गांधी परिवार अकेला पड़ गया है। कांग्रेस में उसकी पकड़ ढीली पड़ चुकी है। वरिष्ठ कांग्रेसियों का तो परिवार से भरोसा डिग चुका है। वे लोग नई राह खोजने निकल पड़े हैं। कोई उन्हें जी-23 के नाम से पुकारता है तो कोई बागी कहता है। कुछ विश्लेषक इसे कांग्रेस में विभाजन के तौर पर भी देख रहे हैं। तो उसे उनका नजरदोष नहीं कहा जा सकता। वह इस कारण क्योंकि विभाजन कांग्रेस का चरित्र रहा है। बस एक बार इतिहास के दोहराव को गांधी जी ने रोका था। ऐसा वे इसलिए कर पाए क्योंकि उनके अंदर रेत से कांग्रेस खड़ा करने का माद्दा था।
लेकिन मौजूदा दौर में ऐसी कूबत कांग्रेस के प्रथम परिवार के पास नहीं है। उनको तो खुद की सीट बचाने के लाले पड़े हैं। अमेठी हार गए। तो कांग्रेस को कैसे खड़ा कर सकते हैं। यह सवाल जनता से ज्यादा कांग्रेस के लोग पूछ रहे हैं और सोनिया गांधी के पुत्रमोह पर भी सवाल खड़ा कर रहे हैं। करने वाले जो लोग है, वे सोनिया गांधी के विश्वस्त सहयोगी रहे हैं। गांधी परिवार की वफादारी की कसमें उन लोगों ने खाई है। इसी कारण उनका सोनिया गांधी और कांग्रेस पर भरोसा था।
उसका एक कारण तो यही था कि सोनिया गांधी सबको लेकर चलने में विश्वास रखती है। वह इसलिए भी क्योंकि वे जानती थी कि राजनीति का यही तकाजा है। लेकिन अब जब बागडोर राहुल गांधी हाथ में है तो वे पार्टी को चलाना नहीं हांकना चाहते हैं। यह उन लोगों को मंजूर नहीं है जिनका पार्टी में दखल हुआ करता था। उसकी वजह खुद राहुल गांधी का नेतृत्व और व्यक्तिव है। उनके नेतृत्व में पार्टी रसातल में जा चुकी है। बात चाहे लोकसभा की हो या फिर विधान सभा कांग्रेस सिमटती जा रही है।
यही कारण है कि क्षेत्रीय दलों के आगे भी कांग्रेस बौनी साबित हो रही है। जिनके बीच वह कभी बड़े भाई की भूमिका में होती थी, वहां छोटे भाई की भूमिका के लिए भी कांग्रेस संघर्ष कर रही है। गुटबाजी अलग चल रही है। उसका बड़ा कारण यही है कि परिवार कमजोर हो गया है। उसके अंदर अब चुनाव जिताने के क्षमता नहीं रही। जो भी चुनाव पार्टी पिछले कुछ सालों में जीती है, उसका कारण क्षेत्रीय नेतृत्व रहा है। पंजाब में सरकार कैप्टन साहब की वजह से बनी। हरियाणा में कांग्रेस अगर अपनी राजनीतिक साख बचा पाई तो वह भूपेन्द्र हुड्डा की वजह से। नहीं तो कांग्रेस की सूबे में दुर्गति हो जाती। होना तय भी था। लेकिन अंतिम समय में सोनिया गांधी ने चतुराई दिखाई और भूपेन्द्र हुड्डा को पार्टी न तोड़ने के लिए मना लिया।
मगर राहुल गांधी के अंदर न तो वैसी राजनीतिक समझ है और न ही चतुराई। अन्यथा जो अनुभवी नेता बागी बने हैं, उन्हें वे अपने साथ मिला लेते। कायदे से जो बगावत पर उतर आए हैं, वे इसलिए नहीं कि उन्हें पद चाहिए बल्कि इसलिए क्योंकि कांग्रेस सिमट रही है। यह बात राहुल गांधी समझ नहीं रहे हैं और वरिष्ठ कांग्रेसियों की बात सुन रहे हैं। जिसकी सुन रहे हैं, वे लोग जमीनी हकीकत से कोसो दूर है। उनको लगता है कि जीतने के लिए सोशल मीडिया की तेजी काफी है। मगर वे जिसके सामने खड़े हैं, वह हर मोर्चे पर कांग्रेस से बहुत आगे है।
इस बात को राहुल गांधी समझने के बजाए भ्रम में फंसे है। वह भ्रम जो उनके सलाहकारों ने गढ़ा है। ऐसा जान पड़ता है कि उनके चारों ओर दस तुगलक लेन का प्रहार बहुत गहरा है। उसे तोड़ पाना गांधी परिवार के वफादारों के लिए भी सहज नहीं है। इस असहजता ने नेतृत्व से कार्यकर्ता को दूर कर दिया है। यह दूरी वैचारिक भी हो गई है। भटकाव भी वैचारिक हो गया है। वह इसलिए कि जो सरकार निजीकरण की अगुवा रही हो और जिसने भारत में निजीकरण के पितामह को 10 साल तक देश का नेतृत्व दिया हो, वह समाजवाद की बात करती है तो वैचारिक भटकाव ही कहा जाएगा।
इसी भटकाव पर दिवगंत शैवाल गुप्त ने 2014 में एक लंबा लेखा लिखा था जो फ्रंटलाइन में छपा था। वे लिखते हैं कि कांग्रेस तय नहीं कर पा रही है कि उसे किस धारा में चलना है। वह धारा जो नेहरू की थी या फिर वह जो डा. मनमोहन सिंह के आने पर बनी है या फिर वह वाम धारा जिसकी ओर सोनिया गांधी का झुकाव है। असल में यह पार्टी द्वंद्व है, वही उसकी समस्या है। वह तय ही नहीं कर पा रही है कि मंदिर या मस्जिद। मंदिर जाती है तो तुष्टीकरण प्रभावित होता है और मस्जिद जाती है तो भाजपा को आरोप लगाने का बहाना मिल जाता है। इसी द्वैध में फंसा गांधी परिवार कांग्रेस के अंदर अपना इकबाल खोता जा रहा है।