में लेती है, तो उससे पहले जनता या जनता के प्रतिनिधियों से संवाद करना जरूरी होता है।


संजीव पांडेय संजीव पांडेय
मत-विमत Updated On :

दिसंबर महीनें में कोरोना कहर के बीच ब्रिटिश पार्लियामेंट की बैठक हुई। इसी दौरान ब्रिटिश पार्लियामेंट में दिल्ली सीमा पर चल रहे किसान आंदोलन का मामला भी उठाया गया। लेकिन भारत में कोरोना के नए मामलों में कमी आने के बावजूद कोरोना के बहाने संसद के शीतकालीन सत्र को रद्द कर दिया गया है। दरअसल किसान आंदोलन का अफेक्ट और साइड अफेक्ट दिखने लगा है।

दिसंबर के ठंड में धरने पर बैठे कम से कम 22 किसानों की मौत हो गई है। लेकिन सरकार सिर्फ तो सिर्फ आंदोलन को बदनाम करने में लगी है। किसानों का दर्द अब लोगों से देखा नहीं जा रहा है। हरियाणा के करनाल में एक संत ने किसानों के दर्द देख आत्महत्या कर ली है। हालांकि सरकार आंदोलन की गंभीरता समझती है। लेकिन शायद सरकार किसानों की मांगों को मानने में अपनी पराजय देख रही है।

सरकार आंदोलन से घबरायी है, इसलिए अब विपक्ष का सामना करने से भी डर रही है। विपक्ष से सामना न हो इसलिए संसद का शीतकालीन सत्र भी सरकार ने रद्द कर दिया है। उधऱ आंदोलन का साइड अफेक्ट कारपोरेट घरानों पर दिखने लगा है। कारपोरेट घरानों का आपसी टकराव शुरू हो गया है। किसानों के आंदोलन ने अदानी-अंबानी के बॉयकाट का नारा दिया है। रिलांयस ग्रुप में निश्चित इससे घबराहट फैल गई है।

अब रिलांयस अपना गुस्सा टेलीकॉम कंपनी एयरटेल पर निकाल रहा है। रिलायंस ने एयरटेल पर किसान आंदोलन की आड़ में जियो को नुकसान पहुंचाने का गंभीर आऱोप लगाया है। जियो ने ट्राई का दरवाजा खटखटाया है। जियो का आरोप है कि एयरटेल किसान आंदोलन की आड़ में जियो के खिलाफ कैंपेन चला रहा है। जियो के ग्राहकों को एयरटेल में पोर्ट करने के लिए उकसाया जा रहा है। कारपोरेट घरानों की जंग खुलकर सामने आ गई है। दरअसल किसानों के आंदोलन ने कारपोरेट घरानों की फाल्ट लाइन को सामने लाया है।

देश में संवैधानिक संस्थाओं का महत्व खासा कम होता जा रहा है। इसका शिकार संसद भी है। संसद सत्र के बैठक के दिनों में कटौती होती जा रही है। पहले दो दशकों में संसद की बैठक सामान्य रुप से एक साल में कम से कम 120 दिन होती थी। बाद में संसद सत्र को छोटा किया जाने लगा। पिछले एक दशक में साल में संसद के तीन सत्रों में दिनों की संख्या 70 के करीब रह गई। इस साल तो नरेंद्र मोदी सरकार ने हद ही कर दी है। कोरोना की आड़ में इस साल संसद की बैठक कुल 33 दिन ही हुई है।

हालांकि संविधान सभा में केटी शाह जैसे लोगों ने राय दी थी संसद का सत्र बीच बीच में थोड़ी-थोड़ी छुटटियों के साथ पूरे साल चलना चाहिए। कुछ सदस्य इसे अमेरिकी और यूरोप के कुछ देशों के पार्लियामेंट के तर्ज पर कम से कम 100 दिन चलाना चाहते थे। लेकिन अब तो शायद संसद की जरूरत ही नहीं है। इस साल यूरोप के कई देशों में संसद की बैठक कोरोना के बावजूद बुलायी गई है। पाकिस्तान जैसे देश में संसद की बैठक बुलायी गई। लेकिन भारत अब अलग इतिहास लिख रहा है।

संसद का शीतकालीन सत्र कोरोना की आड़ में रद्द कर दिया गया है। लोकतंत्र का सबसे बड़े मंदिर को सिर्फ किसान आंदोलन के डर से नहीं खोला जा रहा है। क्योंकि अब किसान भी आर-पार की लड़ाई के मूड में है। सरकार चाहती है कि संसद का सत्र तभी हो जब किसान दिल्ली की सीमा से वापस चले जाए। सरकार ने दिल्ली की सीमा से आंदोलन को खत्म करने के लिए आंदोलन को तोड़ने की पूरी कोशिश की है। लेकिन आंदोलन कमजोर नहीं हो पाया है।

इस बीच किसान संगठनों दवारा दो कारपोरेट घरानों के बॉयकॉट का असर दिखने लगा है। जियो ने एयरटेल पर गंभीर आरोप लगाया है। इससे किसानों में खासा उत्साह आया है। किसान संगठनों को महसूस हो रहा है कि उनके बॉयकाट की अपील काम कर रही है। अदानी और अंबानी ग्रुप किसानों के बायकाट अपील से परेशान हुए है।

किसी भी लोकतंत्र में लोकतंत्र का मतलब सिर्फ सांसद या विधायक चुनना नहीं होता। लोकतंत्र का मतलब है, हर फैसले पर संवाद। अगर जनता से जुड़े मुद्दे पर सरकार कोई फैसला किसी लोकतांत्रिक देश में लेती है, तो उससे पहले जनता या जनता के प्रतिनिधियों से संवाद करना जरूरी होता है। विश्व के सबसे पुराने लोकतंत्र लिच्छवी गणतंत्र में भी संवाद का उदाहरण मिलता है।

संवाद के बिना कोई फैसला लिच्छवी गणराज्य में नहीं होता था। लेकिन आज विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत में संवाद गायब है। संवाद के मंदिर भी बंद किए जा रहे है। लोकतंत्र का मंदिर संसद है, जहां तमाम संवाद होते है। लेकिन नरेंद्र मोदी सरकार ने संसद में कृषि संबंधी बिलों पर संवाद नहीं होने दिया।

राज्यसभा में जिस तरीके से कृषि बिलों को पारित करवाया गया उसे पूरी दुनिया ने देखा। दुनिया को पता चल गया कि भारतीय लोकतंत्र में अब संवाद के लिए कोई जगह नहीं है। भारत में तो जनता के चुने हुए प्रतिनिधियों से सरकार संवाद नहीं कर रही। संसद में बहुमत के बल पर हंगामा कर महत्वपूर्ण कानूनों को बिना बहस के जबरजस्ती पारित करवाया जा रहा है।

अब तो हालात और गंभीर है। कोरोना की आड़ में संसद का शीतकालीन सत्र स्थगित कर दिया गया है। इस फैसले से लोग अचंभित है। बिना किसी घोषणा या आदेश के आपातकाल जैसी स्थिति पैदा हो गई है। संसद का शीतकालीन अधिवेशन उस समय स्थगित किया गया है, जब दिल्ली की सीमा पर भारी संख्या में कड़ाके के ठंड में किसान अहिंसात्मक शांतिपूर्ण धरना दे रहे है। कड़ाके के ठंड में किसान औऱ उनके बच्चे, परिवार की महिलाएं धरना स्थल पर बैठे है। जब धरने पर बैठे किसानों को लेकर संसद में डिबेट होना चाहिए तो संसद का अधिवेशन ही रद्द कर दिया गया है।

दिलचस्प बात है कि भारत में सितंबर माह में कोरोना के केस खासा ज्यादा थे। उस समय संसद का अधिवेशन बुलाकर आनन-फानन में तीन कृषि बिलों को पारित करवा लिया गया। आज जब कोरोना के मामलों में देश में कमी आ रही है, और किसान उन्हीं तीन कृषि बिलों के कारण धरने पर बैठे तो केंद्र सरकार कोरोना की आड़ में संसद का अधिवेशन ही रद्द कर रही है। सरकार के लिए क्या संसद का महत्व पूरी तरह से खत्म हो गया है ? अगर सरकार को लगता है कि संसद के बिना ही देश का काम चल सकता है तो अब बजट सत्र भी बुलाने की क्या जरूरत है? सरकार बजट भी अध्यादेश के जरिए ले आए?

सितंबर महीनें में जब कृषि संबंधित तीन बिलों को संसद में लाया गया था उस समय कोरोना भारत में चरम पर था। प्रतिदिन कोरोना के 75 हजार से ज्यादा नए मामले आ रहे थे। सितंबर में तो 80, 85, 90 हजार कोरोना के नए मामले भी एक-एक दिन में आए। लेकिन सरकार सितंबर माह में कोरोना से निपटने के बजाए कृषि बिलों को किसी भी तरह से संसद में पारित करवाना चाहती थी। इससे पहले जून महीनें में कोरोना के दौरान ही विपक्ष और किसान संगठनों से बातचीत किए बिना सरकार ने कृषि कानूनों को लेकर अध्यादेश जारी कर दिया।

देश जब कोरोना से जंग लड़ रहा था तब सरकार कोरोना की आड़ में पूंजीपतियों को लाभ पहुंचाने वाले फैसले कर रही थी। कोरोना जब कोहराम मचा रहा था तो सितंबर महीनें में संसद का सत्र बुलाकर तीनों कृषि बिलों को पारित भी करवा दिया। अब जब किसान आंदोलन कर रहे है, दिल्ली की सीमा पर बैठे है, संसद में बहस की जरूरत है, सरकार ने शीतकालीन सत्र को ही रद्द कर दिया है। बहाना कोरोना का बनाया गया है।

दिसंबर महीनें में कोरोना के नए मामलों में रिकार्ड कमी आयी है। अब औसतन कोरोना के नए मामले 30 से 40 हजार प्रतिदिन आ रहे है। 2 दिसंबर को लगभग 35551 नए मामले आए थे। 6 दिसंबर को 32981 हजार नए मामले आए थे। 10 दिसंबर को 29373 मामले सामने आए थे। 13 दिसंबर को देश में कोरोना के लगभग 27 हजार नए मामले आए।

14 दिसंबर को लगभग 22 हजार मामले सामने आए। जब सरकार को कारपोरेट को लाभ पहुंचाने के लिए कृषि बिल पारित करवाना था तो कोरोना के चरम पर संसद का सत्र बुलाया गया। जब आज किसान आंदोलन पर संसद में बहस का समय है तो कोरोना के केसों में आयी भारी कमी के बावजूद संसद का शीतकालीन सत्र कोरोना की आड़ में रद्द किया जा रहा है।