
भोपाल कभी तांगों का शहर हुआ करता था। तांगों की रौनक का अपना मजा था। भोपाल स्टेशन (एक मुख्य स्टेशन ही था) पर उतरते ही तांगों का जखीरा देखने को मिलता था। आने वालों के लिए ये आकर्षण का केंद्र भी होते थे। जो दृश्य सामने आता था, तांगे वाले चाबुक लेके तांगे में बैठे होते, कुछ उसी में रात बिताते, कुछ घोड़े खोल कर आराम से लंबे पैर किए सो जाते। स्टेशन पर उतरते ही तांगे वाले सवारी को लपकते थे। जैसे इन दिनों टेक्सी या ऑटो वाले। चाहे तांगे वाले हों या ऑटो-टॅक्सी वाले, इन लोगों का अपने ढंग का एक मनोविज्ञान होता है। वे सवारी के मन को खूब अच्छी तरह पढ़ लेते हैं और उन्ही के मुताबिक बातें शुरू करते हैं।
वैसे सही मायने में देखा जाए तो तांगा प्रदूषण मुक्त वाहन साधन था। उन दिनों तांगे ही साधन हुआ करते थे गंतव्य तक पहुँचने के लिए। बड़ी जददों जहद के बाद सौदा तय होता। और इस तरह के संवाद बड़े आम थे- इतने पैसे नहीं उतने में ले चलो, इतनी सवारी नही बैठ सकती, सामान कितना और कैसे रखे, भैया तुम्हारा तांगा छोटा है, अरे अप्पी आप बैठे तो, मैं मना थोड़े कर रिया हूँ, अरे बाजी आपसे जियादा थोड़े लूँगा, मुंह में पान भरे हुए चालक और फिर उनका बोलना, आपको अच्छा लगे सो डे देना, अरे मियां बैठाओ बाजी को बैठाओ, आराम से अप्पी, बड़ी बी बैठ गई आराम से? चलें? वैसे सवारी देख कर वे अपनी भाषा/बोली को बदल भी लिया करते थे।
फिर शुरू होता छोटा या लंबा सफर। घोड़े की चाल उसके खुरों और उसमें लगी नाल से जो लय बनती वो अद्भुत होती थी। उससे जो संगीत आता था वो मन में खुशी की तरंगें पैदा करता था, एक अलग मस्ती पैदा करता था। संगीत तब और मधुर हो जाता था जब घोड़े के पैर में घुँघरू बंधे हों। घोड़े को सजाने के लिए रंगबिरंगे चुटीले बांध दिए जाते थे, वो इधर उधर न भटकें इसलिए आँखों को दोनों तरफ चमड़े की पट्टियां लगाई जाती हैं। बताया जाता है की घोड़े की आँखों का दृष्टि क्षेत्र 180 डिग्री होता है। चलते समय या दौड़ लगाते समय ये दृष्टि के कारण, बिदक न जाए इसलिए ये चमड़े की पट्टी इसकी आँखों के दोनों तरफ लगा दी जाती हैं, जिससे इसकी दृष्टि सिर्फ 30 डिगरी पर सिमट जाती है।
इनकी प्यास बुझाने को जगह जगह चरही बनाई जाती थी। घोड़े की नाल वो भी काले घोड़े की नाल ज्योतिष में हमेशा ही बहुत महत्व रखती आई है। इसके महत्व को लेकर कई तरह की बातें प्रचलन में हैं। आजादी के पहले से ही तांगों का अस्तित्व है। तांगा नवाबों की शान कही जाती थी और भोपाल नवाबों का शहर तो था ही, इसलिए शहर के तौर तरीके भी नवाबों वाले थे। मेरी माताजी की बहुत यादें भोपाल के तांगों से जुड़ी हैं। कैसे वो और उनकी बहनें, भाभियां तांगों से आया जाया करती थी। क्या क्या वाकिये हुआ करते थे। कैसे घर की लड़कियां परदेदार तांगों से स्कूल कॉलेज जाया करती थी। उन्हें खुले तांगों में जाने की इजाजत नही होती थी।
इसमे भी ‘इक्का’ खास नवाबों के घर की बहु बेटियों और खास व्यक्तियों के लिए उपयोग में लाया जाता था। इसे इक्का इसलिए कहते होंगे की एक और बहुत हुआ तो दो लोग बैठ सकते थे। बहुत खास और गोपनीयता बनाए रखने को इसका इस्तेमाल होता था। फिल्मों में तांगे पर कई खूबसूरत और यादगार गीत फिल्माए हैं, जिनमे से मुझे जो याद आ रहे हैं: जिसको नहीं देखा हमने कभी उसकी जरूरत क्या होगी, ऐ माँ तेरी सूरत से अलग भगवान की सूरत क्या होगी, कोई हसीना जब रूठ जाती है, बंदा परवर थाम लो जिगर, चाँद को क्या मालूम चाहता है उसे कोई चकोर, ऐल्लो जी सनम हम आपके गये।
इसके साथ ही फिल्म शोले में बसंती का तांगा और उसकी धन्नो कौन भूल सकता है? भोपाल गैस त्रासदी(1984) के बाद से तांगे नाम मात्र के ही रह गए। धीरे धीरे विलुप्त ही हो गये। एक कारोबार था जिससे घर पलते थे, जो इस शहर की तहजीब, और सभ्यता भी थी, जाने कब, कहाँ डूब गए? कभी कभार ये नजर आ जाते हैं, जैसे आज मुझे नजर आया। दूर से… इसकी खनक सुन कर मैं खुद को रोक नही पाई।