वोट चोरी बहुत संगीन मसला है। यह आरोप लगाने वाले, इसका जवाब देने वाले और इसपर चर्चा करने वाले सभी को विशेष सावधानी बरतनी चाहिए, चूंकि यहाँ हमारे चुनावी लोकतंत्र की न्यूनतम और पवित्र कसौटी दांव पर है। आरोप लगाने वालों की जिम्मेदारी है कि वो हल्के आरोप ना लगायें, आरोप को सार्वजनिक करने से पहले प्रमाण की ठोक-बजा कर जांच कर लें।
जवाब देने वाले की जिम्मेदारी है कि वो सिर्फ आरोपों का खंडन ना करें बल्कि दूध का दूध पानी का पानी कर दिखायें। इस मामले में किसी के मन में शक की कोई गुंजाइश ना छोड़ें। आरोप लगाने वालों और जवाब देने वालों से इतर हम लोग जो इसपर चर्चा करते हैं उनकी जिम्मेदारी बनती है कि हम इसे एक दंगल के दर्शक की तरह ना देखें। हमारी राजनीतिक प्रतिबद्धता जो भी हो, हम दोनों पक्षों से प्रमाण मांगे, हर प्रमाण की कड़ाई से जांच करें।
वोट चोरी के आरोप नए नहीं हैं। हालांकि हमारे यहाँ चुनाव के परिणाम को सर माथे लगाकर उसे स्वीकार करने की परिपाटी है, फिर भी कई बार चुनाव हारी हुई पार्टी या नेता ने वोट चोरी के आरोप लगाए हैं। अमूमन ऐसे आरोप के पीछे कोई ठोस प्रमाण नहीं होता था। या फिर एकाध जगह गड़बड़ी के सबूत से भी यह साबित नहीं होता था कि पूरे चुनाव में धांधली हुई। कुछ दिन में आरोप लगाने वाला भी उसे भूल जाता था और अगले चुनाव की तैयारी शुरू कर देता था।
कभी-कभार कुछ चुनावों के बारे में वोट चोरी के बहुत संगीन आरोप लगे हैं और उन चुनावों की विश्वसनीयता शक के घेर में रही है। मसलन, 1972 में पश्चिम बंगाल, 1983 में असम, विशेषतः 1987 और उससे पहले भी कई चुनाव में जम्मू और कश्मीर और 1992 में पंजाब में हुए विधानसभा चुनाव को जनादेश की अभिव्यक्ति मानना कठिन होगा। लेकिन यह सब मामले एक राज्य की विशिष्ट परिस्थिति से पैदा हुए थे।
इस लिहाज से हाल ही में वोट चोरी के सवाल पर छिड़ी राष्ट्रीय चर्चा पुराने आरोपों-प्रत्यारोपों से अलग है। पहला, यह आरोप कोई एक व्यक्ति नहीं, संसद में नेता विपक्ष और उसके साथ राष्ट्रीय विपक्ष का प्रमुख गठबंधन लगा रहा है। दूसरा, यह आरोप सिर्फ राजनीतिक बयानबाजी तक सीमित नहीं हैं। कम से कम कुछ आरोपकर्ताओं ने भारी-भरकम प्रमाण दिए हैं, जिन्हें पहली नज़र में ख़ारिज नहीं किया जा सकता।
तीसरा, अब यह आरोप किसी एक राज्य, किसी एक विशेष परिस्थिति तक सीमित नहीं हैं। इस बार वोट चोरी के आरोप लोक सभा चुनाव को ही शक के घेरे में खड़ा करते हैं। चौथा, इन आरोपों की निष्पक्ष और भरोसेमंद जांच करवाने की बजाय चुनाव आयोग कठिन सवाल पूछने वालों पर पलटवार कर रहा है, सच पर पर्दा डालने की बेतुकी दलीलें गढ़ रहा है। चुनाव आयोग का रवैया जनमानस के संदेह को विश्वास में बदलता दिख रहा है।
लेकिन इतने भर से वोट चोरी के आरोप साबित नहीं हो जाते। चुनाव आयोग भले ही ना करे, हमें हर आरोप को प्रमाण की कसौटी पर कसना होगा। कांग्रेस का कहना सही है कि महाराष्ट्र में लोकसभा और विधानसभा चुनाव के बीच 57 लाख वोटों का अभूतपूर्व बदलाव (48 लाख का जुड़ाव और 9 लाख की कटौती) शक पैदा करने के लिए पर्याप्त है। लेकिन उसे बीजेपी की अप्रत्याशित जीत से जोड़ने के पक्के सबूत अभी मिलने बाक़ी हैं।
महाराष्ट्र के शेतकरी कामगार पक्ष के उम्मीदवार बलराम दत्तात्रेय पाटिल द्वारा पनवेल विधान सभा क्षेत्र में 85,211 फ़र्ज़ी वोटर होने का प्रमाण और भी गंभीर है चूँकि उन्होंने यह सब प्रमाण चुनाव होने से पहले ही चुनाव आयोग को दे दिए थे। इसी तरह उत्तर प्रदेश के कुंदरकी विधान सभा क्षेत्र में 2024 में हुए उपचुनाव में हुई धांधली के पुख्ता प्रमाण हैं। लोकसभा चुनाव के बाद मुस्लिम बाहुल्य बूथों पर बड़े पैमाने पर वोट कटे और वहाँ मतदान भी अजीब तरीके से घटा। अन्य बूथों पर वोट और मतदान दोनों बढ़े। इसके चलते उस उपचुनाव में बीजेपी को अभूतपूर्व जीत हासिल हुई। लेकिन इतने पक्के सबूत प्रदेश या देश के स्तर पर नहीं मिलते।
राहुल गांधी द्वारा बंगलुरु के महादेवपुरा में वोटर लिस्ट में धांधली के आरोप ज़्यादा संगीन और ज़्यादा पुख्ता हैं। वोटर लिस्ट में आम तौर पर बहुत गड़बड़ियाँ होती हैं, लेकिन एक विधानसभा क्षेत्र में एक लाख से अधिक संदेहास्पद वोटरों का होना यह शक पैदा करता है की इसके पीछे एक सुनियोजित फर्जीवाड़ा था। चुनाव आयोग द्वारा पलट कर राहुल गांधी से हलफ़नामे की माँग करना बदनीयती का इशारा करता है, ख़ासतौर पर तब जबकि पहले समाजवादी पार्टी द्वारा हलफनामा देने के बावजूद कोई कार्यवाही नहीं हुई।
बेशक उस चुनाव में बीजेपी को फ़ायदा हुआ, लेकिन अभी हमें यह पता नहीं कि इस धांधली के पीछे कौन था और वोटर लिस्ट के खेल से बीजेपी को कितना फ़ायदा हुआ। राहुल गांधी के जवाब में अनुराग ठाकुर के खुलासे की राजनीतिक मंशा जो भी हो, उनके खुलासे ने भी इसी शक को बल दिया है कि वोटर लिस्ट पाक-साफ़ नहीं हैं और यह मामला किसी एक राज्य तक सीमित नहीं है। बिहार में गहन पुनरीक्षण के बाद प्रकाशित हुई वोटर लिस्ट में बड़े पैमाने की गड़बड़ी भी इसी निष्कर्ष को बल देती है।
यानी कि अगर आप लोकतंत्र में आस्था रखते हैं तो आप वोट चोरी के हालिया आरोपों को नज़रंदाज़ नहीं कर सकते। बेशक इन आरोपों से अभी यह अंतिम निष्कर्ष नहीं निकला जा सकता कि यह किसी एक पार्टी को चुनाव जीतने का खेल था, या कि 2024 के चुनाव का परिणाम फ़र्ज़ी था। लेकिन अभी तक पेश किए गए साक्ष्य इस संभावना पर सोचने को मजबूर करते हैं और हमारी चुनावी व्यवस्था की विश्वसनीयता पर बड़ा सवाल खड़ा करते हैं। इन आरोपों की जाँच करने और इसके सच तक पहुँचने की ज़िम्मेदारी आरोप लगाने वालों पर नहीं बल्कि चुनाव आयोग पर है। चूंकि वोटर लिस्ट में हेराफेरी का मतदान पर क्या असर हुआ इसके प्रमाण सिर्फ़ चुनाव आयोग के ताले में बंद हैं।
अब चुनाव आयोग या फिर सुप्रीम कोर्ट या फिर जनता जनार्दन को कुछ करना होगा। वोट चोरी के राजनीतिक दंगल को हम दर्शक की तरह नहीं देख सकते।चूंकि इसमें किसी भी एक पहलवान की विजय में हमारी पराजय है।
अगर सच की तह तक पहुंचे बिना वोट चोरी के आरोप ख़ारिज हो जाते हैं तो लोकतंत्र हारता है। अगर वोट चोरी साबित हो जाए लेकिन कुछ नहीं बदले तो भी लोकतंत्र हारता है।
(योगेंद्र यादव चुनाव विश्लेषक और राजनीतिक चिंतक हैं)