ग्राम स्वराज्य : आत्मनिर्भरता और स्वशासन का विकल्प


महात्मा गांधी ने स्वराज्य को आत्म शासन और आत्म संयम के साथ जोड़ते हुए लोक सम्मत के अनुसार होने वाला शासन कहा है। इसी के विचार को आगे बढ़ाते हुए उन्होंने ग्राम स्वराज्य को व्याख्यायित किया। उनके अनुसार ग्राम स्वराज्य ऐसा पूर्ण प्रजातंत्र होगा जो अपनी महत्व की जरूरतों के लिए अपने पड़ोसी पर भी निर्भर नहीं करेगा और भी बहुतेरी दूसरी जरूरतों के लिए जिसमें दूसरों का सहयोग अनिवार्य होगा वह परस्पर सहयोग से काम लेगा।



डॉ. चंद्रशेखर प्राण 

महात्मा गांधी गांवों की विशेषता से भलीभांति परिचित थे। इसके मूल तत्व को उन्होंने आत्मसात किया था। सत्य और अहिंसा का पूरा दर्शन इसी धरातल पर खड़ा था। भारत की आजादी का अंतिम उत्स ग्राम स्वराज में देख रहे थे। इसी नाते उनकी अंतिम वसीयत में भारत के 7 लाख गांवों की सामाजिक, आर्थिक और नैतिक आजादी के ना मिल पाने की पीड़ा अधिक मुखरित हुई है। 

गांधी ने स्वराज्य को आत्म शासन और आत्म संयम के साथ जोड़ते हुए लोक सम्मत के अनुसार होने वाला शासन कहा है। इसी के विचार को आगे बढ़ाते हुए उन्होंने ग्राम स्वराज्य को व्याख्यायित किया। उनके अनुसार ग्राम स्वराज्य ऐसा पूर्ण प्रजातंत्र होगा जो अपनी महत्व की जरूरतों के लिए अपने पड़ोसी पर भी निर्भर नहीं करेगा और भी बहुतेरी दूसरी जरूरतों के लिए जिसमें दूसरों का सहयोग अनिवार्य होगा वह परस्पर सहयोग से काम लेगा। 

ग्राम स्वराज्य की परिकल्पना भारत की संस्कृति और गांव समाज की उन सारी विशेषताओं को अपने में समाहित करते हुए की गई है जो प्रकृति और मानव के अस्तित्व के लिए सदैव उपयोगी और टिकाऊ हो। भारत ने अपने हजारों वर्षों के इतिहास में अपनी संस्कृति को सिर्फ बचाए ही नहीं रखा बल्कि उसकी जीवंतता व प्रासंगिकता को भी बनाए रखाहै तो यह उसके गांव समाज की ही विशेषता रही है।इसीलिए बापू की घोषणा थी कि अगर गांव नष्ट हो जाएं तो हिंदुस्तान भी नष्ट हो जाएगा। 

गांव को बचाने का एकमात्र मार्ग उन्हें ग्राम स्वराज ही समझ में आया था।इसी नाते उन्होंने ग्राम स्वराज्य का जो चित्र खींचा है उसमें जीवन की समग्र दृष्टि समाहित है। उसमें वे अहिंसा का सबसे महत्वपूर्ण स्थान देते थे। उनके अनुसार अहिंसा की सत्ता ही ग्रामीण समाज का शासन बल होगी। इसी नाते अहिंसा के धरातल पर उन्होंने ग्राम स्वराज्य का चित्र निर्मित किया। 

बापू ने ग्राम स्वराज्य के 12 बुनियादी सिद्धांत बताए हैं। ये सभी किसी व्यक्ति अथवा समाज के भौतिक, मानसिक तथा आर्थिक विकास का सम्यक और समग्र विकास का बहुत ही सार्थक तरीका है। इन 12 बुनियादी सिद्धांतों में सर्वप्रथम ‘मानव की सर्वोच्चता’ को स्वीकार करते हुए उसकी सामर्थ और शक्ति का अच्छे से अच्छा उपयोग करने को प्राथमिकता दी गई है। दूसरे सिद्धांत में ‘श्रम’ की महत्ता को प्रतिष्ठित करते हुए प्रत्येक व्यक्ति को अपनी रोटी के लिए शरीर श्रम करने को अनिवार्य बताया है। यंग इंडिया में उन्होंने बड़े स्पष्ट शब्दों में लिखा है कि ईश्वर ने मनुष्य का निर्माण श्रम द्वारा अपना भोजन प्राप्त करने के लिए किया और कहा कि श्रम किए बिना जो खाते हैं वे चोर हैं। उनके अनुसार मनुष्य को अपनी बुद्धि का उपयोग सेवा के लिए तथा परोपकार के लिए करना चाहिए। 

‘समानता’ भी ग्राम स्वराज का बुनियादी सिद्धांत था। इसके अनुसार प्रत्येक व्यक्ति को अपने विकास और अपने जीवन को सफल बनाने के लिए समान अवसर मिलने चाहिए। सबका सामाजिक दर्जा समान होना चाहिए। समानता के आर्थिक पक्ष की महत्ता की चर्चा करते हुए बापू का मानना था कि इससे पूंजी और मजदूरी के बीच के झगड़ों को हमेंशा के लिए मिटाया जा सकता है। इसी तथ्य पर और अधिक बल देते हुए उन्होंने ‘ट्रस्टीशिप’ की बात कही। 

ग्राम स्वराज्य के चौथे सिद्धांत के रूप में इसके अनुसार धनिक को अपने पड़ोसी से अधिक एक कौड़ी भी रखने का अधिकार नहीं हैं। वे आर्थिक समानता के सिद्धांत को भी अहिंसा के बलबूते ही आगे ले जाने की बात करते हैं। उनका मानना था कि जो व्यक्ति द्रव्य इकट्ठा करने की शक्ति रखता है उसकी चेतना के विस्तार से ही समाज को लाभ मिलेगा और यह कार्य हिंसा द्वारा नहीं अहिंसा द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है। इसका व्यवहारिक तरीका यही होता है कि वह व्यक्ति जितनी मान्य हो सके उतनी अपनी आवश्यकताएं पूरी करने के बाद जो बाकी बचे उसका वह जनता की ओर से ट्रस्टी बन जाए।इससे समाज में बगैर संघर्ष के मूक क्रांति हो सकती है। 

ग्राम स्वराज्य के लिए अहिंसा के इसी भाव को आगे बढ़ाते हुए उन्होंने पांचवें सिद्धांत के रूप में ‘विकेंद्रीकरण’ को स्थान दिया। उनका मानना था कि केन्द्रीकरण कायम रखने के लिए हिंसा अनिवार्य होती है जो कहीं से भी स्वीकार्य नहीं हो सकती। इसीलिए बहुत सारी चीजों का विकेंद्रीकरण करना ही होगा। विकेंद्रीकरण के इस सिद्धांत को व्यवहारिक बनाने के लिए ग्राम स्वराज्य के छठे सिद्धांत के रूप में ‘स्वदेशी’ को स्थापित करते हुए उसे एक सार्वभौम धर्म की संज्ञा दी गई। स्वदेशी की भावना को स्पष्ट करते हुए उनका कहना था कि हमारी वह भावना जो हमें दूर के क्षेत्र को छोड़कर अपने समीपवर्ती क्षेत्र का ही उपयोग और सेवा करना सिखाती है। 

इसे और स्पष्ट करते हुए कहा कि हमारा और आपका यह कर्तव्य होगा कि हम उन बेरोजगार पड़ोसियों को ढूंढें जो हमारी आवश्यकता की वस्तुएं हमें दे सकते हो और यदि वे इन वस्तुओं को बनाना ना जानते हो तो उन्हें हम उसकी प्रक्रिया सिखाएं। उनका मानना था कि ऐसा हो तो भारत का हर एक गांव लगभग एक और स्वयं पूर्ण इकाई बन जाएगा। वास्तव में यही स्वदेशी भाव गांव समाज के आत्मनिर्भर और स्वावलंबी होने का मूल आधार है। इसी नाते ग्राम स्वराज्य के अगले अर्थात सातवें सिद्धांत के रूप में ‘स्वावलंबन’ को लिया गया। स्वावलंबन के इस भाव को सिर्फ जरूरतों की पूर्ति तक सीमित नहीं रखा बल्कि अपनी रक्षा के भी अर्थ में इसे पहचाना गया है। बापू के अनुसार हर एक गांव को अपने पांव पर खड़ा होना होगा-अपनी जरूरतें खुद पूरी कर लेनी होगी ताकि वह अपना कारोबार स्वयं चला सके। यहां तक कि वह सारी दुनिया से अपनी रक्षा स्वयं कर सकें। 

निश्चित रूप से किसी गांव के स्वावलंबी होने की स्थिति तभी आएगी जब वहां परस्पर सहयोग का भाव होगा। इसीलिए ग्राम स्वराज्य के आठवें सिद्धांत के रूप में ‘सहयोग’ को मान्यता दी। ग्राम स्वराज्य के लिए उनका मानना था कि जहां तक संभव होगा गांव के सारे काम सहयोग के आधार पर किए जाएंगे। इसी सहयोग के बल पर ही वे गांव की पुनर्रचना को संभव मानते थे। लोगों के बीच सहयोग की इस परस्पर भावना को वह सहकारिता के रूप में देखते थे। इसे ही सहकारी आंदोलन का मूल तत्व मानते थे। 

बापू ने सहयोग के साथ-साथ असहयोग की ताकत को भी ग्राम स्वराज के लिए पहचाना था। इसीलिए उसका नवां बुनियादी सिद्धांत ‘सत्याग्रह’ था। जिसके साथ असहयोग को भी समाविष्ट किया गया था।इन दोनों को ग्राम स्वराज्य के लिए अहिंसक हथियार के रूप में प्रयोग करने की बात थी। उनके अनुसार सत्याग्रह और असहयोग के शास्त्र के साथ अहिंसा की सत्ता ही ग्रामीण समाज का शासन बल होगी। 

ग्राम स्वराज्य के दसवें, ग्यारहवें और बारहवें सिद्धांत के रूप में क्रमशः ‘सर्वधर्म समानता’, ‘पंचायती राज’ और ‘नई तालीम’ को शामिल किया गया था।बापू का कहना था कि पंचायत हमारा बड़ा पुराना और सुन्दर शब्द है, उसके साथ प्राचीनता की मिठास जुड़ी हुई है। उनके अनुसार पंचायतों के द्वारा भारत के असंख्य ग्राम लोक राज्यों का शासन चलता था,लेकिन ब्रिटिश सरकार ने इन प्राचीन लोक राज्यों का लगभग नाश ही कर डाला। पंचायत को वह अपने ग्राम स्वराज्य का मूल आधार मानते थे।ग्राम स्वराज व्यवस्था के क्रियान्वयन का उसे ही माध्यम बनाना चाहते थे।पंचायती राज पर उन्हें पूराविश्वास था तभी तो कहते थे कि अगर हिंदुस्तान के हर गांव में कभी पंचायती राज कायम हुआ तो मैं अपने इस तस्वीर की सच्चाई साबित कर सकूंगा जिसमें पहला और सबसे आखिरी दोनों बराबर होंगे या यूं कहिए कि ना कोई पहला होगा ना आखरी। 

लेकिन वह यह भी जानते थे कि अंग्रेजी शिक्षा के बलबूते ग्राम स्वराज्य के सपने को साकार नहीं किया जा सकता। इसके लिए गांव के लोगों को सही रूप से शिक्षित करना होगा। अक्षर ज्ञान पर आधारित किताबी अंग्रेजी शिक्षा के विकल्प के रूप में ‘शरीर, मन और आत्मा की उत्तम क्षमताओं के सर्वांगीण विकास’ हेतु नई तालीम को ग्राम स्वराज एक महत्वपूर्ण सिद्धांत तय किया। उनका मानना था कि बुद्धि के शुद्ध विकास के लिए आत्मा और शरीर का विकास साथ-साथ तथा एक सी गति में होना चाहिए। इसीलिए नई तालीम की संरचना की पृष्ठभूमि इस विचारके साथ तैयार की गई कि वर्णमाला तथा वाचन लेखन से शिक्षा का आरंभ करने से बालकों की बुद्धि का विकास कुंठित हो जाता है। जब तक उन्हें इतिहास, भूगोल, जबानी गणित और कताई कला का प्रारंभिक ज्ञान ना हो जाए तब तक उन्हें वर्णमाला नहीं सिखाई जाए। इस बुनियादी तालीम के भी कुछ सिद्धांत गांधी द्वारा प्रतिस्थापित किए गए थे। जिसमें शिक्षा का स्वावलंबी होना।

शिक्षा में हाथ का पूरा-पूरा उपयोग किया जाना, शिक्षा का माध्यम प्रांतीय भाषा में होना, सांप्रदायिक धार्मिक शिक्षा के बजाय बुनियादी नैतिक तालीम देना तथा देश के नागरिक होने के कारण सभी को एक अंतर प्रांतीय भाषा को सीखना शामिल था। इस अंतर प्रांतीय भाषा के रूप मेंउन्होंने उस समय नागरी अथवा उर्दू में लिखी ‘हिंदुस्तानी’ को मान्यता दी थी। 

इस प्रकार बापू द्वारा परिकल्पित ‘ग्राम स्वराज्य’ मनुष्य केंद्रित एक ऐसी व्यवस्था है जिसमें सत्ता और अर्थ दोनों का विकेंद्रीकरण होता है। सत्ता की दृष्टि से गांव संपूर्ण सत्ता भोगने वाला एक विकेंद्रित राजनीतिक घटक है जिसमें प्रत्येकव्यक्ति का सरकार अथवा शासन में सीधा हाथ होगा। अर्थ की दृष्टि से एक ऐसी सरल और सादी व्यवस्था जो शोषण रहित और विकेंद्रित है। यह व्यवस्था स्वेच्छापूर्ण सहयोग के आधार परअपने हर नागरिक को पूरा काम देने का प्रबंध करती है और जीवन की अन्न वस्तु की प्राथमिक तथा अन्य आवश्यकताओं के विषय में स्वावलंबन सिद्ध करने का प्रयत्न करती है। 

ग्राम स्वराज्य के अर्थशास्त्र को लेकर गांधी जी के प्रमुख सहयोगी जे सी कुमारप्पा ने बहुत ही वैज्ञानिक दृष्टि से अपनी राय दी। कुमारप्पा मूलतः चार्टर्ड अकाउंटेंट थे लेकिन बाद में कोलंबिया विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र के शोधार्थी के रूप में अपना प्रबंध लिखा जो यंग इंडिया में धारावाहिक के रूप में प्रकाशित हुआ था। उनकी प्रमुख पुस्तक “ग्राम आंदोलन क्यों”,“भारत में ग्राम केंद्रित अर्थव्यवस्था के लिए दलील” नाम से 1926 में लिखी गई। यह एक तरह से गांधी जी के सामाजिक आर्थिक विचारों का घोषणा पत्र है। उनके अनुसार गांधीवादी अर्थव्यवस्था नैतिक और आध्यात्मिक शक्ति पर आधारित है। 

यह मूलत अहिंसा पर आधारित होने के कारण व्यक्ति की स्वतंत्रता, सृजनशीलता तथा दैनिक कार्य में उसके स्वस्थ संबंध को महत्वपूर्ण मानता है। कुमारप्पा के अनुसार किसी के दैनिक काम में ही उसके सभी आदर्श, सिद्धांत और धर्म प्रकट हो जाते हैं।यदि उचित रीति पर काम किया जाए तो वही काम मनुष्य के व्यक्तित्व के विकास का रूप बन जाता है।विकेंद्रित अर्थव्यवस्था की वकालत करते हुए उनकी प्रतिस्थापना थी कि चीजों के बनाने की पद्धति में केंद्रीयकरण के अंतर्गत जो श्रम विभाजन होता है,जोकि स्टैंडर्ड माल तैयार करने के लिए आवश्यक है, उसमें व्यक्तिगत कारीगरी दिखाने का कोई अवसर नहीं मिलता। केंद्रीय उद्योग में काम करने वाला उस मशीन का एक पुर्जा भर बनकर रह जाता है। उसकी स्वतंत्रता और उसका व्यक्तित्व समाप्त हो जाता है। 

जीवन की जरूरतों को पूरा करने वाली अर्थव्यवस्था को जीवन के अनुरूप होनेको जरूरी मानते हुए कुमारप्पा ने अर्थव्यवस्था को पांच प्रकारों में वर्गीकृत किया है। जिसे परोपजीवी अर्थव्यवस्था, शिकारी अर्थव्यवस्था, उद्यमी अर्थव्यवस्था, समानतावादी अर्थव्यवस्था तथा सेवा प्रधान अर्थव्यवस्था के रूप में प्रस्तुत किया गया है। इसमें से प्रथम दोव्यवस्थाएं शोषण मूलक हैं इसमें अधिकार और कर्तव्य का कोई विचार नहीं है। तीसरी में मनुष्य अपने परिश्रम और सृजनशीलता से स्वयं अपनी आवश्यकता के लिए उत्पादन करता है। चौथी अर्थव्यवस्था में सामूहिकता की भावना के साथ सबके कल्याण की चिंता होती है। जबकि पांचवीं व्यवस्था उच्च सांस्कृतिक भावना पर आधारित होकर निस्वार्थ दृष्टि से ‘दूसरों की सेवा व विकास में स्वयं का विकास’ के सिद्धांत पर आधारित व्यवस्था है। 

कुमारप्पा के अनुसार अर्थव्यवस्था को ‘समानतावादी’ उद्देश्य के साथ ‘सेवा प्रधान अर्थव्यवस्था’ की भावना और ‘उद्यमी अर्थव्यवस्था’ के माध्यम से निर्देशित किया जाना चाहिए। ग्राम स्वराज्य की अवधारणा में यही अर्थव्यवस्था मुखरित होती है जो श्रम की प्रतिष्ठा और ट्रस्टीशिप की भावना के साथ पूरे समाज के कल्याण की चिंता करती है। इसी विचार को आगे बढ़ाते हुए कुमारप्पा का कहना है कि यदि विकास को स्थायित्व और अहिंसा प्राप्त करनी है तो उसे उपभोक्ता को प्रधानता देनी होगी और हर एक चीज उसकी व्यक्तिगत जरूरत और रूचि के अनुसार पैदा करनी होगी। यह तभी संभव हो सकता है जब उपभोक्ता वस्तुएं उसकी आवश्यकता अनुसार उपभोक्ता की देखरेख में अपनी-अपनी जगह पर ही बने, खासकर घरों में। उनकी यह स्थापना बापू के स्वदेशी और स्वावलंबन का ही पूर्ण समर्थन है जो गांव की आत्मनिर्भरता का मुख्य आधार है।

ग्राम स्वराज के अंतर्गत जिस विकेंद्रित अर्थव्यवस्था पर जोर दिया गया है उसका समर्थन करते हुए जयप्रकाश नारायण ने भी इसकी विशेषताओं की चर्चा करते हुएकहा कि विकेंद्रित आर्थिक विकास का एक लाभ यह होगा कि केंद्रित क्षेत्र की अपेक्षायह विदेशी सहायता पर तथा केंद्र पर हमारी निर्भरता कम करेगा। उन्होंने इसके मुख्य रूप से इसके तीन कारण भी बताएं। पहला स्वैच्छिक श्रम कातत्व अपेक्षाकृत कम होगा, दूसरा वह बहुत बड़े अनुपात में लघु बचतो को आकृष्ट कर उनका उपयोग करेगा, और तीसरा ऊपरी खर्च एवं यातायात तथा अन्य सामाजिक मूल्य बहुत कम होंगे। उनके अनुसार इस अर्थ में विकेंद्रित अर्थव्यवस्था अधिक लोकतांत्रिक होगी। 

जयप्रकाश नारायण ने इस व्यवस्था को अत्यंत आधुनिक किस्म की अर्थव्यवस्था के रूप में चिन्हित करते हुए कहा कि ऐसी अर्थव्यवस्था ना आज है और ना कभी रही है और इसके निर्माण के लिए विज्ञान का जिसमें सामाजिक विज्ञान भी शामिल है यथासंभव अधिक से अधिक सहारा लेना होगा। जेपी के शब्दों में “इस विकेंद्रित अर्थव्यवस्था के लिए एक नई यंत्र प्रौद्योगिकी का और साथ ही एक नई सामाजिक आर्थिक प्रौद्योगिकी का निर्माण करना होगा। स्वराज के इस सपने को साकार करने के लिए आर्थिक विकेंद्रीकरण के साथ-साथ सत्ता अर्थात राजनीतिक सत्ता का भी विकेंद्रीकरण अनिवार्य होगा।”

मूलतः ग्राम स्वराज का आधार राजनैतिक सत्ता का ही विकेंद्रीकरण है।जब गांधी यह कहते हैं कि वह सत्ता को 7 लाख गांवों में बिखेरना चाहते हैं तो इसका आशय राजनीतिक सत्ता का विकेंद्रीकरण ही था।यह इस सत्ता के विकेंद्रीकरण का माध्यम पंचायत को मानते थे ग्राम स्वराज के बुनियादी सिद्धांतों में पंचायत को शामिल करते हुए उनकी परिकल्पना थी कि गांव का शासन चलाने के लिए हर साल गांव के 5 आदमियों की एक पंचायत चुनी जाएगी। इस पंचायत को सभी प्रकार की आवश्यकता सत्ता और अधिकार रहेंगे। उनके अनुसार इस ग्राम शासन में व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर आधार रखने वाला संपूर्ण प्रजातंत्र काम करेगा। उनका मानना था कि आजादी का अर्थ हिंदुस्तान के आम लोगों की आजादी होनी चाहिए। इसके लिए हर एक गांव में प्रजातंत्र या पंचायत का राज होगा इसका मतलब यह होगा कि हर एक गांव को अपने पांव पर खड़ा रहना होगा। 

आज जिस आत्मनिर्भरता अथवा स्वावलंबन की बात की जा रही है बापू से पंचायतों के माध्यम से ही खड़ा करना चाहते थे। इस पर उनको इतना विश्वास था कि वेइसे ही भारत के पुनर्निर्माण का मूलाधार मानते थे। बापू ने पंचायत के जिस पुरातन मिठास की बात की है वह शताब्दियों से इस देश की वाहक रही है। भारत के गांव समाज ने अपने बेहतर संचालन के लिए जो सरल जीवन पद्धति अपनाई उसे ही पंचायत की संज्ञा दी गई। जैसा कि पूर्व में उल्लेख किया गया है कि संबंधों पर आधारित परिवार और पड़ोस को मिलाकर ही एक सांस्कृतिक इकाई के रूप में गांव की संरचना हुई है।

आज जब यह कहा जा रहा है कि दुनिया की तमाम प्राचीन सभ्यताएं मिट गई लेकिन ‘कुछ खास बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी’। तब यदि गहराई से देखें तो यह श्रेय पंचायत की उस जीवनशैली को जाता है जो परिवार और पड़ोस के मूल तंतु ‘संबंध’ को बनाने अथवा बेहतर करने के लिए सदैव प्रयोग की जाती रही। परिवार और पड़ोस बचा रहा तो गांव बचा रहा और गांव बचा रहा तो भारत की संस्कृति बची रही। जब तक भारत की सहजीवन और सहअस्तित्व की संस्कृति बची है तब तक भारत भी बचा है। 

पंचायत इन मूल्यों को जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में व्यावहरित करती रही है। तभी तो वह जीवन के केंद्र में प्रतिस्थापित हो गई थी। तभी तो मैगस्थनीज की घोषणा कि पंचायतें गांव जीवन का ही नहीं अपितु समस्त भारतीय जीवन का अनिवार्य अंग बन गई हैं, इसी बात का परिचायक है। उसके अनुसार उस समय के नगर शासन भी ग्राम शासन की तर्ज पर ही विकसित हुए थे।

वास्तव में पंचायतें भारत की सामाजिक और राजनीतिक दोनों व्यवस्थाओं का आधार बन गई थी। गांव समाज जो सामान्यतः अपनी संस्कृति और परंपरा के आधार पर चलता था उसके संचालन और नियमन का कार्य पंचायतें करती थी। उस समय के राजतंत्रीय और गणतंत्रीय शासन के लिए भी पंचायतों की आवश्यकता कुछ कम नहीं थी। बल्कि स्वयं स्फूर्त सामाजिक व्यवस्थाअथवा राज्य सरकार द्वारा नियोजित शासन का संचालन इन्हीं के माध्यम से होता था। इस पूरी व्यवस्था को ईवी हैबल यदि आर्यों की प्रजातांत्रिक पद्धति की आधारशिला मानता था तो लॉर्ड मेटकाफ गांव समाज के छोटे-छोटे प्रजातंत्रों की नियोजन एवं संचालन प्रणाली के रूप में इस को प्रतिस्थापित किया था। 

पंचायत की इसी बेहतर व्यवस्था का परिणाम मानते हुए फाह्यान ने अपने संस्मरण में लिखा है कियह ग्राम राज्य का ही प्रत्यक्ष फल है कि लोग स्वेच्छा से बंधुता के नियमों का पालन करते हैं और बड़े शांतिप्रिय और उन्नतशील हैं। वास्तव में इस बंधुता शांतिप्रियता और उन्नतिशीलता ने ही भारत के गांवों को समृद्धि और संपन्नता से परिपूर्ण किया था। ट्रेवेनीयर के शब्दों में ‘प्रत्येक गांव में मैदा, मक्खन, दूध, साग, सब्जियां, खांड और मिठाई प्रचुर मात्रा में मिल जाती थी जो गांव की सुख और समृद्धि की परिचायक थी। कार्ल मार्क्स ने भारत के ग्राम समुदायों की परिपूर्णता और आत्मनिर्भरता की प्रशंसा करते हुए एशिया के समाज के सुदृढ़ संगठन और स्थायित्व का श्रेय इन्हीं स्वावलंबी ग्राम समुदायों की उत्पादन प्रणाली को ही दिया था।

(डॉ.चंद्रशेखर प्राण तीसरी सरकार अभियान के संस्थापक हैं और ग्राम स्वराज्य की स्थापना के लिए काम कर रहे हैं।)

(भाग-2, जारी…)