दीपों का पर्व और बाल दिवस का विलक्षण संयोग


अपने प्रधानमंत्री काल में आधुनिक भारत के निर्माण के सपने को साकार करने के साथ ही वैश्विक धरातल पर पंचशील के सिद्धांत को अपनाने और गुटनिरपेक्ष आन्दोलन की स्थापना और इसे मजबूत बनाने के सन्दर्भ में भी उन्होंने निर्णायक भूमिका निभाई थी। सबको साथ लेकर चलने और सबके साथ प्रेम व्यवहार करने की उनकी नीति से कुछ नुक्सान भी उनको हुआ था।



इसे एक सुखद संयोग ही कहा जाएगा कि दीपों के पर्व दीपावली के दिन ही देश के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरु के जन्म दिन का भी मिलन हुआ है। इस बार यह त्यौहार 14 नवम्बर को उस दिन संपन्न हुआ जिस दिन (14 नवम्बर 1889 को) आज से 121 साल पहले पंडित नेहरु का हुआ था। स्मरणीय है कि पंडित नेहरु, राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी से उम्र में 20 साल 1 महीना और 12 दिन छोटे थे। गौरतलब है कि महात्मा गाँधी का जन्म 2 अक्टूबर 1869 को हुआ था।

गाँधी और नेहरु ने भारत को अंग्रेजी साम्राज्य से मुक्त कराने के लिए किये गए संग्राम में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। 15 अगस्त 1947 को देश के आजाद होने बाद गाँधी की पहल पर ही जवाहरलाल नेहरु को देश का पहला प्रधानमंत्री बनाया गया था और वो मृत्यु पर्यंत इस पद पर बने रहे थे। पंडित नेहरु का निधन 27 मई 1964 को हुआ था। इस तरह पंडित जवाहरलाल नेहरु 16 साल 9 महीने 11 दिन इस देश के प्रधानमंत्री रहे थे।

स्वाधीनता संग्राम के दिनों से ही नेहरु और सरदार बल्लभ भाई पटेल गांधी के दो विश्वासपात्र सिपहसालार थे उनमें एक प्रधानमंत्री बना तो दूसरे को देश का प्रथम गृह मंत्री बनाया गया था। महात्मा गाँधी देश की आजादी के बाद भी सत्हता से दूर ही रहे थे। नेहरु और पटेल दोस्त भी थे और गाँधी का अनुयायी होने के नाते गुरु भाई भी थे। दोनों के बीच कुछ मुद्दों को लेकर आपस में वैचारिक मतभेद भी थे लेकिन आपस में एक दूसरे से प्यार भी था नेहरु और पटेल में। मतभेद जरूर थे पर मनभेद बिलकुल नहीं था। इस नाते दोनों ही नेता एक दूसरे की इज्जत भी बहुत करते थे ।

दीपावली के त्यौहार पर आज इतिहास की ये बातें इसलिए भी याद आ रही हैं क्योंकि बदले वक़्त में हम अपने अतीत का बहुत कुछ भूल चुके हैं। अतीत का बहुत कुछ भूलने के साथ ही वर्तमान में भी बहुत कुछ बदल चूका है पुराने की जगह नए ने ले ली है। यह परिवर्तन हर रूप में दिखाई देता है। त्यौहार की बात करें तो आज इनका स्वरुप बदल चुका है, मान्यताएं और परम्पराएं बदल चुकी हैं और इसके साथ ही त्यौहार मनाने के तौर- तरीके और विधान भी काफी कुछ बदल चुके हैं।

माना कि बदलाव प्रकृति का नियम है और इसे रोका भी नहीं जा सकता लेकिन बदलाव का मतलब यह भी नहीं होना चाहिए कि हम अतीत के सुन्दर पलों को भी भूल जाएँ या फिर अपनी रूचि और स्वभाव के अनुरूप उनका निरादर करना शुरू कर दें। दुर्भाग्य से अतीत के हमारे नेहरु जैसे नेताओं के साथ आज कुछ वैसा ही हो रहा है। पंडित नेहरु बच्चों से बहुत प्यार करते थे इसीलिए उन्हें देश चाचा नेहरु के नाम से पुकारता था और नेहरु का जन्म दिन बाल दिवस के रूप में मनाने की परंपरा की शुरुआत भी हुई।

जवाहरलाल नेहरु आधुनिक विचारों वाले एक सहज, चिंतनशील और सर्वधर्म समभाव के प्रतीक इंसान थे। उनके व्यक्तित्व के ये गुण न केवल उनके व्यक्तिगत कार्य-व्यवहार में परिलक्षित होते थे बल्कि सार्वजनिक जीवन में भी उनके ये गुण राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय दोनों ही स्तर पर आसानी से देखने को मिल जाते हैं।

अपने प्रधानमंत्री काल में आधुनिक भारत के निर्माण के सपने को साकार करने के साथ ही वैश्विक धरातल पर पंचशील के सिद्धांत को अपनाने और गुटनिरपेक्ष आन्दोलन की स्थापना और इसे मजबूत बनाने के सन्दर्भ में भी उन्होंने निर्णायक भूमिका निभाई थी। सबको साथ लेकर चलने और सबके साथ प्रेम व्यवहार करने की उनकी नीति से कुछ नुक्सान भी उनको हुआ था।

लेकिन व्यापक परिदृश्य में उनकी नीतियों के क्रियान्वयन से समाज, देश और विश्व को लाभ ही हुआ था। पड़ोसी के साथ दोस्ताना सम्बन्ध बनाए रखने की उनकी नीति ने भारतीय उप महाद्वीप में स्थायी शांति स्थापित करने की दिशा में भी उल्लेखनीय योगदान दिया था लेकिन इसी नीति के चलते भारत को चीन से धोखा भी मिला। चीन ने हिंदी-चीनी भाई-भाई का नारा लगाते-लगाते 1962 में भारत पर आक्रमण भी कर दिया था।

इस युद्ध में भारत को हार का सामना करना पड़ा था क्योंकि आजादी के कुछ साल बाद ही स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में वजूद में आया 15 साल की उम्र का भारत इस युद्ध के लिए किसी भी तरह तैयार नहीं था। नेहरु जी चीन से मिले इस धोखे से सदमे का शिकार हो गए थे। दोस्त देश से मिला यह सदमा इतना गहरा था कि दो साल के अन्दर ही नेहरु जी का निधन भी हो गया।

दूरदर्शी नेहरु ने वैज्ञानिक, औद्योगिक, शैक्षिक और खेती-किसानी क्रान्ति के क्षेत्र में क्रान्ति के जरिये देश को मजबूत बनाने में कोई कसर नहीं छोडी थी लेकिन आज हम यह सब भूल से गए हैं। इस बार कोरोना की वजह से न तो दीपावली के त्यौहार में ही और न ही कोई रौनक है और न ही बाल दिवस यानी नेहरु के जन्म दिन को ही हम उस उल्लास से मना पा रहे हैं जिस उल्लास से मनाया जाना चाहिए था।

याद होगा कि हर साल इसी दिन से देश की राजधानी दिल्ली के प्रगति मैदन में एक पखवाड़े तक चलने वाले अंतर्राष्ट्रीय व्यापार मेले की शुरुआत हुआ करती थी लेकिन इस बार कोरोना उस व्यापार मेले को ही खा गया जिसमें दुनिया के सैकड़ों देशों के व्यापारी, उद्यमी अपनी व्यापार कला का प्रदर्शन किया करते थे। इस बार दिल्ली का प्रगति मैदान सूना है। आधुनिक भारत के निर्माता नेहरु को हम वैसे भी भूल गए हैं। उनके निधन के दो-ढाई दशक तक तो उनको याद करने के अवसर भी आते थे लेकिन धीरे-धीरे उनको विस्मृत करने का सिलसिला शुरू हो गया था।

पिछली सदी के अंतिम दशक की शुरुआत में जब सोवियत संघ के विघटन के बाद वैश्विक स्तर पर एक दृवीय व्यवस्था का श्रीगणेश हुआ और उदार अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था ने जन्म लेना शुरू किया तब से नेहरु को भूलने का सिलसिला भी तेज हो गया और इधर इस सदी के दूसरे दशक के उत्तरार्ध में नेहरु को भूलने का यह सिलसिला अपने चरम पर है। नेहरु को विस्मृत करने के चरम का आलम कुछ ऐसा हो गया है कि अब यही देश राजनीतिक रूप में भी उनसे विमुख होता जा रहा है। नेहरु और उनके चिंतन को विस्मृत करने की यह स्थिति वाकई चिंतनीय है।