गांधीजी 9 सितम्बर 1947 को दिल्ली पहुंचे और इस बार उनका दिल्ली आना अंतिम सफर हुआ। गांधीजी भारत में हिंदुओं और सिक्खों को और पाकिस्तान में मुसलमानों को यह समझाने का भरसक प्रयास कर रहे थे कि उन्हें एक साथ रहना होगा। उनको यकीन था कि वे इसमें सफल होंगे। लेकिन दिल्ली में उन्हें सफलता मिली नहीं। जब वे सारे उपाय करके थक गए तब उन्होंने तय किया कि उन्हें अपना अंतिम अहिंसक अस्त्र इस्तेमाल करना होगा। वह अस्त्र है उपवास।
गांधीजी ने 12 जनवरी की शाम को बिरला मन्दिर में शाम की प्रार्थना में घोषणा की कि वे कल सुबह से अनिश्चित कालीन उपवास करेंगे। यह उपवास तब तक किया जाएगा जब तक उन्हें यह यकीन नहीं हो जाता कि दिल्ली में हिन्दू, सिक्ख व मुसलमान बिना किसी जोर जबरदस्ती के एक साथ प्रेम और भाईचारे से एक साथ रहने को तैयार हैं।
गांधीवादी प्रोफेसर दिलीप सिनीयन कहते हैं कि गांधीजी का तरीका एक साथ रहने की जुबान बनाने के लिए सबसे बेहतर है। वे कहते हैं कि गांधी के जीवन का यह अंतिम उपवास बहुत महत्वपूर्ण है और खेद का विषय है कि भारत के लोग इस उपवास के महत्व को समझते नहीं हैं।
गांधीजी जब 9 सितम्बर को दिल्ली पहुंचे तो लोग यह भूल जाते हैं कि उनका इरादा पाकिस्तान से जबर्दस्ती खदेड़ दिए गए हिन्दू और सिक्खों को पाकिस्तान वापस ले जाने का और पाकिस्तान से उन मुसलमानों को वापस लेकर आने का था जिनको यहां से जबरदस्ती खदेड़ दिया गया था।
गांधीजी ने हिंदुओं और सिक्खों से यह भी कहा कि दिल्ली में जिन मस्जिदों में जबरदस्ती कब्जा कर मूर्तियां रख दी गईं हैं और उन पर तिरंगा फहरा दिया गया है उन्हें खाली करना होगा। गांधीजी का कहना था कि इस प्रकार जब मूर्तियां रख दी जाती हैं तो वे पवित्र नहीं रह जातीं और उनकी पूजा नहीं की जा सकती। आप किसी पवित्र जगह को नष्ट करके स्वयं अपनी पवित्रता को नष्ट कर रहे हैं।
गांधीजी ने कहा कि अब मुझे या तो कुछ करना है या मरना है पर हर हाल में दिल्ली की आग को शांत करना है। उनकी मनःस्थिति क्या थी ये समझने के लिए हमें उनकी मुस्लिम बहुल नोआखाली की अगस्त 1946 की यात्रा को ध्यान रखना होगा जिसमें वे दंगाई मुस्लिमों के बीच जाकर अनशन पर बैठते हैं और उनको कहते हैं कि जब तक यहां शांति नहीं होती मैं यहां से नहीं जाऊंगा। यह मिशन गांधीजी की सबसे बड़ी अग्नि परीक्षा थी जिसमें वे सफल होते हैं।
लेकिन इसी बीच उन्हें बिहार कांग्रेस अध्यक्ष सैयद महमूद का पत्र प्राप्त होता है कि कलकत्ते में मारकाट मची हुई है। वे कलकत्ते की आग बुझाने के लिए कलकत्ता में आमरण अनशन पर बैठ जाते हैं और कलकत्ते में उन्हें व्यापक जनसमर्थन मिलता है , औरतें, स्कूल के बच्चे, अंग्रेज रेजिमेंट के सिपाही तक अपनी बांहों में काली पट्टी बांध लेते हैं कि जब तक बापू खाना नहीं खाएंगे हम भी पट्टी नहीं खोलेंगे।
स्टेट्समैन समाचार पत्र के अंग्रेज संपादक लिखते हैं कि ” गांधीजी का चमत्कार पूरी दुनिया को चकाचोंध कर गया अब तक हम उन्हें मि. गांधी कहते थे पर आज से हम उन्हें महात्मा गांधी कहेंगे।” कलकत्ता के सारे दंगाई उनके पैरों में हथियार डाल देते हैं और कलकत्ता शांत हो जाता है।
इन दोनों मिशनों की सफलता से गांधी दिल्ली में वे आग की लपटों में खुद की देह को दांव पर लगा देते हैं कि या तो वे सफल होंगे या फिर अपनी जान दे देंगे।इसलिए दिल्ली में उन्होंने 13 से 18 जनवरी तक अपने जीवन का अंतिम उपवास किया और अनशन तभी तोड़ा जब सारे संगठनों ने डॉ राजेंद्रप्रसाद के नेतृत्व में लिखित में उनको गारंटी दी कि अब हम शांति से रहेंगे।
गांधीजी ने उपवास समाप्ति पर कहा कि दिली एकता जरूरी है । अगर हमारी सम्वेदना ही खत्म हो गयी तो हम कितना भी अच्छा संविधान बना लें हम एक नहीं रह सकते। उन्होंने अपनी चारपाई के इरगिर्द खड़े सभी नेताओं को कहा कि ध्यान रहे अगर आपने वादा तोड़ा तो मेरी जान आपके सर होगी मैं फिर उपवास पर बैठ जाऊंगा।
गांधीजी ने शपथपत्र देने वाले सभी लोगों से कहा ”यह सोचने से ज्यादा मूर्खतापूर्ण और कुछ नहीं हो सकता कि हिंदुस्तान केवल हिंदुओं के लिए रहे और पाकिस्तान सिर्फ मुसलमानों के लिए रहे। सारे हिंदुस्तान और पाकिस्तान को सुधारना कठिनाई भरा काम है।
मेरी हार्दिक इच्छा सुनने के बाद भी आप चाहें तो मैं अपना अनशन तोड़ दूंगा। लेकिन यदि देश की हालत नहीं सुधरी तो इसका अर्थ यही होगा कि आप लोगों ने जो कुछ कहा है वह मात्र दिखावा है।”
दिल्ली में शांति हो गयी पर 30 जनवरी 1948 को गांधीजी की जान ले ली गयी। आजादी के बाद हमने गांधीजी को भारत में 168 दिन ही जिंदा रहने दिया।