निजी और सार्वजनिक के बहस के बीच स्त्री


19वीं सदी के पूर्वार्ध में ‘आधुनिकीकरण’ की आवधारणा आई। ब्रिटिश, भारतीय संस्कृति को ‘पिछड़ा’ और ‘बर्बर’ कह रहे थे और खुद को श्रेष्ठ, आधुनिक और सभ्य बता रहे थे। ब्रिटिशों के बढ़ते प्रभुत्व को देखते हुए भारतीय हिंदू पुरुषों को अपनी संस्कृति पर खतरा लगने लगा और अपनी ‘संस्कृति’ बचाए रखने के उद्देश्य से इन लोगों ने समाज-सुधार आंदोलन आरंभ कर दिया और महिला-मुद्दों पर ध्यान आकृष्ट किया।



19वीं-20वीं सदी में भारत में राजनैतिक-स्वतंत्रता और महिलाओं के ‘जीवन स्तर’ में सुधार के लिए संघर्ष चला। इस समय एक ओर राष्ट्र पर ध्यान केंद्रित किया जा रहा था तथा दूसरी ओर लैंगिक आयामों को भी ध्यान में रखा गया। ऐसे तो दोनों ही मुद्दा एक-दूसरे से अलग लगता है पर, इन दोनों मुद्दों में एक किस्म का तारतम्य था। इसे इस रुप में देखा जा सकता है कि महिलाओं को राष्ट्र की प्रतिनिधि के नाम पर लामबंद तो किया जा रहा था पर, राष्ट्रवादी आंदोलनों में इन्हें सक्रिय भागीदारी करने से बेदखल भी कर दिया गया। इसके पीछे एक महत्त्वपूर्ण तर्क यह दिया जाता है कि ‘राष्ट्र’ पुरुषों की संपत्ति है। राष्ट्र और महिला सामाजिक निर्मितियां हैं जिनकी लगातार पुनर्रचना और रक्षा की जाती रही है। अत:, स्पष्ट होता है कि राष्ट्र को एक लैंगिक अवधारणा माना गया है।

19वीं सदी के पूर्वार्ध में ‘आधुनिकीकरण’ की आवधारणा आई। ब्रिटिश, भारतीय संस्कृति को ‘पिछड़ा’ और ‘बर्बर’ कह रहे थे और खुद को श्रेष्ठ, आधुनिक और सभ्य बता रहे थे। ब्रिटिशों के बढ़ते प्रभुत्व को देखते हुए भारतीय हिंदू पुरुषों को अपनी संस्कृति पर खतरा लगने लगा और अपनी ‘संस्कृति’ बचाए रखने के उद्देश्य से इन लोगों ने समाज-सुधार आंदोलन आरंभ कर दिया और महिला-मुद्दों पर ध्यान आकृष्ट किया। इन हिंदू-पुरुषों ने औपनिवेशिक शासन से भिन्न रुख अपनाकर महिला-प्रश्न को अपने लिए निर्धारित एक समस्या के रुप में स्वीकार किया। महिलाओं को एक नए आधुनिक-राष्ट्र के प्रतीक के रुप में माना गया जिसका न केवल प्रतिनिधित्व किया जाना था बल्कि, परंपरा और अतीत के समावेशन के साथ उसकी पुनर्रचना भी की जानी थी।

इस प्रकार, स्पष्ट है कि इस समय के समाज सुधार आंदोलन में जातिगत भेदभाव, परिवार में सत्ता के पितृसत्तावादी रुपों को बनाए रखना, शास्त्र की सत्ता को स्वीकार करना, सामाजिक आचार-व्यवहार में ठोस के बजाए केवल प्रतीकात्मक परिवर्तनों को वरीयता देना इत्यादि मौजूद थे। इस ‘समस्या के रुप में स्वीकार किया। महिलाओं को एक नए आधुनिक-राष्ट्र के प्रतीक के रुप में माना गया जिसका न केवल प्रतिनिधित्व किया जाना था बल्कि, परंपरा और अतीत के समावेशन के साथ उसकी पुनर्रचना भी की जानी थी। इस प्रकार, स्पष्ट है कि इस समय के समाज सुधार आंदोलन में जातिगत भेदभाव, परिवार में सत्ता के पितृसत्तावादी रुपों को बनाए रखना, शास्त्र की सत्ता को स्वीकार करना, सामाजिक आचार-व्यवहार में ठोस के बजाए केवल प्रतीकात्मक परिवर्तनों को वरीयता देना इत्यादि मौजूद थे।

इस ‘नई राष्ट्रवादी राजनीति’ ने भारत के अतीत का महिमामंडन और हर परंपरागत प्रथा का समर्थन करते हुए एक ‘नई स्त्री’ की छवि को गढ़ा। इस नई राष्ट्रवादी राजनीति ने संस्कृति को दो भागों में विभाजित कर दिया-सांसारिक (सार्वजनिक) और आध्यात्मिक (निजी)। भारतीय राष्ट्रवादियों ने भारत में आध्यात्मिक संस्कृति को ही वरीयता दी और तर्क दिया कि यदि पूर्व और पश्चिम की संस्कृति में कोई भेद नहीं रहेगा तो राष्ट्रीय संस्कृति का अस्तित्व ही खतरे में पड़ जाएगा । साथ ही यह भी कहा गया कि आध्यात्मिक क्षेत्र में पूर्व, पश्चिम से श्रेष्ठ है।

यह माना गया कि घर के बाहर का क्षेत्र सार्वजनिक है और घर के अंदर का क्षेत्र निजी है। यह तर्क भी दिया गया कि सार्वजनिक क्षेत्र तो हितों की पूर्ति के लिए एक कपटपूर्ण क्षेत्र है और वहां बुद्धि का महत्व होता है, इसलिए यह क्षेत्र पुरुषों का है। पर घर के अंदर के क्षेत्र के मूल तत्व को इन सांसारिक गतिविधियों से प्रभावित नहीं होना चाहिए। यह भावनाओं को समझने का महत्त्वपूर्ण स्थान है। अत: यह क्षेत्र स्त्रियों का है। इस प्रकार, बड़ी आसानी से इस नई राष्ट्रवादी राजनीति ने महिलाओं का संबंध भावनाओं के साथ जोड़कर इन्हें घर के चारदीवारी के अंदर के क्षेत्र में ही रहने का तर्क दे दिया। 

पुरुषों को एक ओर अपनी संस्कृति (आध्यात्मिक) बचानी थी और दूसरी ओर अपने राष्ट्र को प्रगतिशील दिखाने के लिए अपनी स्त्रियों को आधुनिक बनाने की चिंता थी। पुरुषों के लिए एक और समस्या यह थी कि राष्ट्रीय संस्कृति के अंतः तत्व के आध्यात्मिक सारतत्व को सुरक्षित और प्रबल कैसे बनाया जाए क्योंकि, इनके अनुसार निजी क्षेत्र में पश्चिमी आदर्शों का अनुकरण और अनुकूलन एक आवश्यकता तो है पर, घर के अंदर यही कार्य अपनी पहचान को नष्ट करने के समान है।
  
अत:,यह कहा गया कि शिक्षा, स्त्री के लिए लाभदायक है पर, साथ ही यह भी कहा गया कि ‘प्रतिष्ठित परिवारों’ की स्त्रियां अपनी जाति, धर्म, परिवार और अपने सम्मान का ध्यान रखकर ही पढ़-लिख सकती हैं। स्त्रियों को इस योग्य बनाने पर भी जोर दिया जाने लगा कि वह बाहरी परिस्थितियों के मुताबिक घर चलाने में सक्षम हों। यहां तक कि अगर वह पहनावे, आदतों और खान-पान में आध्यात्मिकता व अनुशासन बनाए रख सकें तो उसे घर के बाहर घूमने-फिरने की भी छूट थी। इस बात पर विशेष ध्यान दिया जाता था कि हिंदू महिलाएं पश्चिमी रंग-ढंग न अपनाएं। इसी वजह से यह कहा जाता था कि अपनी संस्कृति बचाए रखने का दायित्व स्वयं महिलाओं को ही उठाना चाहिए। 

धार्मिक मान्यताओं से जोड़ते हुए बताया गया कि अतीत में स्त्रियों की पूजा ‘देवी’ या ‘माता’ के रुप में की जाती थी। इस प्रकार, स्त्रियों के स्त्रीत्व का महिमामंडन कर दिया गया और राष्ट्र के प्रतीक के रुप में जो स्त्रीत्व की विशेषता बनी थी उसे अब पौराणिक शक्ति से जोड़ते हुए ‘देवी माता’ का रूप दे दिया गया। ‘देवी माता’, स्त्री का ऐसा रूप थी जिस पर घर की चारदीवारी के अंदर रहने का कोई बंधन नहीं था। स्त्री की ‘देवी वाली छवि’ को इतना महिमामंडित कर दिया गया कि बाहरी दुनिया में उसकी यौनिकता का अस्तित्व ही मिट गया।

इस नई राष्ट्रवादी राजनीति ने महिलाओं को एक नई तरह की पितृसत्ता के अधीन कर दिया था। अब मध्यवर्गीय हिंदू महिलाएं खुद को स्वतंत्र और आधुनिक मानने लगीं थी। वह खुद को पश्चिमी स्त्रियों से श्रेष्ठ समझने लगीं। इतना ही नहीं यह उन निम्नवर्गीय हिंदू महिलाओं, जो सांस्कृतिक दृष्टि से स्वतंत्रता के महत्व को समझने में असमर्थ थी, से भी खुद को श्रेष्ठ समझने लगीं। इस समय की कुछ महिलाओं ने यह भी  महसूस किया कि हमारे समाज में महिलाएं दोयम दर्जे पर हैं और उनको उनका अधिकार (पारंपरिक रुप से ही) मिलना आवश्यक है। अत:, ये महिलाएं धर्म और राष्ट्र की रक्षा एवं उसकी शुद्धता बनाए रखने के उद्देश्य से ही सही, आगे आईं और उन्होंने एक नई तरह की पितृसत्तात्मक संरचना के भीतर ही बार-बार समाज में सक्रिय भागीदारी निभाने की कोशिश भी की। 
  
सतही तौर पर देखने में यह लगता है कि वैश्वीकरण के आने के बाद हर क्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी तेजी से बढ़ी है और समाज में पितृसत्तात्मक जकड़न में भी थोड़ी कमी आई है पर, वास्तविकता यह है कि एक खास तरह की रणनीति के जरीये आज भी पितृसत्तात्मक मानसिकता हर क्षेत्र में जड़ जमाए बैठी है और इस वजह से लगातार स्त्रियों को हर क्षेत्र में किसी-न-किसी रूप में अधीनता स्वीकार करना ही पड़ता है और इसी अधीनता के तहत जेंडर के आधार पर लगातार भेदभाव का शिकार होना पड़ता है। 

उदाहरण के तौर पर, घर के भीतर की वस्तुगत संरचना को देखा जा सकता है। जिसमें एक ही घर के भीतर यह तय कर दिया जाता है कि यह खासतौर से स्त्रियों का दायरा है और यह पुरुषों का। जैसे, रसोई या घर के पीछे का हिस्सा स्त्रियों का क्षेत्र माना जाता है और घर के आगे का हिस्सा पुरुषों का क्षेत्र। समय-समय पर पुरुषों को स्त्रियों के क्षेत्र में तो दखल रखने का अधिकार प्राप्त है पर, स्त्रियों को ऐसा कोई अधिकार नहीं है। हालांकि, पिछले कुछ वर्षों से लगातार निजी/सार्वजनिक को लेकर होने वाली बहस एवं संसाधनों की कमी की वजह से इन स्थितियों में कुछ हद तक बदलाव आया भी है फिर भी, आज भी बहुत जगह (खासतौर से उत्तर भारत के ग्रामीण इलाकों में) ऐसी ही स्थिति बनी हुई है। 

महत्त्वपूर्ण सवाल यह है कि जब घर के दायरे में ही महिलाएं हर जगह स्वतंत्र होकर घूम नहीं सकती हैं तो उस दायरे से बाहर निकलना ही एक बड़ी चुनौती है। यदि उनमें बाहर निकलने की साहस है भी और निकल भी गईं तो बाहर निकलकर भी वह निजी क्षेत्र के दबाव से मुक्त नहीं हो पाती हैं। स्त्रियों पर एक तरह से दोहरा-तिहरा बोझ हो जाता है कि निजी क्षेत्र (घरेलू जिम्मेदारियों को) के दायित्व को निभाने के साथ-साथ ही वह सार्वजनिक क्षेत्र (घर से बाहर की जिम्मेदारियों-अर्थात, नौकरी, राजनीति, समाजकार्य इत्यादि) के दायित्व को भी पूरा करें। हालांकि, आज के दौर में आत्मनिर्भर और आर्थिक सहयोगी बनने  के नाम पर अधिकांशतः, स्त्रियां इस चुनौती को सकारात्मक रूप में लेती हैं और दोनों ही दायित्वों को निभाने को तैयार हो जाती हैं। 

(डॉ. आकांक्षा सामाजिक एवं महिला सवालों पर स्वतंत्र लेखन करती हैं।)