ग्राम पंचायत सेल्फ गवर्नमेंट


आर्थिक विकेंद्रीकरण से आत्मनिर्भरता व स्वावलंबन को तथा राजनीतिक विकेंद्रीकरण से सच्चे लोकतंत्र अर्थात स्वराज्य को प्राप्त किया जा सकता है और इन दोनों के लिए बापू के ग्राम स्वराज्य के बुनियादी सिद्धांतों को वर्तमान परिस्थितियों एवं समय की मांग के अनुसार परिष्कृत एवं संवर्धित करते हुए सामूहिक संकल्प के साथ आगे बढ़ाना होगा। निश्चित ही इस अभियान में गांवों की भूमिका सबसे महत्वपूर्ण होगी।



डॉ. चंद्रशेखर प्राण

भारत की राज्य व्यवस्था में जेपी के अनुसार पंचायतों को भी सेल्फ गवर्नमेंट के रूप में सरकार का दर्जा मिला। संविधान सभा गांधी के पंचायत सरकार के जिस सपने को पूरा नहीं कर पाई थी वह…. संशोधन से कमोबेश साकार हुआ। इसी के साथ सिर्फ ग्रामीण क्षेत्र के लिए ही नहीं बल्कि शहरी क्षेत्र के लिए भी नगर पालिकाओं को भी 74वें संविधान संशोधन द्वारा सेल्फ गवर्नमेंट का दर्जा मिला। कुल मिलाकर भारत की राज्य व्यवस्था की पुनर्रचनाका एक सार्थक प्रयास प्रारंभ हो गया। 

यह सही है कि मात्र किसी संवैधानिक प्रावधान से ही लक्ष्य की प्राप्ति नहीं हो जाती। उस प्रावधान को जमीन पर उतरने में समय लगता है।लागू करने वाले प्राधिकारीको भी मानसिक और व्यावहारिक रूप से तैयार होने में समय लगता है तथा जिसके पक्ष में यह प्रावधान हुआ है तदनुरूप उसकी क्षमता और कुशलता का विषय तथा स्वीकृति भी जरूरी होती है, जिसमें एक लंबा समय लगता है। राज्य व्यवस्था की पुनर्रचना केद्वारा प्रावधान की 25 वर्षीय यात्रा में कई कदम आगे तोबढ़ा गया है, लेकिन जहां पहुंचना है वह अभी भी दूर है।जिस राजनीतिक सत्ता के विकेंद्रीकरण का सपना बापू ने देखा था उस तक पहुंचने में अभी कई रुकावटें भी हैं और गतिरोधक भी। 

लेकिन यह चर्चा प्रधानमंत्री के उस कथन से जिसमें ‘आत्मनिर्भरता और लोकतंत्र की मजबूती को आज की तारीख में सबसे महत्वपूर्ण कदम बताया गया है, यदि उस परिप्रेक्ष्य में देखें तो यह समय की मांग और राष्ट्र की आवश्यकता के रूप में एक बार फिर से चिन्हित हुआ है। अतः जिस धैर्य और संयम के साथ एकजुट होकर पूरी सामर्थ्य से आज कोरोना से देश लड़ रहा है यदि उसी तरह इसकी भी लड़ाई लड़ी जा सके तो निश्चित ही इस यात्रा के अंतिम पड़ाव पर पहुंचा जा सकता है। 

जैसा कि पूर्व में समझा गया है कि आर्थिक विकेंद्रीकरण से आत्मनिर्भरता व स्वावलंबन को तथा राजनीतिक विकेंद्रीकरण से सच्चे लोकतंत्र अर्थात स्वराज्य को प्राप्त किया जा सकता है और इन दोनों के लिए बापू के ग्राम स्वराज्य के बुनियादी सिद्धांतों को वर्तमान परिस्थितियों एवं समय की मांग के अनुसार परिष्कृत एवं संवर्धित करते हुए सामूहिक संकल्प के साथ आगे बढ़ाना होगा। निश्चित ही इस अभियान में गांवों की भूमिका सबसे महत्वपूर्ण होगी। गांव के पुनर्निर्माण से ही इसकी शुरुआत भी होगी और इसकी मजबूत आधारशिला भी तैयार होगी। क्योंकि गांव, ब्लॉक, जिला, राज्य तथा देश सभी स्तरों पर आत्मानिर्भरता आनी है और जैसा कि प्रधानमंत्री ने स्वयं स्वीकारा है कि इसका आधार गांव होगा, अतः शुरुआत यहीं से करनी होगी। इस नाते भी ग्राम स्वराज्य की महत्ता और बढ़ जाती है। 

कुमारप्पा ने स्वयं पूर्ण और संगठित गांव जिसे गांधी ग्राम स्वराज्य का नाम देते थे, उसके निर्माण को अपना पहला ध्येय मानते थे और इसी के माध्यम से देश के विकास को आगे बढ़ाना चाहते थे। उनके शब्दों में “अहिंसक विकास के लिए जिस गांव में जो योजनाएं बनाई जाए वे उस गांव के फायदे की तो होनी ही चाहिए पर साथ ही साथ समूचे देश की बड़ी योजना की विरोधी नहीं होनी चाहिए। कुमारप्पा ने विकास के इस वैकल्पिक प्रारूप के लिए कुछ कार्यक्रमों का भी उल्लेख किया जिसमें कृषि, ग्रामीण उद्योग, सफाई, आरोग्य व भवन, बुनियादी शिक्षा, गांवों का संगठन तथा उसका सांस्कृतिक विकास शामिल थे। 

इसी के साथ उन्होंने इस स्वावलंबी विकास के लिए सावधानी भी बरतने की सलाह दी थी। उनके अनुसार जहां उत्पादन ‘बाजार’की आवश्यकता के अनुसार न होकर ‘समाज’ की आवश्यकता के आधार पर हो। क्योंकि बाजार कृत्रिम मांग पैदा करता है मानव को केंद्र में नहीं रखता है। इस संबंध में उनकी दो और महत्वपूर्ण सलाह थी, पहली यह कि स्थानीय चीज का उपयोग स्थानीय लोगों द्वारा उत्पादन करने में किया जाए और उसका पैसा भी उसी क्षेत्र के कारीगरों के गुजर-बसर के काम आए तो एक ‘कुदरती चक्र’ पूरा होगा। दूसरा कि यदि हमें ‘स्थायी समाज निर्माण’ करना है तों हमें यह भी देखना होगा कि मनुष्य प्रकृति और समाज के साथ कैसा बर्ताव रखे और उसमें कैसे एकात्म भाव प्राप्त करें। 

जयप्रकाश नारायण ने भीइसस्वावलंबी विकास को राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में बड़े ही व्यावहारिक तरीके से प्रस्तुत किया है। उनके अनुसार “इसके लिए उपयुक्त प्रकार के औद्योगीकरण का घनिष्ठ संबंध कृषि से जुड़ना चाहिए ताकि प्रत्येक गांवया कम से कम प्रत्येक लघु ग्राम समूह कृषि औद्योगिक समुदाय के रूप में विकसित हो सके।” यहां जेपी ने ‘कृषि-औद्योगिक’शब्द का प्रयोग केवल कृषि उत्पादनों के प्रसोधन से ही नहीं किया। इसका वेकृषि और उद्योग के समन्वय के रूप में देखते थे। इसके लिए उन्होंने उदाहरण देते हुए स्पष्ट किया था कि कृषि औद्योगिक समुदाय केवल गेहूं और धान,फसल और सब्जी,ऊख और कपासका ही प्रसोधन नहीं करेगा, बल्कि रेडियो, साइकिल के पुर्जे,छोटे यंत्रों,विद्युत सामग्रियों आदि वस्तुओं का,जिनकी आवश्यकता क्षेत्र में हो सकती है,निर्माण भी करेगा। उन्होंने अपने इस सुझाव को नगर और गांव के बीच बढ़ती हुई खाई को भी कम करने तथा नगरीकरण की बुराइयों को घटाने के संदर्भ में भी रेखांकित किया था। । 

कुमारप्पा और जेपी दोनों ने इस आर्थिक स्वावलंबन के लिए सहकारिता को महत्व दिया था। कुमारप्पा देशज (वैकल्पिक) विकास के लिए नई संस्थागत रूप रेखा को सहकारी समितियों के रूप में देखते थे तथा जेपी भी आर्थिक विकेंद्रित ढांचे के सहकारी क्षेत्र की बात करते थे।उनके अनुसार “इस प्रकार का यह क्षेत्र न तो नौकरशाही प्रधान और न शोषण प्रधान होगा। केंद्रित क्षेत्र की अपेक्षा, चाहे वह सार्वजनिक हो या निजी,और अधिक समतामूलक भी होगा।”

पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने राजनीतिक क्षेत्र के साथ आर्थिक एवं सामाजिक क्षेत्र में भी लोकतंत्र की वकालत की है। वे आर्थिक लोकतंत्र के लिए व्यवसाय एवं उपयोग की स्वतंत्रता तथा सामाजिक क्षेत्र के लिए प्रतिष्ठा और अवसर की समानता को लोकतंत्र के रूप में देखते थे। उनका कहना था कि हमें ऐसी अर्थव्यवस्था चाहिए जिसमें व्यक्ति की अपनी प्रेरणा बनी रहे तथा वह मानवता का विकास कर सके। उनके अनुसार “आज की परिस्थिति में यदि किन्हीं दो शब्दों का प्रयोग कर अपनी अर्थव्यवस्था की दिशा के परिवर्तन को बताना हो तों वे हैं विकेन्द्रीकरण और स्वदेशी। बेहतर अर्थव्यवस्था के लिए स्वदेशी की भावना को ठीक से समझ कर उसको सृजन का आधार तथा अवलम्बन बनाने पर वे विशेष रूप से जोर देते थे।

इतना ही नहीं आज जब दुनिया विकास के आर्थिक मानक से आगे सामाजिक और मानव विकास की यात्रा तय करती हुई ‘खुशहाली’ के लिए प्रयत्नशील हो रही है तब संयुक्त राष्ट्र संघ को भी ‘सतत विकास’की ओर विशेष ध्यान देना पड़ रहा है। 2030 तक के लिए ‘सतत विकास’का जो ‘लक्ष्य’तय किया गया है उसमें गांधी जी के आर्थिक विचार को जाने अनजाने काफी हद तक स्वीकार किया गया है। गरीबी के अंत से लेकर भुखमरी की समाप्ति तक कृषि को ही महत्वपूर्ण माना जा रहा है। जिसमें लघु उद्योगों से लेकर लचीली कृषि पद्धति तथा पर्यावरण के अनुकूल प्रोद्योगिकी विकास को प्राथमिकता दी जा रही है। 

समावेशी विकास तथा लाभकारी रोजगार की दृष्टि से स्थानीय संस्कृति और स्थानीय उत्पादों को बढ़ावा देने की बात की जा रही है। प्राकृतिक संसाधनों के बेहतर प्रबंधन तथा प्रभावी उपयोग के साथ रासायनिक पदार्थों के उपयोग को कम करने पर भी विशेष जोर दिया जा रहा है। राजनीतिक एवं आर्थिक व्यवस्था में पारदर्शिता और निर्णय के स्तर पर सहभागिता को सुनिश्चित करने के लिए जवाबदेही संस्थाओं के विकास को प्राथमिकता के स्तर पर लिए जाने का सुझाव दिया गया है। यह सभी तरह के विचार और प्रयत्न कहीं न कहीं ‘गाँधीवादी अर्थव्यवस्था की ही स्वीकृति है।

आने वाले दिनों में जब कोरोना की महामारी से भारत और दुनिया के अन्य देश निजात पाएंगे तब उनके सामने कई तरह की चुनौतियां होंगी और चुनौतियों का सामना करने के लिए समस्या के समाधान अथवा भौतिक विकास के जो तरीके और साधन प्रयोग किए जा रहे थे उनके विकल्प की भी जरूरत पड़ेगी। भारत के संदर्भ में हम जिस आत्मनिर्भरता की बात कर रहे हैं उसमें गांव के पुनर्निर्माण की प्राथमिकता स्वीकार ही की जा चुकी है। ऐसे में ग्राम स्वराज्य ही इसका सबसे बेहतर विकल्प होगा। लेकिन यहां पुनः स्पष्ट करना चाहूंगा की ग्राम स्वराज्य के सिद्धांतों के जो मूल्य हैं, वे तो कमोबेश वही होंगे, लेकिन उन मूल्यों की प्राप्ति हेतु जो ढांचा (रूप) अथवा तरीका तय करना होगा वह देश, काल और परिस्थिति के अनुसार ही होगा। कुमारप्पा, जय प्रकाश, दीनदयाल उपाध्याय आदि ने जो सुझाव दिया है, संभव है उसके स्वरूप में बदलाव करना पड़े, तब इसके लिए सही समझ और यथेष्ट तैयारी की आवश्यकता होगी। अतः बड़े दिल और खुले मन के साथ इसको लेना होगा। 

उपरोक्त तथ्यों के आधार पर निष्कर्ष के रूप में अब तक यही समझ में आया कि गांव समाज के पुनर्जागरण, राज्य सत्ता की पुनर्रचना, तथा गांव के पुनर्निर्माण का संकल्प और कार्य एक साथ लेकर चलना होगा। क्योंकि इन तीनों का अन्योन्याश्रित संबंध है। यह एक दूसरे के पूरक हैं। यह सही है कि आवश्यकता और समय के हिसाब से कभी किसी को प्राथमिकता पर लिया जा सकता है और कभी किसी को। 

जब हम ‘गांव समाज के पुनर्जागरण’की बात करते हैं तो मूलतः भारतीय संस्कृति के सहजीवन और सहअस्तित्व के मूल्यों पर आधारित परस्पर भाईचारे और सहयोग की बात करते हैं। समाज जो ‘संबंधों से ही बनता है, उसी के बेहतर स्वरूप को पुनर्जाग्रत करने की बात है। ‘संबंध’जो लेने और देने की प्रक्रिया पर आधारित होता है,वह लेना देना सिर्फ साधनों का ही नहीं बल्कि भावनाओं और विचारों का भी है। इसके मोटे तौर पर तीन स्वरूप रूप ही सकते हैं। पहला, जिससे जितना लिया जाए उसको उतना दिया जाए, दूसरा, लिया ज्यादा जाए, दिया कम जाए, और तीसरा, लिया कम जाए, दिया ज्यादा जाए। पहला स्वरूप न्याय का है, दूसरा अन्याय और शोषण का और तीसरा त्याग का है। 

इन्हीं तीनों स्वरूपों के आधार पर क्रमशः ‘मनुष्यता, दानवता और साधुता (देवत्व)’ को परिभाषित किया गया है। भारत के गांव समाज की परंपरा में पहला स्वरूप तो सामान्य रूप से मिलता ही था, साथ ही बहुत सारे उदाहरण तीसरे स्वरूप के भी थे। दूसरे स्वरूप के उदाहरण गाहे-बगाहे मिलते थे। लेकिन आज की तारीख में दूसरे स्वरूप की बाढ़ सी आती जा रही है। इसी नाते गांव समाज के पुनर्जागरण की आवश्यकता है। कल्पना करें यदि समाज में पहला और तीसरा स्वरूप हो तो हिंसा, अन्याय, शोषण इसका कहीं स्थान ही नहीं होगा। ग्राम स्वराज्य के सिद्धांतों के सभी आयाम इसी दिशा में समाज को ले जाने के लिए निरूपित किए गए हैं। इन्हीं के बल पर गांधी ‘रामराज्य’की कल्पना करते थे। 

‘राजसत्ता की पुनर्रचना के लिए पंचायत व्यवस्था को सब ने स्वीकारा है। उसको सही अर्थों में विकसित करना ही इसका एकमात्र रास्ता है। 73वें संविधान संशोधन में इस रास्ते को खोला तो जरूर है लेकिन अभी वह बहुत संकरा है। इसके पहले पंडित नेहरू के समय के पंचायती राज में जो कमियां जेपी ने गिनाई थी उससे यह नई पंचायती राज व्यवस्था भी मुक्त नहीं हो पाई है। यह आज भी भारतीय राज्य व्यवस्था की सेल्फ गवर्नमेंट के रूप में तीसरी सरकार नहीं बन पाई है। 

प्रधानमंत्री लोकतंत्र की मजबूती की बात कर रहे हैं वह सत्ता के विकेंद्रीकरण के अंतर्गत जेपी के सहभागी लोकतंत्र के काफी नजदीक है। जेपी पंचायत को प्रभावी लोकतंत्र के रूप में देखते थे। ऐसे में पंचायती राज को बिना सशक्त एवं प्रभावी बनाए, लोकतंत्र को मजबूत नहीं किया जा सकता। भारत की राज्य व्यवस्था की पुनर्रचना का यही मूल उत्स है। 

गांव के पुनर्निर्माण का आधार निश्चय ही आर्थिक व्यवस्था है। ग्राम स्वराज के अंतर्गत आर्थिक विकेंद्रीकरण का जो तरीका बापू द्वारा निर्देशित किया गया है और जिसको कुमारप्पा, जेपी और दीनदयाल जैसे विचारकों ने और स्पष्ट किया है, उसको वर्तमान समय के अनुसार व्यवहार में लाना ही इसके लिए उचित होगा। 

74 वें संविधान संशोधन के माध्यम से शहरी क्षेत्रों के लिए भी सत्ता और आर्थिक विकेंद्रीकरण की शुरुआत की गई है। यह सही है कि लोकतांत्रिक विकेंद्रीकरण की बजाए प्रशासनिक विकेंद्रीकरण का तत्व अधिक है। साथ ही नगरी समाज में परिवार और पड़ोस का सामुदायिक चरित्र काफी कमजोर है। लेकिन इस सबके बावजूद वहां भी संभावनाओं के नए धरातल तैयार होने लगे हैं। देर सवेर वहां का लोक मानस भी इसके लिए तैयार हो सकता है। ऐसे में वहां भी पुनर्निर्माण की यात्रा के शुरू होने में कोई खास रुकावट नहीं आएगी। 

अंग्रेजों की गुलामी से पीड़ित और शोषित गांव के स्वराज्य के रास्ते बापू ने सिर्फ देश की आजादी का ही सपना नहीं देखते थे। बल्कि पूरी दुनिया में पीड़ित मानवता के लिए मुक्ति का मार्ग तलाश रहे थे। आज जब एक बार फिर से विश्व मानवता पर कोरोना की महामारी के रूप में संकट आया है तब शायद भारत के साथ पूरी दुनिया के लिए उससे निजात का यही वैकल्पिक मार्ग होगा।

(डॉ. चंद्रशेखर प्राण तीसरी सरकार अभियान के संस्थापक हैं और ग्राम स्वराज्य की स्थापना के लिए काम कर रहे हैं।)

(समाप्त)