आज के ही दिन 45 वर्ष पूर्व आधी रात्रि को देश में आपातकाल लगाया गया था। आश्चर्य की बात यह है कि यह सब संविधान और लोकतंत्र बचाने के नाम पर किया जा रहा था। लेकिन यह सब तत्कालीन सरकार का बहाना मात्र था। असल में विपक्ष के उभार से डरी इंदिरा गांधी ने अपनी सत्ता बचाने के लिए देश पर आपातकाल थोपा था। एक झटके में 15 अगस्त 1947 को आधी रात को मिली आजादी पर तानाशाही का पहरा बैठा दिया गया। इस दौरान देश में स्वतंत्रता, नागरिक अधिकार और संवैधानिक प्रावधानों को तोड़ा-मरोड़ा गया। 25 जून 1975 से 21 मार्च 1977 तक का 21 महीने की अवधि तक देश में आपातकाल लागू रहा।
इंदिरा गांधी के सलाहकारों ने विपक्ष के ‘तथाकथित षडयंत्रों’ से निबटने के लिए लोकतंत्र को कुचला था। इन्दिरा गांधी के कहने पर तत्कालीन राष्ट्रपति फ़ख़रुद्दीन अली अहमद ने भी संवैधानिक दायित्यों और कर्तव्यों को भूलकर भारतीय संविधान की धारा-352 के तहत आपातकाल की घोषणा कर दी। स्वतंत्र भारत के इतिहास में यह सबसे विवादास्पद और अलोकतांत्रिक काल था। इस दौरान चुनाव स्थगित हो गए तथा नागरिक अधिकारों को न्यून करने की मनमानी की गई। इंदिरा गांधी के राजनीतिक विरोधियों को गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया गया। प्रेस को प्रतिबंधित कर दिया गया। प्रधानमंत्री के बेटे संजय गांधी के नेतृत्व में बड़े पैमाने पर पुरुष नसबंदी अभियान चलाया गया। लोकनायक जयप्रकाश नारायण (जेपी) ने इसे ‘भारतीय इतिहास की सर्वाधिक काली अवधि’ कहा था।
आज भी जब आपातकाल लगने की बात होती है तो लोग इसके कई कारण बताते हैं। कुछ लोग संजय गांधी और उनके दोस्तों तो कुछ आरएसएस और कम्युनिस्टों की मिलीभगत से इंदिरा गांधी को अपदस्थ करने का षडयंत्र बताते हैं। लेकिन आपातकाल लगने के कारण पूर्ण रूपेण राजनीतिक थे। दरअसल,1969 में सरकार द्वारा लिए गए फैसले जिसमें जुलाई 1969 में बैंकों का राष्ट्रीयकरण व सितम्बर 1970 में राजाओं को मिलने वाला प्रिवी पर्स को बंद करने से उनकी छवि एक प्रगतिशील नेता की बनी। 1971 में बांग्लादेश के निर्माण के बाद देश उनके राजनीतिक और रणनीतिक कौशल का लोहा मानने लगा था। 1971 के आम चुनावों में, “गरीबी हटाओ” का इंदिरा का लोकलुभावन नारा लोगों को इतना पसंद आया कि कांग्रेस को लोकसभा की 518 में 352 सीटें मिलीं।
उस दौर में इंदिरा गांधी राजनीतिक रूप से बहुत शक्तिशाली थीं। सरकार और कांग्रेस पार्टी में इंदिरा गांधी की तूती बोलने लगी। सत्ता और पार्टी को अपने नियंत्रण में लेने के बाद इंदिरा गांधी के इर्द-गिर्द चाटुकारों की एक फौज तैयार हो गयी। अब सत्ता केंद्रीय मंत्रिमंडल की बजाय प्रधानमंत्री सचिवालय (PMO) से संचालित होने लगा। सचिवालय में कुछ चुनिंदा नौकरशाह और आधारहीन नेताओं का बोलबाला हो गया। इंदिरा गांधी ने चतुराई से पार्टी के अंदर अपने प्रतिद्वंदियों को अलग कर दिया। प्रधानमंत्री सचिवालय ने निर्वाचित सदस्यों को एक खतरा के रूप में देखा। पार्टी के विरोधियों को ठिकाने लगाने के बाद इंदिरा की नजर विपक्ष पर जा टिकी। जनता से मिले अपार जन समर्थन के बीच वह अपने दायित्वों को भूल गयीं। प्रचंड बहुमत देने के बाद जनता की उम्मीदें बढ़ गयीं थी। जनता के विरोध को विपक्ष स्वर देने लगा था। जिसमें उनके सलाहकारों को षडयंत्र की बू आई।
इंदिरा गांधी 1971 में रायबरेली के लोकसभा चुनाव जीती थीं। 1975 में उनकी जीत को उनके प्रतिद्वंद्वी राजनरायण ने अदालत में चुनौती दी। भारतीय राजनीति के इतिहास में इस मुकदमे को ‘इंदिरा गांधी बनाम राजनारायण’ के नाम से जाना जाता है। 12 जून 1975 को इलाहाबाद उच्च न्यायालय इंदिरा गांधी को चुनावी कदाचार का दोषी पाया गया था। न्यायमूर्ति जगमोहनलाल सिन्हा ने अपने ऐतिहासिक निर्णय में इंदिरा गांधी की जीत को अवैध करार देते हुए उन्हें 6 वर्ष के लिये चुनाव लड़ने से रोक लगा दी।
इस निर्णय से भारत में एक राजनीतिक संकट खड़ा हो गया। लेकिन 24 जून 1975 को सुप्रीम कोर्ट ने इलाहाबाद हाई कोर्ट के आदेश को बरकरार रखते हुए इंदिरा गांधी को प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बने रहने की इजाजत दे दी। 25 जून 1975 को जयप्रकाश नारायण (जेपी) ने इंदिरा के न चाहते हुए भी इस्तीफा देने तक देश भर में रोज प्रदर्शन करने को कहा। 25 जून 1975 को आपातकाल लागू करने के बाद आकाशवाणी पर प्रसारित अपने संदेश में इंदिरा गांधी ने कहा, “जब से मैंने आम आदमी और देश की महिलाओं के फायदे के लिए कुछ प्रगतिशील क़दम उठाए हैं, तभी से मेरे ख़िलाफ़ गहरी साजिश रची जा रही थी।”
आपातकाल के समय देश में जो राजनीतिक माहौल था कमोबेश आज भी देश उन्हीं परिस्थितियों से गुजर रहा है। संयोग यह है कि जो लोग आपातकाल में लोकतंत्र की रक्षा के लिए जेल गए थे आज वे केंद्र और कई राज्यों की सरकार चला रहे हैं। इंदिरा गांधी और कांग्रेस की सरकार ने तो आपातकाल घोषित किया था लेकिन आज एक तरह से अघोषित आपातकाल है। राजनीतिक-सामाजिक कार्यकर्ताओं को माओवाद-नक्सलवाद और तथाकथित देश विरोधी गतिविधियों में कथित रूप से शामिल होने के नाम पर जेलों में कैद किया गया है। विपक्षी दलों की राज्य सरकारों के भेदभाव आम बात है। सरकार के साथ ही देश की अर्थव्यवस्था खस्ताहाल है।
भारतीय संविधान में तीन तरह के आपातकाल का ज़िक्र है। दरअसल, देश में आंतरिक अशांति को खतरा होने, बाहरी आक्रमण होने अथवा वित्तीय संकट की स्थिति में आपातकाल की घोषणा की जाती है अर्थात हमारे संविधान में तीन तरह के आपातकाल की व्यवस्था की गई है। विषम परिस्थियों में अनुच्छेद 352 के तहत राष्ट्रीय आपात की घोषणा होती है। इसकी घोषणा युद्ध, बाह्य आक्रमण और राष्ट्रीय सुरक्षा के आधार पर की जाती है। आपातकाल के दौरान सरकार के पास तो असीमित अधिकार हो जाते हैं और आम नागरिकों के सारे अधिकार छीन लिए जाते हैं।
किसी राज्य की राजनैतिक और संवैधानिक व्यवस्था विफल हो जाने पर अनुच्छेद-356 के तहत राज्य में राष्ट्रपति आपात स्थिति की घोषणा कर सकते हैं। जब राज्य, केंद्र की कार्यपालिका के किन्हीं निर्देशों का अनुपालन करने में असमर्थ हो जाता है, तो इस स्थिति में ही राष्ट्रपति शासन लागू होता है। इस स्थिति में सिर्फ़ न्यायिक कार्यों को छोड़कर केंद्र सारे राज्य प्रशासन अधिकार अपने हाथों में ले लेती है। कुछ संशोधनों के साथ इसकी अवधि न्यूनतम 2 माह और अधिकतम 3 साल तक हो सकती है।
वित्तीय आपातकाल अनुच्छेद 360 के तहत लागू हो सकता है। लेकिन भारत में अभी तक यह लागू नहीं हुआ है। जब राष्ट्रपति को पूर्ण विश्वास हो जाए कि देश में ऐसा आर्थिक संकट बना हुआ है, जिसके कारण भारत के वित्तीय स्थायित्व या साख को खतरा है। अगर देश में कभी आर्थिक संकट जैसे विषम हालात पैदा होते हैं, सरकार दिवालिया होने के कगार पर आ जाती है, भारत की अर्थव्यवस्था पूरी तरह से ध्वस्त होने की कगार पर आ जाए, तब इस वित्तीय आपात के अनुच्छेद का प्रयोग किया जा सकता है। इस आपात में आम नागरिकों के संपत्ति पर भी देश का अधिकार हो जाएगा।गौरतलब है कि संविधान में वर्णित तीनों आपात उपबंधों में से वित्तीय आपात को छोड़ कर भारत में बाकी दोनों को आजमाया जा चुका है।