नवीनतम सर्वेक्षण के बहाने ‘भारत की खोज’

पिछले कई दशकों से राष्ट्रीय सैंपल सर्वेक्षण संगठन लोगों से उनके दैनंदिन रसोई के खर्च से लेकर कपड़े, शिक्षा और अस्पताल या मनोरंजन जैसे हर छोटे-बड़े खर्चे की सूचना के आधार पर प्रति व्यक्ति प्रति माहखर्च का अनुमान लगा रहा है।

जिन दिनों मैं अध्यापन करता था, तब अक्सर अपने छात्रों को एक खेल के बहाने देश की असली तस्वीर दिखाता था। मैं उन्हें पूछता था कि अगर एक सौ पायदान की ऊंची सीढ़ी पर देश के हर व्यक्ति को उसकी आमदनी के हिसाब से खड़ा कर दिया जाए, ताकि सबसे गरीब व्यक्ति पहली पायदान पर और सबसे अमीर व्यक्ति सौवीं पायदान पर खड़ा हो, तो उनका परिवार कौन सी पायदान पर होगा। फिर उनका जवाब लेने के बाद मैं उन्हें वास्तविक आंकड़े दिखाता था। अक्सर मेरे विद्यार्थी भौंचक्के रह जाते थे। इससे शुरू होती थी उन विद्यार्थियों की ‘भारत की खोज’।

हाल ही में भारत सरकार ने वर्ष 2023-24 के लिए ग्रामीण और शहरी भारत की पारिवारिक आमदनी के आंकड़े प्रकाशित किए। तकनीकी रूप से इसे ‘घरेलू उपभोग व्यय सर्वेक्षण’ कहा जाता है। अर्थशास्त्रियों का अनुभव है कि लोगों से अगर उनकी आमदनी के बारे में पूछा जाए तो लोग सही उत्तर या तो दे नहीं पाते, या फिर देना नहीं चाहते। इसलिए उनकी आय का अनुमान लगाने के लिए उनसे उनके खर्चे के बारे में पूछें तो सही उत्तर मिल जाते हैं।

पिछले कई दशकों से राष्ट्रीय सैंपल सर्वेक्षण संगठन लोगों से उनके दैनंदिन रसोई के खर्च से लेकर कपड़े, शिक्षा और अस्पताल या मनोरंजन जैसे हर छोटे-बड़े खर्चे की सूचना के आधार पर प्रति व्यक्ति प्रति माहखर्च का अनुमान लगा रहा है। विशाल सैंपल और विश्वसनीय तकनीक पर आधारित इस सर्वेक्षण को देश के सबसे विश्वसनीय स्रोत में माना जाता है और सरकार की अधिकांश नीतियां इस पर आधारित होती हैं।

तो आइए इन आंकड़ों की मदद से ही हम ‘भारत की खोज’ वाला खेल खेलें। सबसे पहले कृष्णन साहब के घर चलते हैं, जो सरकारी बैंक में प्रमोट होकर ब्रांच मैनेजर बने हैं। उनका अपना मासिक वेतन 1.25 लाख रुपए है, पत्नी एक प्राइवेट स्कूल में अध्यापिका हैं, कुल 35 हजार प्रतिमाह पाती हैं। पहले किराए के घर में रहते थे लेकिन पिछले 5 साल से अपना फ्लैट ले लिया है और दो बच्चों समेत उसमें रहते हैं।

एक साधारण मॉडल की कार है, बेटे ने मोटरसाइकिल लिया है, बैडरूम में ए.सी. लगा है। यानी एक साधारण ‘मिडल क्लास फैमिली’ से हैं। उनके घर में काम करने कांता आती है, कई घरों में काम कर महीने में 8 हजार कमा लेती है और उसका पति सुरेश ड्राइवर है, महीने में 15 हजार वेतन है। इतने में पति-पत्नी और 3 बच्चे किराए के मकान में रह कर अपना गुजारा करते हैं, स्कूटर खरीदने की योजना है।

यानी एक मेहनतकश परिवार। कृष्णन साहब के बैंक में खन्ना साहब का अकाऊंट है, खाता-पीता परिवार है, जिनकी एक छोटी सी फैक्टरी में 6 लोग काम करते हैं। महीने में ढाई-तीन लाख की कमाई हो जाती है। घर में पत्नी और 2 बच्चों के साथ बुजुर्ग मां भी रहती हैं। बड़ा घर है, दो गाडिय़ां हैं, एक बार विदेश भी घूम आए हैं। लेकिन कोठी में रहने वाले खानदानी रईस नहीं हैं।

शहरी समाज की प्रचलित भाषा में कृष्णन साहब को मध्यम वर्गीय परिवार बताया जाएगा, खन्ना साहब को ‘अपर मिडल’ कहा जाएगा और कांता को गरीब समझा जाएगा। अगर 100 पायदान पर उनकी जगह बताने को कहा जाता है तो हम शायद कान्ता को 20वीं पायदान पर रखेंगे, कृष्णन को 50-60 के करीब और खन्ना साहब को 80-90 के बीच। यही हमारी समझ का खोट है।

अब इस समझ की जांच प्रामाणिक आंकड़ों से कीजिए। नवीनतम आंकड़ों के हिसाब से शहरों में रहने के बाद मध्यम वर्ग (यानी जो 40वीं और 60 वीं पायदान के बीच में हैं) का औसत मासिक खर्च 4,000 रुपए से कम है। यानी कि 20-25 हजार में 4 लोगों का परिवार चलाने वाले कान्ता और सुरेश वास्तव में शहरी भारत के सच्चे मध्यम वर्गीय परिवार हैं। शहरी निचली 20 पायदान पर वे परिवार हैं, जो हर महीने हर व्यक्ति पर 3000 रुपए भी खर्च नहीं कर पाते।

पिछले साल के आंकड़ों के हिसाब से जो परिवार प्रति व्यक्ति प्रतिमाह 20,000 रुपए से अधिक खर्च करता है, वह शहरी लोगों के सर्वोच्च 5 प्रतिशत में है। प्रति व्यक्ति प्रतिमाह 30,000 रुपए से अधिक खर्च करने वाला हर परिवार शहरी लोगों के शीर्षस्थ 1 प्रतिशत परिवारों में से है। यानी उन्हें भले ही विश्वास न हो, मगर कृष्णन जी 95वीं और खन्ना जी सबसे ऊपरी 100वीं पायदान पर खड़े हैं।

जाहिर है, ग्रामीण इलाकों में स्थिति और भी विकट है। गांव में ही बसर करने वाला जो भी परिवार प्रति व्यक्ति प्रति माह 7,000 रुपए खर्च करने की हैसियत रखता है (यानी 5 लोगों के जिस ग्रामीण परिवार की 35,000 से अधिक आय है), वह ग्रामीण भारत के सर्वोच्च 10 प्रतिशत वर्ग का हिस्सा है। ग्रामीण मध्यम वर्ग उन परिवारों को कहा जाएगा, जहां 5 लोगों के परिवार में महीने में 20,000 रुपए में काम चलाना होता है।

ग्रामीण इलाकों के दरिद्रतम परिवार वे हैं, जहां परिवार के 6 लोग आज भी एक महीने में 10,000 रुपए के भीतर गुजारा करते हैं। यह तो पूरे देश की औसत है। अगर इस औसत को अलग-अलग राज्यों के हिसाब से देखें तो पूर्वी भारत (छत्तीसगढ़, बिहार, झारखंड, ओडिशा, बंगाल, असम और पूर्वी उत्तर प्रदेश) की स्थिति सबसे दयनीय है। वहां तो महीने में 15,000 खर्च करने की हैसियत वाले परिवार आधे से कम होंगे।

मैंने ‘भारत की खोज’ वाला यह खेल न जाने कितनी बार खेला है और हमेशा एक ही बात सामने आई है – देश के आॢथक पायदानों के बारे में भी हमारी दृष्टि बहुत टेढ़ी है। अपेक्षाकृत संपन्नता के बुलबुले में रहने वाले शहरी भारतीय को पता ही नहीं है कि एक साधारण भारतीय किस अवस्था में रहता है। जो सचमुच गरीब है, वह हमारी दृष्टि से ओझल है। जो मध्यम वर्गीय है, उसे हम गरीब समझते हैं और जो शीर्ष पर काबिज हैं, उन्हें हम ‘मिडल क्लास’ कहते हैं। कब इस खुशफहमी से मुक्त होगा इस देश का शासक वर्ग?

(योगेन्द्र यादव राजनीतिक कार्यकर्ता और चुनाव विश्लेषक हैं)

First Published on: January 10, 2025 9:48 AM
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