एक कहावत है,”तू कौन…. मैं खामखां”। अमेरिका के मौजूदा राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प पर यह कहावत एकदम सटीक बैठती है। उनकी योग्यता, अंतर्राष्ट्रीय मामलों में उनकी राजनीतिक समझ, उनके गुण-अवगुण,उनके अपने अलग किस्म के राष्ट्रवाद और अमेरिका प्रेम के बारे में पूरी दुनिया जानती है इसलिए उस पर किसी तरह की बहस की कोई गुंजाइश भी नहीं है। वो ऐसे हैं और आगे भी ऐसे ही रहेंगे उसमें किसी तरह के बदलाव की कोई उम्मीद भी नहीं की जानी चाहिए पर इसके साथ ही एक विशेषता उनके व्यक्तित्व में और जुड़ गई है जिस पर ध्यान देने की ख़ास जरूरत है।
ट्रम्प की यह विशेषता उनके अंतर्राष्ट्रीय मध्यस्थ बनने की ख्वाहिश के रूप में साफ़ देखी जा सकती है। डोनाल्ड ट्रम्प ने राष्ट्रपति बनने के बाद दुनिया के कई देशों के साथ यूरोप के भी कुछ देशों को अपनी जिन हरकतों से नाराज किया है उनमें एक यह मध्यस्थता फोबिया भी है। राष्ट्रपति के रूप में कार्यकाल के अंतिम वर्ष में उनकी यह चाहत कुछ ज्यादा जोर मार रही है। ट्रम्प हमेशा इसी इन्तजार में रहते हैं कि दुनिया के किन्हीं दो देशों के बीच किसी तरह का विवाद खड़ा हो और वो तुरंत दोनों पक्षों को मध्यस्थता का प्रस्ताव भेज दें।
पिछले एक साल से कम की अवधि में कम से कम ट्रम्प चार बार तो इस तरह की पहल भारत और पाकिस्तान के बीच तीसरे पक्ष की भूमिका निभाने के सन्दर्भ में कर ही चुके थे, अब भारत और चीन के बीच भी इस तरह की भूमिका निभाने का प्रस्ताव उन्होंने भेज दिया। गनीमत है दोनों देशों ने बहुत ही शालीन तरीके से ट्रम्प का यह प्रस्ताव ठुकरा कर मौजूदा सन्दर्भ में उनके नेतृत्व वाले अमेरिका को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर उसकी हैसियत का अहसास करा दिया है।
हैरानी की बात है कि एक तरफ ट्रम्प का अमेरिका, संयुक्त राष्ट्र संघ के प्रमुख वैश्विक संगठन विश्व स्वास्थ्य संगठन को इस आधार पर किसी भी तरह की वित्तीय मदद करने से इनकार कर देता है क्योंकि उनके अनुसार यह संगठन चीन के हाथों में खेल रहा है, दूसरी तरफ इसी चीन की मदद करने के लिए भारत और चीन के बीच मध्यस्थता की बात भी करने लगता है। डोनाल्ड ट्रम्प के नेतृत्व वाले अमेरिका को इस बात का भी बिलकुल अहसास नहीं है कि दुनिया में अमेरिका की पहचान एक बड़े अन्तर राष्ट्रीय सौदागर के रूप में ही रही है। दुनिया के देशों को आपस में लडवा कर दोनों को ही अपने हथियार बेच कर अमेरिका दुनिया का सबसे धनी देश बना है और इसी धन की बदौलत उसने अब तक दुनिया पर राज किया है। इसी वजह से संयुक्त राष्ट्र संघ और उसके संगठनों पर भी उसकी मजबूत पकड़ रही है।
इधर कई सालों से यह देखने में आ रहा है कि संयुक्त राष्ट्र और उसके अनुषंगी संगठनों को अमेरिका ने आर्थिक मदद करना कम या फिर बंद कर दिया है। यूनेस्को के बाद कई अन्य संगठनों को इस तरह अधबीच अमेरिका ने मदद देनी बंद कर दी है। इसी श्रंखला में अब एक और नाम विश्व स्वास्थ्य संगठन यानी वर्ल्ड हेल्थ आर्गेनाइजेशन (WHO) का भी जुड़ गया है। अगर इसी तारह एक-एक कर संयुक्त राष्ट्र संघ के सभी अनुषंगी संगठनों को अमेरिका की आर्थिक मदद मिलनी बंद हो गई तो ऐसे किसी भी संगठन में उसकी कोई हैसियत ही नहीं रह जायेगी।
यह सिलसिला आगे भी जारी रहा तो एक दिन अमेरिका को संयुक्त राष्ट्र संगठन जैसे उस वैश्विक मंच में भी अपनी दयनीय स्थिति का वास्ता देना पड़ सकता है जिसे कभी अमेरिका की पहल पर ही “लीग ऑफ़ नेशंस” के स्थान पर खड़ा किया गया था। अमेरिका के राष्ट्रपति को इतना भी समझ में नहीं आया कि आज जो भारत चीन को यह सन्देश दे सकता है कि चीन उससे टकराव की बात न करे, आज का भारत हर टकराव का सामना करने की क्षमता रखता है, उसी भारत को अमेरिकी राष्ट्रपति यह सन्देश देने की कोशिश कर रहे हैं कि अमेरिका चीन के साथ हर मुसीबत में भारत का साथ देने को तैयार है इसीलिए उनका देश मध्यस्थता की बात कर रहा है।
बहरहाल भारत ने उनका यह प्रस्ताव ठुकरा कर जाने-अनजाने ही सही अमेरिका, खासकर उसके मौजूदा राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प को यह अहसास करा दिया है कि भारत अंतरराष्ट्रीय परिस्थितियों और अपने आंतरिक सन्दर्भों के चलते वैश्विक मंचों पर अमेरिका का साथ जरूर दे रहा है लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि भारत पाकिस्तान की तरह उसकी हर बात मान लेगा। डोनाल्ड ट्रम्प को मध्यस्थता के मामले में इससे बड़ा झटका नहीं लग सकता। भारत और चीन दोनों द्वारा उसके इस प्रस्ताव को ठुकरा देने के बाद अमेरिका की पूरी दुनिया में भयंकर किरकिरी भी हुई है।