
बिहार के सीतामढ़ी जिले में भारत-नेपाल सीमा पर नेपाली पुलिस की फायरिंग गंभीर संकेत है। इस फायरिंग के बाद नेपाल भी भारतीय सीमा पर फायरिंग करने वाले उस क्लब में शामिल हो गया है जिसमें चीन, पाकिस्तान और बांग्लादेश शामिल हैं। बिहार के सीतामढ़ी जिले में नेपाल सीमा पर फायरिंग सामान्य घटना कतई नहीं है। यह फायरिंग नेपाल के हाउस ऑफ रिप्रजेंटेटिव दवारा नेपाल के नए राजनीतिक मानचित्र की मंजूरी के बाद हुई है। भारत- नेपाल सीमा पर इस तरह की हरकत पहले नहीं हुई है। फिर एकाएक नेपाली संसद दवारा राजनीतिक मानचित्र की मंजूरी के बाद नेपाल की तरफ से फायरिंग भारत को क्या संदेश देता है?
शायद इस फायरिंग का एक संदेश यह है कि नेपाल बेशक छोटा देश है, सैन्य मामलों में भारत से काफी कमजोर है, लेकिन अब मनोवैज्ञानिक रुप से भारत से टकराव लेने को तैयार है। दरअसल भारतीय विदेश नीति की इस विफलता पर गंभीर सवाल इसलिए है कि भारत ने एक अनुभवी विदेश सेवा के अधिकारी एस. जयशंकर को भारत का विदेश मंत्री नियुक्त किया है। एस. जयशंकर को विदेश मंत्री नियुक्त किए जाने के पीछे तर्क था कि वे चीन से लेकर अमेरिका तक को साधने की क्षमता रखते है। वे अनुभवी नौकरशाह है। लेकिन लद्दाख सीमा पर जो कुछ हुआ है उससे पता चलता है कि नौकरशाही अनुभवों का कितना बेहतर इस्तेमाल करती है? लेकिन नेपाल को लेकर जो स्थिति पैदा हुई है, उससे साफ हो गया है कि जयशंकर को विदेश मंत्री नियुक्त करना एक बड़ी भूल है।
भारत -नेपाल संबंध में गिरावट भारत के लिए चेतावनी है। आखिर अब नेपाल लिपुलेख, कालापानी का मुद्दा क्यों सक्रियता से उठा रहा है? नेपाल 200 साल बाद क्यों 1816 की सुगौली की संधि के आधार पर इन इलाकों पर अपना दावा ठोक रहा है? कालापानी इलाके में भारत का सैन्य पोस्ट पिछले कई दशकों से है। चीन ने जब तिब्बत पर कब्जा किया था तो नेपाल-चीन सीमा सीमा पर भारत ने कई सैन्य पोस्ट स्थापित किए थे। नेपाल के राजा के आग्रह के बाद ये सैन्य पोस्ट स्थापित किए गए थे। 1969 में नेपाल के राजा महेंद्र के आग्रह पर भारत ने नेपाल की सीमा के अंदर बनाए गए अपने 17 सैन्य पोस्टों को हटा दिया था। लेकिन नेपाल ने जिन सैन्य पोस्टों को हटाने की सूची भारत को दी थी उसमें काला पानी की सैन्य पोस्ट नहीं थी। फिर एकाएक 2015 के बाद नेपाल ने भारत के साथ कालापानी इलाके को लेकर टकराव क्यों शुरू किया है? क्या यह हमारी विदेश नीति की भारी विफलता नहीं है?
नेपाल का नया राजनीतिक मानचित्र और भारतीय सीमा पर नेपाल की फायरिंग ने स्पष्ट कर दिया है कि वर्तमान में नेपाल की बहुसंख्यक हिंदू आबादी की प्राथमिकता भारत के साथ सांस्कृतिक और धार्मिक संबंध नहीं है। नेपाल की सरकार की आर्थिक प्राथमिकता में भी भारत चीन के मुकाबले कमजोर हो रहा है। नेपाली जनता और सरकार की आर्थिक प्राथमकिता मे इस समय चीन महत्वपूर्ण स्थान बनाए हुए है। हालांकि ये बदलाव तब हुए है जब भारत में उस पार्टी की सरकार है जो नेपाल से हमेशा सांस्कृतिक संबंधों को मजबूत करने पर जोर देती रही है।
वैसे नेपाल से भारत के संबंध न तो राजशाही के जमाने में खराब हुए न नेपाली कांग्रेस की लोकतांत्रिक सरकार के जमाने में। वैसे में यह रिसर्च का विषय़ है कि आखिर भाजपा सरकार के कार्यकाल में भारत और नेपाल के संबंध इतनी खराब स्थिति में कैसे पहुंचे? क्या नेपाल से भारत के संबंध इसलिए खराब हुए है कि नेपाल में कम्युनिस्टों की सरकार है और इधर भारत में भाजपा की सरकार है। लेकिन मामला यहीं खत्म नहीं होता। भारत की वर्तमान सरकार से दूरी नेपाली कांग्रेस के नेताओं ने भी बना रखी है। जो हमेशा से भारत समर्थक रहे है। लोकतांत्रिक आंदोलन के दौरान भारत में शरण लेते रहे है।
यह स्पष्ट है कि नेपाल ने अपनी विदेश नीति में एक बड़ा बदलाव ला चुका है। उसका एक कारण दक्षिण एशिया की बदलती जियो-पॉलिटिक्स है। दरअसल टेक्नलॉजी के विकास ने नेपाल और चीन के बीच एक बड़ी भौगोलिक बाधा को पार करना आसान कर दिया है। किसी जमाने मे माओ ने नेपाल राजशाही को भारत से अच्छे संबंध रखने की सलाह दी थी। माओ का तर्क था कि नेपाल और चीन के बीच बड़ी बाधा हिमालय है। वैसे में नेपाल को चीन उतनी मदद नहीं कर सकता है जितनी भारत नेपाल को मदद कर सकता है। माओ ने नेपाल को भारत से अच्छे संबंध बनाए रखने की सलाह दी थी। लेकिन वर्तमान चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग की रणनीति माओ से अलग है। जिनपिंग की नीति आर्थिक विस्तारवाद की है। उधर टेक्नोलॉजी ने हिमालय के बैरियर को तोड़ दिया है।
चीन ने टेक्नलॉजी के दम पर तिब्बत को चीन से जोड़ दिया। तिब्बत के पठार पर रेल लाइन बिछा दी। अब चीन तिब्बत के रास्ते नेपाल सीमा तक रेल लाइन पहुंचाने की स्थिति में आया हुआ है। नेपाल सीमा पर नेपाल के अंदर स्थित रसुआगढी से लेकर काठमांडू तक रेल लाइन बिछाए जाने की तैयारी हो रही है। चीन के इंजीनियर इस एरिया के भूगोल का अध्धयन कर रहे है। चीन ने तिब्बत के शिगास्ते और नेपाल के काठमांडू को रेल लाइन से जोड़ने की योजना बनायी है।
अगर नेपाल तिब्बत से रेल लाइन के जरिए जुड़ गया तो भविष्य में नेपाल की भारतीय सप्लाई लाइन पर निर्भरता खत्म हो जाएगी। दरअसल 2015 में जब भारत- नेपाल सीमा पर आर्थिक नाकेबंदी हुई तो नेपाली लीडरशीप डर गई थी। उसके बाद उन्होंने भविष्य की रणनीति पर तेजी से काम शुरू किया। तिब्बत-नेपाल रेललाइन प्रोजेक्ट पर भी काम तेजी से शुरू हो गया। भारतीय विदेश नीति के लिए जिम्मेवार नौकरशाही और नेताओं ने इसे हल्के में लिया। वे नेपाल को साध नहीं सके। नेपाल को मनाने के बजाए डराने की कोशिश जारी रही।
भारतीय लीडरशीप और नौकरशाही को अभी तक यही लग रहा है कि नेपाल सिर्फ सप्लाई लाइन को लेकर ही नहीं, बल्कि आर्थिक मोर्चे पर भी भारत पर निर्भर है। इसलिए भारत के खिलाफ कोई भी कदम उठाने से नेपाल जरूर डरेगा। चूंकि भारत में नेपाली नागरिकों की अच्छी संख्या है, वैसे में भारत की यह सोच जायज भी है। भारत में कामकाजी नेपाली प्रतिवर्ष हजारों करोड़ रुपये नेपाल भेजते है। विदेशों में काम करने वाले नेपाली प्रति वर्ष नेपाल को 7 से 8 अरब डालर भेजते है, जिसमें अच्छी खासी भारतीय भागीदारी भी है। भारत में कामकाजी नेपालियों की आधिकारिक संख्या 30 से 40 लाख बतायी जाती है। लेकिन भारत में कामकाजी नेपालियों की संख्या इससे कहीं ज्यादा है।
नेपालियों को रोजगार को लेकर नेपाल अब नई रणनीति पर काम कर रहा है। नेपाल भारत पर अपनी आर्थिक निर्भरता कम करने की योजना बना रहा है। नेपाल रोजगार को लेकर चीन की तरफ भी देख रहा है। नेपाल के स्कूलों में मंदारिन भाषा पढ़ायी जा रही है। इसका खर्च चीन उठा रहा है। नेपाल को उम्मीद है कि मंदारिन भाषा सीखने के बाद नेपालियों को चीन की कंपनियों में रोजगार मिल सकेगा। हालांकि चीन का रिकार्ड अलग है। चीन की कंपनियों में रोजगार को लेकर पहली प्राथमिकता चीन के नागरिक है। अफ्रीका से लेकर एशिया तक में कई प्रोजेक्टों का ठेका ले चुकी चीन की कंपनियां इन देशों में चीन से वर्कर लेकर आ रही है। इसका उदाहरण चीन-पाकिस्तान इकनॉमिक कॉरिडोर है। पाकिस्तान के अंदर इस कॉरिडोर से संबंधित प्रोजेक्टों में चीन की कंपनियों की प्राथमिकता में चीनी वर्कर ही है। इससे पाकिस्तान जनता के अंदर खासी नाराजगी है।