
लाल किले की प्राचीर से प्रधानमंत्री नरेंद्र दामोदरदास मोदी का 12वाँ राष्ट्रीय संबोधन संघ-भाजपा सत्ता प्रतिष्ठान के चाल, चरित्र और चेहरे को सत्यनिष्ठा के साथ 21वीं सदी के भारत के सामने रखने की दृष्टि से ‘ऐतिहासिक’ रहा है। करीब दो घंटे के इस संबोधन में मोदी जी ने जहाँ अपनी सरकार की उपलब्धियों का यशोगान किया, वहीं राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) के जन्म शताब्दी वर्ष में इसके चिर स्वप्न को साकार करने की ईमानदार कोशिश भी की। उन्होंने संघ की सौ वर्षीय यात्रा पर प्रकाश डाला और स्वतंत्रता संग्राम में उसकी परोक्ष भूमिका को रेखांकित किया।
सरकार के किसी भी क्षेत्र में दर्ज किए बिना संघ का महिमामंडन क्या दर्शाता है? यह दर्शाता है कि संघ कहीं-न-कहीं स्वतंत्रता आंदोलन में औपचारिक भागीदारी से स्वयं को दूर रखने के अपराधबोध से ग्रस्त है। इससे उबरने के लिए प्रधानमंत्री ने संघ के लिए एक खिड़की खोल दी है। संघ की स्थापना से पहले इसके संस्थापक डॉ. हेडगेवार निश्चित रूप से जेल गए थे, लेकिन तब वे कांग्रेस में थे। संघ की स्थापना के बाद उन्होंने जीवनपर्यंत स्वतंत्रता आंदोलन की ओर मुड़कर नहीं देखा। उनके प्रसिद्ध उत्तराधिकारी माधव सदाशिवराव गोलवलकर उर्फ गुरुजी ने भी खुद को आंदोलन से दूर रखा।
संभवतः संघ के सीने के किसी कोने में यह पश्चाताप सुलगता रहता हो! अतः मोदी जी ने अपनी मातृ संस्था को इस पश्चाताप से मुक्ति दिलाने की जुगत की हो। कुछ क्षणों के लिए मोदी जी प्रधानमंत्री कम और पूर्व स्वयंसेवक के भाव में डूबे हुए प्रतीत हुए। उनके चेहरे से एक नकाब उतरता हुआ भी लगा।
संघ का चेहरा भी अब स्पष्ट हो गया है। अब वह स्वयं को ‘विशुद्ध सांस्कृतिक संगठन’ होने का दावा नहीं कर सकता। वह आर्थिक मुद्दों पर भी चिंतन करना चाहता है। कौन प्रधानमंत्री बने, कौन नहीं, कौन भाजपा अध्यक्ष बने-इस प्रक्रिया में भी उसका हस्तक्षेप होना चाहिए। प्रधानमंत्री के मुख से संघ की प्रशंसा से संघ का भी नकाब उतर गया है।
इसके साथ ही इतिहास में दर्ज स्वतंत्रता संग्राम के चिर-परिचित नायकों के कमतरीकरण के मंसूबे भी उजागर हुए हैं। हैरत तब हुई जब पेट्रोलियम और प्राकृतिक गैस मंत्रालय द्वारा प्रसारित एक विज्ञापन ने भारत के जनमानस को झकझोर दिया। इस विज्ञापन में विनायक दामोदर सावरकर को महात्मा गांधी से ऊपर चित्रित किया गया। इसके बाद स्थान मिला सुभाष चंद्र बोस और शहीद-ए-आजम भगत सिंह को। गोया कि सावरकर का कद फांसी को चूमने वाले भगत सिंह, देश की आजादी के लिए हवाई दुर्घटना में शहीद हुए बोस, और विश्व मानवता के लिए गोडसे की तीन गोलियों को सीने पर झेलने वाले मोहनदास करमचंद गांधी उर्फ महात्मा गांधी से बड़ा है। सवाल छोटे-बड़े का नहीं, बल्कि इतिहास निर्माताओं और उत्सर्ग नायकों को सही परिप्रेक्ष्य में देखने और रखने का है।
निश्चित रूप से सावरकर की पूर्वकालिक क्रांतिकारी जीवन यात्रा सभी के लिए प्रेरक है। 1857 पर लिखी उनकी पुस्तक भारत का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम एक उद्देश्यपरक दस्तावेज है, जिसे सभी को पढ़ना चाहिए। लेकिन देश की मुख्य भूमि में सावरकर की शेष उत्तर-कालापानी जीवन यात्रा पर सवाल उठ रहे हैं, तो उन्हें भी खारिज नहीं किया जा सकता। उन्हें तत्कालीन संदर्भों के परिप्रेक्ष्य में देखा जाना चाहिए। अतः विज्ञापन में सावरकर को गांधी जी से बड़ा दर्शाने की कोशिश पर सवालिया निशान लगता है, जिसे खारिज नहीं किया जा सकता। 15 अगस्त के राष्ट्रीय संबोधन में संघ का महिमामंडन और विज्ञापन का प्रसारण महज संयोग नहीं है। यदि यह मोदी सत्ता प्रतिष्ठान की सुनियोजित रणनीति का हिस्सा है, तो यह आश्चर्यजनक नहीं है; यह बस एक और नकाब का उतरना है।
संघ परिवार को यह मालूम होना चाहिए कि गांधी भौगोलिक और राजनैतिक सरहदों से मुक्त विश्व मानवता के नायक हैं। यह सच्चाई जमीनी है, बौद्धिक नहीं। पिछले कुछ महीनों में अमेरिका और कनाडा के विभिन्न शहरों की यात्रा का अवसर मिला। वहाँ विभिन्न क्षेत्रों के लोगों से मुलाकात हुई, जिनमें घरों में सफाई करने वाली महिलाएँ, प्रवासी, हज्जाम, टैक्सी चालक, मोबाइल विक्रेता, वेटर, स्वास्थ्यकर्मी, मेले-ठेले के आमजन और बुद्धिजीवी शामिल हैं।
कल ही की बात है। कनाडा के एडमॉन्टन में एक पुस्तकालय में सोमालिया की एक हिजाबधारी महिला से मुलाकात हुई। वह दुबई होते हुए प्रवासी के रूप में आई थी। उसने दुबई में काम के दौरान नफीस हिंदुस्तानी सीखी थी। उसका नाम था ज़मज़म, जो मक्का क्षेत्र में स्थित पवित्र कुएँ का नाम है। वह पवित्र गंगा जल से भी परिचित थी और गांधी जी के नाम व कार्यों से वाकिफ थी। पिछले दिनों एडमॉन्टन में ग्रीष्मकालीन मेला लगा था। वहाँ एक स्टाल पर चाय और समोसा बेचने वाला एक पाकिस्तानी व्यक्ति मिला। उसका नाम था फैज़। वह फैज़ अहमद फैज़ और गांधी जी के कारनामों से खूब परिचित था। उसने उनकी प्रसिद्ध नज्म सुनाई: ‘लाजिम है कि हम भी देखेंगे, जब तख्त गिराए जाएँगे, ताज उछाले जाएँगे…’
इसी तरह पिछले महीने बोस्टन के पास एक श्वेत युवक ट्रेनर मिला। सामान्य वार्तालाप में उसने गांधी जी के बारे में कई जानकारियाँ बता दीं, जो उसने स्कूल में पढ़ी थीं। 2014 में मैं परिवार सहित न्यूयॉर्क की एक अश्वेत बस्ती के अपार्टमेंट में रुका था। उसकी मालकिन एक अश्वेत महिला अधिवक्ता थी। उनकी पुस्तक अलमारी में गांधी जी की आत्मकथा सहित कई पुस्तकें थीं। उनके दरवाजे पर गांधी जी का एक प्रसिद्ध कथन झूल रहा था: ‘दुनिया में बदलाव देखने से पहले खुद को बदलो।’
इन दिनों छठे दशक के प्रसिद्ध मानवाधिकार नेता जॉन लेविस की जीवनी पढ़ रहा हूँ। लेविस को मार्टिन लूथर किंग जूनियर के मुख्य अनुयायी के रूप में देखा जाता है। उनकी जीवनी में बीसियों स्थानों पर गांधी जी के कथनों, सत्याग्रह और अवज्ञा आंदोलन को उद्धृत किया गया है। पूर्व राष्ट्रपति बराक हुसैन ओबामा ने भी अपनी आत्मकथा में महात्मा गांधी को कई पन्नों पर आदरपूर्वक याद किया है। उन्होंने लिखा है कि दुनिया के मौजूदा हिंसक माहौल में यदि गांधी होते, तो शांति और अहिंसा का आंदोलन चलाते, जिससे मानवता को राहत मिलती। दक्षिण अफ्रीका के दिवंगत राष्ट्रपति नेल्सन मंडेला भी गांधी जी की बहुमुखी भूमिका को आदर के साथ याद करते हैं। उनकी आत्मकथा लॉन्ग वॉक टू फ्रीडम पढ़ी जानी चाहिए।
आज दुनिया के अधिकांश देशों के बड़े नगरों में गांधी जी की मूर्तियाँ हैं। विदेशों में प्रधानमंत्री मोदी को गांधी मूर्ति के समक्ष शीश नवाना पड़ता है। यदि मोदी जी कभी देश-विदेश में सावरकर की मूर्तियाँ लगवाएँ और घोषणा करके उनके सामने नमन करें, तो उनका असली सियासी चेहरा स्वयं स्पष्ट हो जाएगा।
इतना विवरण देने के पीछे माननीय मोदी की दृष्टि ही है। उन्होंने एक बार कहा था कि इंदिरा गांधी के शासनकाल में महात्मा फिल्म बनने के बाद लोग गांधी को जानने लगे। क्या आठवें दशक में फिल्म के निर्माण के बाद मार्टिन लूथर किंग जूनियर पैदा हुए थे? क्या मंडेला ने फिल्म देखकर रंगभेद के खिलाफ आंदोलन शुरू किया था? क्या छठे दशक में लेविस ने फिल्म देखकर सत्याग्रह या अवज्ञा आंदोलन किया था? ज़मज़म ने वह फिल्म नहीं देखी। भारत में भी बड़ी तादाद में ऐसे लोग मिलेंगे, जिन्होंने रिचर्ड एटेनबरो की महात्मा फिल्म अभी तक नहीं देखी।
दरअसल, संघ परिवार और मोदी सत्ता प्रतिष्ठान की कोशिशें गांधी और नेहरू के कद को कमतर करने की रही हैं। वैसे तो मोदी जी अपने संबोधन में जोशीले भावों-मुद्राओं के साथ कहते हैं कि वे अपने कामों से बड़ी लकीरें खींचने के पक्ष में हैं। लेकिन गांधी और नेहरू को लेकर हीन मनोग्रंथि से मुक्ति नहीं ले पाते। अब उन्हें बोस और भगत सिंह का भूत सताने लगा है। किस दृष्टि से सावरकर का कद बोस और भगत सिंह से बड़ा है? दोनों का विराट जीवन आकाश है और आत्मोत्सर्ग का अमर प्रतीक है।
याद रखें, 19वीं सदी में अंडमान की सेलुलर जेल में बंद शेर अली ने लाट साहब लॉर्ड मेयो को चाकू घोंपकर मार डाला और फांसी पर लटक गए। क्या उनकी शहादत से प्रेरणा नहीं ली जा सकती थी? थोड़ी देर के लिए मान लेते हैं कि सावरकर ‘माफीवीर’ नहीं थे। लेकिन इतना तो पूछा ही जा सकता है कि उन्होंने जलियाँवाला बाग कांड, काकोरी कांड, सविनय अवज्ञा आंदोलन, बिस्मिल-अशफाक की शहादत, लाला लाजपत राय के निधन, भगत सिंह और उनके साथियों की शहादत, चंद्रशेखर आजाद, भारत छोड़ो आंदोलन, और कलकत्ता की सांप्रदायिक हिंसा जैसी घटनाओं के प्रति कैसा रुख अपनाया था? क्या रिहाई के बाद वे फिरंगियों के खिलाफ सड़कों पर उतरे थे? यदि इन सवालों को पूछना मुनासिब नहीं, तो खामोशी रखना भी ‘नकाब’ का उतरना ही कहा जाएगा।
स्वतंत्रता के महान नायकों के हाशियाकरण की रणनीति ‘आत्मघाती’ सिद्ध हो सकती है। इतिहास को पाठ्यक्रमों में निरंकुशता के साथ फिर से लिखवाया जा सकता है, लेकिन दुनियाभर के पुस्तकालयों में अनगिनत पुस्तकें और दस्तावेज मौजूद हैं। कहाँ तक उनका सफाया करेंगे? क्या हिटलर और मुसोलिनी के मानव-विरोधी कारनामों को छुपाया जा सका? क्या स्टालिन द्वारा अपने विरोधियों के दमन की कहानियाँ गुम हो सकीं?
माननीय प्रधानमंत्री ने अपने संबोधन के माध्यम से भारतीय समाज के ध्रुवीकरण का एजेंडा बड़ी बारीकी से चलाया है। इसकी सबसे बड़ी वजह है राहुल गांधी के ‘चुनाव चोर’ विस्फोट से लोगों का ध्यान भटकाना। बेशक, आपकी भाषण कला नायाब है, उसका कोई सानी नहीं। लेकिन उसका तिलिस्म टूट चुका है, रंग फीका पड़ चुका है। अब यह ‘सेल्फ गोल’ अधिक लग रहा है। लोकतांत्रिक और संविधानवादी होने का नकाब उतरता जा रहा है। 2024 में बनारस की जीत भी विवादास्पद बनती जा रही है। भाजपा सांसद अनुराग ठाकुर ने ही ‘सेल्फ गोल’ मारा है। अब निर्वाचित अधिनायकवादी शासन की औपचारिक घोषणा ही आखिरी ‘नकाब’ का उतरना साबित होगी।
देश को वाजपेयी शासन (1998-2004) के दौरान संघ के पूर्व कर्मठ प्रचारक और भाजपा नेता गोविंदाचार्य का प्रसिद्ध वाक्य याद होगा: ‘चाल, चरित्र, चेहरा’। इस वाक्य से तब का सत्ता प्रतिष्ठान विवादों में घिर गया था। आज यह जुमला फिर से लोगों के कानों में गूंजने लगा है। आपको याद दिला दें, कभी आप पूर्व भाजपा सांसद प्रज्ञा ठाकुर से इसलिए नाराज थे, क्योंकि उन्होंने नाथूराम गोडसे का स्तुतिगान किया था। क्या आज भी आप नाराज हैं? सरकारी विज्ञापन में सावरकर का बड़ा आकार दिखाने पर आप किससे नाराज या दुखी होंगे, यह स्पष्ट करें।
मोदी-शाह जोड़ी को याद रखना चाहिए कि हुकूमतें ‘इकबाल’ से चलती हैं, झूठ और फेंकूबाजी से नहीं। इसकी भी एक सीमा होती है। नकाब कब तक चढ़े रह सकते हैं? कब तक संविधान की शपथ खाते रहेंगे? जरा सोचें।
(रामशरण जोशी वरिष्ठ पत्रकार हैं)