डॉक्टर राम मनोहर लोहिया और उनका सौन्दर्य बोध


धरती का स्पर्श जरूरी होता है, सिर्फ मुहावरों में नही। सचमुच माँ की तरह सहेज लेती है, इसकी गोद में बैठो तो।


शिवा श्रीवास्तव
मत-विमत Updated On :

बहुत से रचनाकारो ने लोहिया के विषय में अपनी अपनी तरह से व्याख्यायित किया है। सब के अपने आयाम और बिन्दु हैं, सबके अपने दृष्टिकोण। डॉक्टर धर्मवीर भारती से उनकी पहली मुलाकात से लेकर जुहू होटल की रेत पर बैठ कर की गई सौन्दर्य की उनकी दृष्टि तक की सारी बातों में एक अलग ही करूणा है, जो मन को सींचती है। यहाँ उन्ही के लेख से लोहिया जी के सौन्दर्य बोध के बारे जो कहा गया है वर्णित है:

उस समय जुहू में न इतने बड़े बड़े होटल थे और न इतनी भीड़ भाड़ हुआ करती थी। केवल एक जुहू होटल था, जहां कुछ पुराने ढंग के लताच्छादित अलग अलग स्युईट थे। बहुत शांत, इस बार वे दिल्ली से चुपचाप सिर्फ आराम करने के लिए आए थे। जुहू होटल से फोन आया कि शाम को आ जाओ। फुरसत लेकर दो घंटे, चार घंटे। काम? कुछ नही सिर्फ रेत पर बैठ कर सूर्यास्त देखेँगे।

उस दिन वे अद्भुत मूड मे थे। पहले कमरे में बैठे और बराबर तीखे मजाकों से हरेक को छेड़ते रहे। फिर चाय का वक्त आया तो उठे और समुद्र तट की ओर जुहू होटल के आँगन में कुर्सियाँ डालकर खुले आसमान तले चाय मँगवाई गई। सूरज ढलने लगा था। बात रामायण मेले से शुरू हुई। अकस्मात वे बोले: “पता नही राम ने कभी सागर पर सूर्यास्त देखा या नही। रामेश्वर तो पूर्वी तट पर था।“

“पर लंका तो द्वीप है, वहाँ तो सूर्यास्त, सूर्योदय दोनों देख सकते होंगे।।“

“जरा घर जाकर वाल्मीकि रामायण देखना और मुझे लिखना की सागर पर सूर्यास्त का वर्णन कहीं है क्या? सुंदरता में कुछ करूणा का पुट होता तभी उद्दात होती है। सूर्योदय में चहल है, वेग है, सूर्यास्त में करुणा है, सौम्यता है, जैसे रस पक गया हो।“ और फिर जो बातें चली कि उनका अंत नहीं। जब सूर्य के गोले का निचला छोर जल क्षितिज को छूने लगा तो वे उठे और नीचे उतर कर सागर की रेत पर बैठ गए।

“धरती का स्पर्श जरूरी होता है, सिर्फ मुहावरों में नही। सचमुच माँ की तरह सहेज लेती है, इसकी गोद में बैठो तो।“ सहसा उनकी आँखों चमक आई-शरारत से बोले: “तुम्हारी कुर्सी तो बहुत ऊंची है डॉक्टर। पर यह रेत उससे ज्यादा ऊंची है, इसे कभी नही भूलोगे तो ठीक काम करते रहोगे। इसे समझता था, तभी जनक, विदेह बनकर बैठता है सिंहासन पर- हमारे राजा जनक इसे भूल गए।“

पर इस छेड़ छाड से वे फिर मुड़ गए राज ऋषि वशिष्ठ और जन मनीषी विश्वामित्र पर, और फिर काले-गोरे पर, रूप सौन्दर्य के बदलते प्रतिमानों पर और फिर सौंदर्यबोध के विराट दायरे में क्या नही आया?- फसल काटती किसान वधू, मशीन के चक्के पर कामगार की पुष्ट बाह की मछलियाँ, पालने की ओर निहारती माँ की आँखें, खजुराहो का शिल्प, कांगड़ा कलम की नायिकाएँ, लाहौर किले, हरिण सावकों की आँखें, द्रौपदी-कृष्ण का साख्य भाव, अवधि लोकगीतों में कंगना और कागा, अजंता गुफाओं के निकट बहती नदी का कटाव, और समुद्र पर घिरता अंधेरा और बात हिमालय और समुद्र के सौन्दर्य की तुलना मे आकर टिक गई।

मैं उन्हें दीघा के समुद्र तट के संस्मरण सुन रहा था और वे चित्रकूट के गिरिवनों और मंदाकिनी के घाटों की…. मैंने दक्षिण नहीं घूमा है। उन्होंने कहा कि इस बार वे दक्षिण जाएंगे तो मुझे अवसर देंगे की उनके साथ जाकर उनकी दृष्टि से पुराने मंदिरों, का स्थापत्य समझ सकूँ..पर फिर वह दिन न आ सका। वे दिल्ली गए, बीमार पड़े, और एक दिन सूर्यास्त का समाचार सारे देश को व्यथित कर गया।

वह अंतिम बार था जब ऐसी शाम बीती थी। समता, स्वातंत्र्य, और सौन्दर्य के त्रिविध आयामों वाला उनका यह व्यक्तित्व, संपूर्णता की सम्पूर्ण भाव से जीने की उमंग वाला वह व्यक्तित्व, अपने साँवलेपन में कभी कभी त्रिभंगी कृष्ण की छवि क्यों मारता था, यह मैं अक्सर सोचा करता हूँ।