
गोरेपन की क्रीम के विज्ञापन देख कर तो ऐसा लगता है कि काला होना इस दुनिया का सबसे बड़ा अभिशाप है। आप कितने भी योग्य हों, किन्तु चमड़ी का रंग गोरा नहीं है, तो सारी योग्यताए बेमानी है। क्या ये सच नहीं है कि रंग भेद हमारे आस पास से ही शुरू होता है, बल्कि यूं कहें कि हमारे घरों से ही शुरू होता है। बड़ा स्वरूप तो बाद मे देखने को मिलता है।
जन्म के समय ही रंग पर खासी चर्चा होती है। मां प्रसव पीड़ा के बाद सबसे ज्यादा यही पीड़ा झेलती है, की उसका बालक अथवा बालिका गोरा/गोरी है या काला/काली? और उस पर अगर बेटी हुई तो पूछिए ही मत। पूरा जीवन गोरे बच्चे के सामने उस काले बच्चे को दब कर ही रहना पड़ता है, अपमान ही सहना पड़ता है।
जीवन के किसी भी पक्ष को देखेंगे तो पायेगे की रंग कितना महत्वपूर्ण है। गली-मोहल्ले में खेलते समय से लेकर, स्कूल-कॉलेजों के नाटकों में भाग लेने के लिए भी गोरा रंग ही प्राथमिकता होता है। तब वे, माता पिता कितना गर्व महसूस करते हैं, जिनके बच्चे गोरे हैं, किन्तु मनोबल तो उनका टूटता है, जो रंग के कारण आगे ही नहीं बढ पाते और हीनभावना से भर जाते हैं। उनका आत्मविश्वास धूल में मिल जाता है।
मैंने तो कई किस्से सुन रखे हैं, जिनमे काले रंग के तानों से तंग आ कर आत्महत्या जैसे कदम भी उठा लिए गए।ऐसे में आवश्यकता होती है, शिक्षित व्यक्ति और शिक्षित समाज की। जिनके लिए रंग भेद/ लिंग भेद नहीं बल्कि योग्यता और आत्मविश्वास सर्वोपरि होता है। क्या हमें ऐसा समाज बनाने में मदद नहीं करनी चाहिए ?
एक व्यक्ति के अंदर कितनी संभावनाएं छुपी होती हैं, अंदाज लगाना भी मुश्किल है। इसलिए रंग भेद और नस्लभेद के आधार पर संभावनाएँ खत्म मत कीजिए। अगर कहीं ऐसा हो रहा है, तो उसे रोकने के प्रयास कीजिए। इससे देश भी अछूते नहीं हैं, विशेषकर ऐसे देश जहां चमड़ी का रंग गोरा होना सामान्य और प्रकृति प्रदत्त है।
किसी का गोरा होना बुद्धिमत्ता और आर्थिक सफलता का प्रमाण नहीं है। काला होना किसी असफलता और बुद्धिहीनता की निशानी तो बिल्कुल नहीं। अश्वेत व्यक्ति को मनुष्य की श्रेणी से ही बाहर कर देना कहाँ तक उचित है ?
“I can’t breathe” मिनियापॉलिस से फैल कर पूरे विश्व के कानों तक पहुंचा, और लगभग सभी को सांस लेने मे दिक्कत महसूस होने लगी। 46 साल के हृष्ट पुष्ट फ्लाएड को लगभग 8 मिनट तक एक पुलिस अफसर ने घुटने के नीचे दबा के रखा था। अश्वेत होने का ऐसा दंड?
ये superiority complex कब घर कर गया ये ठीक ठीक कहना तो मुश्किल है, पर यह भेदभाव सदियों से चला आ रहा है। इस मानसिक बीमारी का जब-जब विरोध हुआ है, तब-तब अच्छे-अच्छे देश और वहा के राजनेता घुटने पर आ गए। फिर छुपने को सिर्फ सुरंगें ही बचीं। विरोध झेलने की शक्ति न होने पर समझौते और बात करने के अलावा कोई और रास्ता नहीं रह जाता।
“Health of black America” मे कई जगह इस बात का विवरण है की रंगभेद अश्वेत लोगों के स्वास्थ्य पर बुरा असर डालता है। पुलिस वालों की रंग के आधार पर बेवजह की पूछताछ, कार्य स्थलों पर उनसे भेदभाव, सामाजिक स्तर पर उनको हीन समझना, सार्वजनिक स्थलों पर उनके साथ सामान्य व्यवहार में कमी, खुले आम उनके रंग को लेकर टीका टिप्पणी, इनके अलावा भी कई और कारण हैं, जो अश्वतों के दिमाग पर बुरा असर डालते हैं।
गांधी, नेल्सन मंडेला, मार्टिन लूथर किंग, बराक ओबामा ये नाम लेते ही इनके साथ हुए भेदभाव भी याद आ जाते हैं, और उनके संघर्ष भी। इसके बाद भी इनमें से किसी ने भी कभी घृणा और हिंसा का संदेश नहीं दिया। रंगभेद की घटनाएं नकारात्मक विचारों का परिणाम थीं। उनमें परिवर्तन सोच से और साथ से आया। इससे पहले कि भेदभाव मन में जड़ें जमा लें, शिक्षा और समझ रूपी रबर से इसे धीरे-धीरे मिटाते रहें।
(शिवा श्रीवास्तव वरिष्ठ पत्रकार हैं और भोपाल में रहती हैं।)