महात्मा गांधी ने रामराज्य का सपना देखा था। उसको साकार करने की जिम्मेदारी पंडित नेहरू के कंधों पर डाली थी। उन्हें पंडित नेहरू पर बड़ा भरोसा था। वे कहा करते थे कि भले ही जवाहर कई मामलों में मुझे से सहमत नहीं रहता, लेकिन मेरे न रहने पर, वह मेरे बताए रास्ते पर ही चलेगा। यह उनका पंडित नेहरू से स्नेह था। शायद इसीलिए उन्होंने सरदार पटेल की बजाए पंडित नेहरू को अपना उत्तराधिकार चुना। कांग्रेस कार्य समिति की असहमति के बाद भी गांधी जी ने उनको प्रधानमंत्री पद का दावेदार बनाया था।
असल में जब अंग्रेज भारत को शासन व्यवस्था सौंपने की तैयार कर रहे थे, उस समय जो कांग्रेस का अध्यक्ष बनता, उसी को देश की कमान मिलती। गांधी जी चाहते थे कि कमान पंडित नेहरू को मिले। इसलिए कांग्रेस कार्य समिति के निर्णय को दरकिनार करते हुए, सरदार पटेल ने गांधी जी के मत का समर्थन किया। उस समय कांग्रेस कार्य समिति सरदार पटेल के साथ खड़ी थी। मगर गांधी जी पंडित नेहरू के साथ। तो सरदार ने एक मिनट की भी देर नहीं और पंडित नेहरू के पक्ष में खड़े हो गए।
इस तरह पंडित नेहरू को देश की कमान मिली। गांधी जी को आशा जगी कि अब पंडित जी उनके सपनों को नया आकाश देगे। लेकिन हुआ उलटा। वे पश्चिम के आकर्षण में डूबे थे। उनकी पढ़ाई-लिखाई भी वही हुई थी। हां, ये जरूर है कि वे आंदोलन के जुझारू सिपाही थे, मगर यह भी सही कि उनकी दृष्टि भारतीय नहीं थी। शायद यही वजह है कि वे हर समस्या का समाधान भारत से बाहर ढूढते थी। इसके विपरीत सरदार पटेल का नजरिया भारतीय था। उनकी अपनी दृष्टि थे। भारत की समस्या का समाधान वे भारतीय परिपेक्ष्य में ही खोजते थे।
इन दोनों के नजरिए का जो अंतर था वह समय के साथ बढ़ता गया। एक ऐसा दौर आया जब सरदार पटेल ने खुद को कैबिनेट से अलग करने का मन बना लिया। गांधीजी को इसकी खबर लगी। उन्होंने सरदार को मिलने के लिए बुलाया। मुलाकात हुई। गांधी जी ने कहा कि पहले हमें लगता था कि तुम दोनों में से किसी एक ही को सरकार में रहना चाहिए। लेकिन जो परिस्थितियां हैं उसमें दोनों को साथ चलना होगा।
सरदार पटेल के लिए यह महात्मा गांधी का अंतिम आदेश साबित हुआ। लाख मतभेद के बाद भी ताउम्र, उन्होंने उस आदेश का पालन किया। लेकिन पंडित जी ने तो अलग राह पकड़ ली। वे पश्चिम से प्रभावित सेकुलर के फेरे में ऐसे पड़े कि उन्हें न तो गांधी जी के सपनों का ख्याल रहा और न ही गांधीवाद का। गांधीजी के जाने के बाद तो पंडित जी पश्चिम की हवा में बहने लगे।
सेकुलर खेमे ने उन्हें ऐसा घेरा कि वे शेख अब्दुल्ला के मुरीद हो गए। उसकी कमियों से वाकिफ होने के बाद भी वे कश्मीर मसले पर सिर्फ उसकी सुनते थे। सरदार पटेल ने उन्हें कई बार आगाह भी किया, पर वे उनकी सुनते कहां थे। उन्हें लगता था कि वे ही सबसे काबिल है। निश्चित तौर पर वे थे भी। उनकी देश-दुनिया को लेकर अपनी एक समझ तो थी ही। लेकिन उस समझ में पश्चिम का बहुत प्रभाव था। इसलिए वे गांधी के आत्मनिर्भर गांव की संकल्पना को नहीं समझ पाए। कोशिश की। लेकिन सामुदायिक विकास के रूसी माॅडल में फंस गए। वह माॅडल लंबे समय तक नहीं चल पाया। वैसे ही जैसे उनके तमाम सहयोगी उनके साथ नहीं चल पाए। समाजवादी और गांधीवादी साथी उनसे अलग हो गए।
गांधी जी के जाने के बाद यही कांग्रेस की नीयत भी थी। बस सरदार के रहने तक वह ठहरा हुआ था क्योंकि संगठन में उनकी सुनी जाती थी। मगर उनके जाने के बाद संगठन और सरकार पर पंडित नेहरू ने कब्जा कर लिया। वे दोनों को अपने हिसाब से हांकने लगे। राजनीति में वंशवाद की आधारशिला उन्होंने ही रखी। हालांकि गांधी जी ने उसका पहला प्रयोग मोतीलाल नेहरू के कहने पर किया था। मगर संस्थागत स्वरूप पंडित जी ने दिया।
यह भारतीय राजनीति में उनके जरिए लाई गई पहली कुरीति नहीं थी। मगर जिन दो घटनाओं ने भारत पर सबसे गहरा असर डाला वह है कश्मीर समस्या और चीन के साथ संघर्ष। यह दोनों ही पंडित नेहरू की अदूरदर्शिता का ही परिणाम है। अन्यथा सरदार पटेल ने तो आगाह किया था। चीन जिस तरह की गतिविधियां के कर रहा था, उसका आकलन सरदार पटेल ने ठीक किया था। उसे पत्र के जरिए पंडित नेहरू को बताया भी था। पर वे नहीं सुने और भारत ने एक बड़े हिस्से को गवा दिया।
इससे अलग कहानी कश्मीर की नहीं है। उसे भारतीय सेना खाली कराने के कगार पर थी। पर पंडित जी वहां भी चूक गए। कुछ राजनीतिक विश्लेषकों का माना है कि अगर गांधी जी 30 जनवरी को परलोक न सिधारे होते तो प्रर्थाना सभा के बाद पंडित नेहरू से मिलते। उसके पहले वे सरदार से बात कर चुके थे। अपनी वसीयत भी लिख चुके थे। उसमें कांग्रेस को भंग करना था। नए दल का गठन करना था। उसके जरिए एक नई व्यवस्था को गढ़ना था जिसमें पंचायत की अहम भूमिका होती। पर गांधी जी की हत्या ने सबकुछ बदल दिया।