वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य कुछ हद तक मध्यकालीन भारत की तरह है। उस समय केंद्रीय सत्ता को स्थानीय सामंत चुनौती देते थे तो कभी केंद्रीय सत्ता सामंतों को धूल में मिलाने का उपक्रम करते थे। राजस्थान में कुछ ऐसा ही हो रहा है। कांग्रेस के वंशवादी सामंत पार्टी की केंद्रीय वंशवादी सत्ता को चुनौती दे रहे हैं। केंद्रीय सत्ता को चुनौती देने वाले ऐसे नेता जनता के बीच संघर्ष से पैदा नहीं हुए है। जिन्हें चुनौती मिली है, वे भी जनता के बीच संघर्ष कर ऊपर नहीं आए है। बगावत करने वाले और बगावत झेलने वाले दोनों को सता विरासत में मिली है।
राजस्थान में कांग्रेस के खिलाफ बगावत का झंडा बुलंद कर चुके सचिन पायलट सामंती लोकतंत्र के प्रतीक है। कांग्रेस ने सामंती लोकतांत्रिक परंपरा का पालन करते हुए सचिन पायलट को सरकार और संगठन में अच्छे पद दिए। अब सवाल यही है कि बगावत के बाद सचिन पायलट कितना सफल होंगे? क्योंकि एक सच्चाई यह भी है कि सचिन पायलट उतर प्रदेश के गुजर है। इस कारण बेशक वे राजस्थान के गुर्जरों के नेता हैं,पर राजस्थान की दूसरी दबंग जातियां उन्हें अपना नेता नहीं मानती।
सचिन पायलट बहुत जल्दीबाजी में अपने आप को राजस्थान का सबसे लोकप्रिय नेता समझने की भूल कर बैठे है। सच्चाई तो यह है कि सचिन पायलट को राजस्थान की जातीय राजनीति में फिट बैठने में काफी समय लगेगा। वे गुर्जर जाति से संबंधित है। राजस्थान में गुर्जर की अच्छी आबादी है। सचिन पायलट गुर्जरों के बीच जरूर स्वीकार्य हैं। लेकिन राजस्थान की दो मजबूत जातियां राजपूत और जाट उन्हें नेता के रुप में स्वीकार नहीं करते हैं। इन दोनों जातियों की राजस्थान में अभी भी आबादी 25 प्रतिशत है। सचिन पायलट को बतौर राज्य के नेता के तौर पर मीणा जनजाति भी स्वीकार नहीं करती है। मीणा भी राजस्थान में 7 से 8 प्रतिशत हैं। आरक्षण को लेकर मीणा और गुर्जर दोनों जातियां आमने सामने रही हैं। इस जातीय राजनीतिक गुणा-गणित को कांग्रेस और भाजपा दोनों पार्टियां समझती है।
राजस्थान की राजनीति की एक कटु सच्चाई है कि एक मजबूत जाति दूसरे मजबूत जाति के राजनीतिक सत्ता को स्वीकार नहीं करती। राजस्थान की राजनीति में राजपूतों और जाटों में लगातार सत्ता संघर्ष होता रहा है। जाटों को मुख्यमंत्री पद न मिले इसके लिए राजपूतों ने हमेशा लामबंदी की। कांग्रेस शुरू से जातीय गुणा-गणित को संतुलित कर राजनीति करती रही है। कांग्रेस ने राजस्थान में इसी कारण माली जाति के अशोक गहलोत पर कई बार दांव खेला।
कुछ राज्यों में जहां जातिवाद की जड़ें काफी मजबूत है, वहां का राजनीतिक समाजशास्त्र राजनीतिक दलों को परेशान करता है। कई मजबूत जातियां राजनीति में अपने प्रतिदंदी मजबूत जाति के नेता को राज्य के टॉप पद पर स्वीकार नहीं करती। वैसे में सारी मजबूत जातियों की सहमति वाली जाति को टॉप पद देने की कोशिश की जाती है। कभी-कभी राजनीतिक दल उन जातियों पर सर्वसम्मति का दाव खेलती है जो संख्या बल और राजनीतिक तौर पर कमजोर होती है।
बिहार में कांग्रेस राज के दौर में बिहार की दो मजबूती अगड़ी जातियां भूमिहारों और राजपूतों का हमेशा राजनीतिक टकराव रहा। वैसे में कांग्रेस ने समझौते के फारमूले के तहत राजनीतिक टकराव को टालने के लिए ब्राहमण मुख्यमंत्री कई बार बनाया। क्योंकि भूमिहार और राजपूत दोनों जातियां राजनीतिक रूप से बिहार में आजादी के बाद काफी मजबूत थी। आज बिहार में यादव जाति के मुख्यमंत्री बनाए जाने के नाम पर अन्य मजबूत जातियां ही सिर्फ खिलाफ नहीं होती। बल्कि दूसरी गैर यादव कमजोर पिछड़ी जातियां भी यादव के खिलाफ गोलबंद हो जाती है।
यह सच्चाई है कि सचिन पायलट ने राजस्थान में खूब मेहनत की। वे प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष रहे। कांग्रेस को काफी मजबूत किया। लेकिन यह भी सच्चाई है सचिन पायलट को कांग्रेस ने बहुत ही कम उम्र में काफी कुछ दे दिया। बहुत कम उम्र में वे मनमोहन सिंह सरकार के मंत्रिमंडल में शामिल हो गए। क्या कांग्रेस का कोई सामान्य कार्यकर्ता यह रूतबा खासी मेहनत के बावजूद हासिल हो सकता है? सचिन पायलट से खासे ज्यादा मेहनती जमीनी लाखों कार्यकर्ता कांग्रेस में कुछ नहीं हासिल कर पाए। क्योंकि वे किसी राजनेता के परिवार में नहीं जन्मे। सचिन पायलट को कांग्रेस ने सिर्फ इसलिए बहुत कुछ दिया कि वे स्वर्गीय राजेश पायलट के बेटे हैं। राजेश पायलट साधारण कार्यकर्ता से उपर उठे थे। कांग्रेस ने राजेश पायलट का ऋण चुकाया। सचिन पायलट कांग्रेस के साधारण कार्यकर्ता नहीं रहे। वे सीधे एक राजनीतिक परिवार में पैदा हुए।
आज कई कांग्रेसी सचिन पायलट से कई महत्वपूर्ण सवाल पूछ रहे है। बतौर मनमोहन सिंह मंत्रिमंडल में मंत्री रहते उन्होंने कांग्रेस के हितों के लिए क्या किया? हालांकि यह सवाल संविधान के खिलाफ है। क्योंकि मंत्री तो देश का होता है। उसे देशहित में काम करना होता है। लेकिन राजनीतिक सच्चाई तो यही है कि मंत्री को पहले पार्टी हित में काम करने होते है।
सचिन पायलट कारपोरेट अफेयर्स विभाग के मंत्री थे। वे चाहते तो कारपोरेट, मीडिया, सोशल साइट हर जगह कांग्रेस विरोधी मुहिम को ठंडा कर सकते थे। पायलट के मंत्री रहते न्यूज चैनलों, फेसबुक, सोशल मीडिया पर मनमोहन सिंह सरकार और कांग्रेस के खिलाफ मोर्चेबंदी हो गई। 2014 के चुनावों से पहले कांग्रेस की धज्जियां उड़ा दी गई। कारपोरेट घराने तो पूरी तरह से मनमोहन सिंह सरकार के खिलाफ मोर्चेबंदी कर बैठे। सचिन पायलट बतौर मंत्री रहते मनमोहन सिंह सरकार के बचाव के लिए क्या किया? अगर वर्तमान सरकार के डिफेंस मैकेनिज्म से तुलना की जाए तो बहुत कुछ स्पष्ट हो जाएगा। हां यह तर्क जरूर दिया जा सकता है, सचिन पायलट ने भारतीय संविधान की पालना की। सचिन पायलट ने कांग्रेस सरकार के बचाव के बजाए लोकतंत्र को बचाया। उन्होंने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को जिंदा रखा।
राजस्थान भाजपा के नेता क्या सचिन पायलट को अपना नेता स्वीकार कर लेंगे? मध्य प्रदेश में सरकार बनाने के बाद जिस तरह से मंत्री पद हासिल करने के लिए सिंधिया खेमे और भाजपा के बाकी खेमों में टकराव हुआ है वो सभी ने देखा। बाद में विभागों के बंटवारे में टकराव हुआ। कुछ भाजपा दिग्गज सिंधिया कोटे के मंत्री बनाए जाने से मंत्री पद पाने में विफल रहे है। सिंधिया के लोगों को शिवराज ने मंत्रिमंडल में शामिल कर लिया है, लेकिन काफी दबाव वो भी महसूस कर रहे है। सिंधिया का भविष्य भाजपा में क्या रहेगा यह समय बताएगा। सिंधिया का बचाव फिलहाल यही है कि उन्होंने भाजपा से मध्य प्रदेश का मुख्यमंत्री पद नहीं मागा। अगर सिंधिया ने मुख्यमंत्री पद भाजपा से मांग लिया होता तो शिवराज चौहान, नरेंद्र सिंह तोमर, नरोत्तम मिश्रा और कैलाश विजयवर्गीय सिंधिया के खिलाफ एकजुट हो जाते।
अब यही सवाल राजस्थान में है। सचिन पायलट कांग्रेस से बागी हो गए। अच्छे खासे विधायकों का समर्थन का दावा भी किया है। कल को अशोक गहलोत की सरकार फ्लोर टेस्ट होने पर गिर भी सकती है। लेकिन अहम सवाल यही है कि क्या सचिन पायलट को भाजपा की राजस्थान इकाई मुख्यमंत्री स्वीकार कर लेगी? क्या वसुंधरा राजे, गजेंद्र सिंह शेखावत समेत कई और पुराने संघ से जुड़े राजस्थान के भाजपा नेता सचिन पायलट को बतौर मुख्यमंत्री स्वीकार कर लेंगे?
इसकी संभावना न के बराबर है। वसुंधरा राजे तो खुद के सिवाए किसी दूसरे भाजपाई को मुख्यमंत्री मानने को तैयार नहीं होती है। अगर भाजपा हाईकमान ने सचिन पायलट को मुख्यमंत्री बनाने के लिए दबाव डाला तो स्थानीय भाजपा में बगावत हो सकती है? दरअसल सिंधिया और पायलट के बगावत में यही फर्क है। सिंधिया मुख्यमंत्री पद के दावेदार नहीं थे। पायलट मुख्यमंत्री पद कांग्रेस से मांग रहे थे। भाजपा से भी मुख्यमंत्री पद मांगेंगे। उन्हें भाजपा केंद्र में मंत्री बना सकती है। प्रदेश में मुख्यमंत्री नहीं।