हिज्राह या हिजरत, हजरत मोहम्मद का अपने अनुयाइयों (सहाबा) के साथ, शहर मक्का से शहर मदीना जिस का पुराना नाम यस्रिब था, को सन् 622 में प्रवास को कहा जाता है। दरअसल, उन दिनों मक्का बेहद अशांत हो गया था और साहब यानी हजरत मोहम्मद साहब को कहीं से यह सूचना मिली कि शहर मक्का में उनकी हत्या कर देने की साजिश हो रही है। यही कारण था कि साहब ने मक्का छोड़ कर यस्रिब (मदीना) प्रवास कर गए। इसी प्रवास को हिजरत के नाम से जाना जाता है। इस प्रवास के दौरान उनके साथ उनके बेहद करीबी माने जाने वाले, जो बाद में खलीफा नियुक्त किए गए, सहाबी अबू बक्र भी थे।
इससे पहले मुसलमानों का पहला प्रवास इथियोपिया के लिए भी हुआ है। कुछ मुस्लिम विद्वान इसे भी हिजरत की संज्ञा देते हैं। यह घटना सन् 613 के आस-पास की बतायी जाती है। हजरत मोहम्मद साहब ने अपने अनुयाइयों से कहा कि मक्का के लोग मुसलमानों को सताने लगे हैं, मक्का में दिन दूभर हो गये हैं, इसलिये इथियोपिया के नेगस, जो ईसाई धर्म के मानने वाले हैं और एक ईश्वर में विश्वास करते हैं, वहां चले जाएं।
मोहम्मद साहब के कहने पर कुछ सहाबा यानी मोहम्मद के अनुयायी वहां भी गए। इसे भी हिजरत कहा जाता है लेकिन इसके अलावा अन्य प्रवास को वह मान्यता नहीं मिली जो इन दो प्रवासों को मिली है। सच पूछिए तो इन्हीं दो प्रवासों को हिजरत कहा जाता है।
इन दिनों इस्लामिक कट्टरपंथी आतंकवादी समूह भारत और दक्षिण एशिया के कुछ मुल्कों में इसी पवित्र प्रवास को लेकर एक नया प्रचार अभियान चला रखा है। उनका कहना है कि भारत या अन्य देशों से पलायन कर आईएसआईएस लड़ाकाओं का सहयोग करने गए युवा हिजरत कर धर्म का काम करने जाते हैं। इसे इस्लाम को बदनाम करने की नई साजिश के तौर पर देखा जाना चाहिए।
हिजरत का वाकया इस्लामिक इतिहास का बेहद महत्वपूर्ण भाग माना जाता है। कट्टरपंथियों के द्वारा किया जा रहा प्रचार मोहम्मद का भी अपमान है। इस्लामिक विद्वानों का मानना है कि कुछ सिरफिरे युवाओं का समूह, व्यक्तिगत स्वार्थ के लिए या फिर इस्लाम की गलत व्याख्या कर प्रचारित करने वालों की साजिश का शिकार हो रहे हैं। इसे साहब के हिजरत से तुलना करना इस्लामिक अवधारणा के खिलाफ है।
इस्लाम के अंतिम पैगंबर हजरत मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम द्वारा हिजरत एक ऐसी घटना थी, जिसने इस्लामिक नैतिकता की नींव पड़ी। चुनांचे, इस्लाम में हिजरत एक बहुत बड़ी कुर्बानी और कार्य माना जाता है, जिसे इस्लाम के खातिर यानी मुसलमानों द्वारा अंजाम दिया जाता है। हिजरत अलाह के लिए अपने घर या स्थान से दूसरे स्थान या जगह पर किए गए प्रवास को कहा जाता है।
वैसे तो इसके संदर्भ और कारण भिन्न-भिन्न हैं, किन्तु इसे बड़ी गहराई और बारीकी से समझने की जरूरत है। हजरत मोहम्मद साहब के जीवन काल में किया गया हिजरत परिस्थितिजन्य है या हालात की वजह से है। जिसे मुश्किन-ए-मक्का यानी मक्का में रहने वाले गैर मुसलमानों द्वारा किए गए अत्याचार और पैदा की गयी अड़चनों के कारण अंजाम दिया गया।
हजरत मोहम्मद साहब ने खुद प्रवास नहीं किया बल्कि उन्हें ऐसा करने के लिए मजबूर किया गया क्योंकि उनपर इस्लाम को बचाने की जिम्मेदारी थी। अधिकारिक इस्लामिक सिद्धांतों और शिक्षाओं के अनुसार हिजरत की अवधारणा किसी पर भी लागू नहीं होती। जो सिरिया या इराक में आईएसआईएस में शामिल होने के लिए गए थे, उन्हें यह महसूस होना चाहिए कि ऐसा करने से उन्हें किसी प्रकार की हिजरत की प्रक्रिया नहीं की बल्कि यह उनके द्वारा किया गया बहुत बड़ा पाप है। प्रवास करने के बाद उन्होंने अनेकों मासूम लोगों की हत्याएं की, जिसकी इस्लाम में सख्त मनाही है।
कुरान की आयत 4:97 यह साफ-साफ कहता है, ‘‘उन लोगों को जो अत्याचार से ग्रस्त हैं और लाचार हैं, अपने रहने के स्थानों और घरों से शांतिपूर्ण और खुशहाल जगह पर प्रवास करने के लिए प्रेरित करती है, जहां जाकर वे सम्मानपूर्वक और सही ढंग से अपना जीवन यापन कर सके।’’ आधुनिक परिभाषा में इस प्रक्रिया को वैश्वीकरण कहा जा सकता है। लोग अपने देश से दूसरे देशों में जीवनयापन, खुशहाली, शांति और बेहतर सुविधओं के लिए प्रवास करते हैं।
इस तरह आजीविका की खोज और बेहतर जीवन के लिए एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाने की इजाजत तो इस्लाम देता है लेकिन किसी को नाहक कत्ल करने, आतंक मचाने और अत्याचार करने के लिए प्रवास की इजाजत बिल्कुल नहीं है। दूसरी तरफ ऐसे लोग भी हैं, जो अपने शांतिपूर्ण देश से जीहाद और इस्लाम की सुरक्षा के नाम पर प्रवास करते हैं। ऐसे लोग उन लोगों में शामिल होते हैं जो मासूमों की हत्या करते हैं। इस तरह वे अपने इस प्रवास को हिजतर की संज्ञा देते हैं और मोहम्मद साहब द्वारा किए गए धार्मिक प्रवास से जोड़ते हैं, जो धार्मिक दृष्टि से पूरी तरह गलत है।
जहां तक भारतीय मुसलमानों का सवाल है यह गौरतलब है कि बटवाड़े के समय में उनके पास पाकिस्तान जाने के अलावा कोई और विकल्प नहीं था। फिर भी उनके पुरखों ने हिन्दुस्तान में ही रहना बेहतर समझा क्योंकि वे ऐसा मानते थे कि उनका धर्म, उनकी संस्कृति, उनकी नस्ल, उनका घर, उनकी जमीन और उनकी आजीविका यहां पूरी तरह से सुरक्षित है।
वर्तमान परिस्थिति में इस्लाम की रौशनी में भारतीय मुसलमानों को कट्टरवादी समूहों और लोगों में शामिल होने के लिए प्रवास करने की कोई आवश्यकता नहीं है क्योंकि ये सभी इस्लाम की रक्षा करने का झूठा दावा करते हैं। ये आतंकवादी इसे जीहाद के नाम पर किए गए प्रवास कहते हैं, जिसका सही मायनों में हिजरत से कोई संबंध नहीं है।
बाता दें कि हथियारों के साथ जीहाद की घोषणा कोई इस्लामिक राष्ट्र के द्वारा ही संभव है। आतंकवादियों का कोई समूह इसकी घोषणा नहीं कर सकता है। जीहाद की घोषणा एक प्रक्रिया के तहत की जाती है। इस तरह इस्लाम में हिजरत का अर्थ भिन्न है और जो सिर्फ सातवीं शताब्दी में ही प्रासंगिक था। समय के साथ ही तथ्यों के अर्थ भी बदल जाते हैं।
इसलिए, सभी भारतीय मुसलमानों को हिजरत और जेहाद के अर्थ को अपने तर्क और बुद्धि के आधार पर समझना चाहिए, ताकि वे अपने समुदाय को खुशहाल और सुरक्षित बना सकें। साथ ही इस तरह वे सिरफिरे आतंकवादियों से अपनी मातृभूमि की रक्षा कर सकते हैं। इस्लाम में साफ कहा गया है कि इमान वाले भले सिर अल्लाह के समक्ष झुकाएं लेकिन अपनी मातृभूमि की सुरक्षा उनकी जिम्मेवारी है।