ग्रामयुग डायरी : मंगोल संस्कृति में नदी के जल को दूषित करने की सजा मौत थी

मंगोल संस्कृति में नदी और तालाब को किसी भी तरीके से दूषित करना अपराध था और इसकी सजा मौत थी। कपड़ा धोना तो दूर की बात है, मंगोलों के लिए नदी में नहाना और हाथ-मुंह धोना भी अपराध था।

पिछले दिनों कपड़ा धोने के बहाने मुझे भगवान विष्णु से लेकर मंगोल, तुर्क, मुगल, अंग्रेज, सिनेमा, टीवी और मोबाइल फोन सब याद आ गए। दरअसल हुआ यह कि जब पुणे और कोल्हापुर होते हुए मैं 20 नवंबर को दिल्ली एनसीआर के अपने फ्लैट पर पहुंचा तो श्रीमती जी की तबियत देखकर मन उदास हो गया। टायफायड होने के कारण वह कुछ दिनों से बिस्तर पर थीं।

प्रायः देखा गया है कि हमारे जीवन में कई लोगों की भूमिका हवा, पानी और धूप की तरह होती है। उनकी उपस्थिति का हमारे लिए क्या अर्थ है, इस पर हमारा ध्यान ही नहीं जाता। हम उनके योगदान का अनुभव तब कर पाते हैं जब उनकी सक्रियता किसी कारण बाधित होती है। जीवन में जब ऐसे अवसर आते हैं तब हम परेशान होते हैं, लेकिन इसका एक सकारात्मकर पहलू भी है। ऐसे मौके हमें जीवन को नजदीक से जानने और समझने का मौका देते हैं।

मैं जिस परिवेश में पला-बढ़ा हूं, उसमें मुझे ‘घर के काम’ कभी नहीं करने पड़े। पहले मां और बाद में पत्नी ने मुझे घर के आंतरिक परिचालन से मुक्त रखा। इस स्थिति को कुछ लोग सौभाग्य मान सकते हैं जबकि कुछ लोग इसे मेरी पुरुषवादी मानसिकता का परिचायक बताएंगे, लेकिन मुझे लगता है कि यह प्रबंधन का एक व्यवहारिक तरीका है। हम एक-दूसरे के काम का सम्मान करते हुए अपने-अपने काम पर ध्यान दें तो घर ही नहीं, देश और समाज भी अच्छे से चलता है। सामान्य स्थिति में हमें वही काम करना चाहिए जिसमें हमारी ‘उत्पादकता’ सबसे अच्छी हो। लेकिन जब स्थितियां असामान्य हों तो हमें वह काम भी निःसंकोच करना चाहिए जिसे हमने कभी न किया हो।

इसी आधार पर मैंने तय किया कि घर में जो कपड़े हैं, उन्हें धुलने का काम मैं करूंगा। कपड़े अधिक थे, इसलिए वाशिंग मशीन का प्रयोग सुविधाजनक था। लेकिन समस्या यह थी कि मैंने कभी वाशिंग मशीन चलाई ही नहीं थी। अपने इस अनाड़ीपन पर मुझे खीझ हो रही थी लेकिन श्रीमती जी ने मेरी मुश्किल आसान कर दी। उन्होंने मशीन चलाने में मेरी मदद की और इस प्रकार सभी कपड़े आसानी से धुल गए। अब मुझे डिटर्जेंट की झाग से लथपथ कपड़ों को खंगालना अर्थात उन्हें झागमुक्त करना था। इस प्रक्रिया को करते हुए मैंने अनुभव किया कि एक बाल्टी कपड़ा साफ करने में मुझे कई बाल्टी डिटर्जेन्ट युक्त गंदा पानी सीवर में बहाना पड़ रहा है। यह देख मुझे थोड़ी चिंता हुई क्योंकि इस डिटर्जेंट युक्त पानी का हमारे जलस्रोतों पर बहुत बुरा असर पड़ता है।

मैं सोचने लगा कि यदि मैं मंगोल सम्राट चंगेज खान के राज्य में होता तो अब तक मेरी गर्दन काट दी गई होती। बता दूं कि मंगोल संस्कृति में नदी और तालाब को किसी भी तरीके से दूषित करना अपराध था और इसकी सजा मौत थी। कपड़ा धोना तो दूर की बात है, मंगोलों के लिए नदी में नहाना और हाथ-मुंह धोना भी अपराध था। चंगेज खान के राज्य में मुसलमानों को किसी नदी या तालाब में वजू करने (नमाज के पहले हाथ, पैर धोने) की भी मनाही थी। जो भी इस नियम का उल्लंघन करते हुए पाया जाता उसे मृत्यु दंड मिलता था।

प्रायः देखा गया है कि हम जिस परिवेश में बड़े होते हैं, हम वहीं के जीवन मूल्यों और नियमों को सार्वभौमिक मान लेते हैं। हमें लगता है कि पूरी दुनिया को उन्हीं जीवन मूल्यों को मानना चाहिए। जो लोग हमारे जीवन मूल्यों को स्वीकार नहीं करते, उन्हें हम नासमझ, मूर्ख, असभ्य और कई बार अपराधी भी मान बैठते हैं। मंगोलों ने यही गलती की। बाद में यही गलती तुर्क, मुगल और अंग्रेज विजेताओं ने भी दोहराई। उन्होंने अपने-अपने परिवेश के नियमों को भारत में जबर्दस्ती लागू किए। उनके शासनकाल में भारतीय परंपराओं को यदि जबरन रोका नहीं गया तो उन्हें तिरस्कृत करने का हर संभव प्रयास किया गया।

पहले जब विदेशी यात्री भारत आते तो वे यह देखकर हैरान हो जाते थे कि यहां लोग कपड़े कम और आभूषण अधिक पहनते हैं। बड़े से बड़े सम्राट अपने दरबार में धोती और उत्तरीय पहनकर ही आते थे। सम्राट ही नहीं, यहां तो परम वैभव के प्रतीक भगवान श्री हरि विष्णु भी केवल धोती और उत्तरीय ही पहने दिखाए गए हैं। यह ऐसा वस्त्र है जो हमारी जलवायु के अनुसार विकसित हुआ था।

अतीत में भारत की जो जलवायु थी, कमोबेश आज भी वही है, लेकिन हमारे वस्त्र बिल्कुल बदल चुके हैंl बदलाव का यह सिलसिला मोटे तौर पर 13वीं शदी में शुरू हुआ जब तुर्कों ने दिल्ली को केन्द्र बनाकर भारत में अपना राज्य स्थापित करना शुरू किया। तुर्क शब्द को मुसलमान शब्द का पर्यायवाची मान लिया जाता है लेकिन ऐसा है नहीं। तुर्क वास्तव में एक जातीय समूह का नाम है जिनका मूल निवास पूर्वोत्तर एशिया है। ठंडे इलाके से होने के कारण ये हमेशा अपने शरीर को ढककर रखते थे। यही आदत मुगलों की भी थी जो तुर्कों के बाद भारत में आए।

इसे इस्लाम का प्रभाव कहें या कुछ और कारण, भारत में आने के बाद भी तुर्कों और मुगलों ने यहां की भेष-भूषा को अपनाने में कोई रुचि नहीं दिखाई। वे अपने मूल स्थान की आदतों के अनुसार हमेशा शरीर को ढककर रखने पर जोर देते रहे। धीरे-धीरे उनकी देखादेखी अभिजात्य भारतीयों का पहनावा भी बदलने लगा और इस प्रकार हमारे यहां भी शरीर को हमेशा ढककर रखने का चलन शुरू हो गया।

अंग्रेजों के आने के बाद भारत की वस्त्र परंपरा में एक और मोड़ आया। अब केवल अभिजात्य वर्ग ही नहीं बल्कि यहां का मध्य वर्ग भी विदेशी स्टाइल को अपनाने लगा। सबसे पहले कमर के ऊपर पहने जाने वाले वस्त्र अपनाए गए। अंग्रेजों के शासनकाल में कई प्रमुख भारतीय आपको धोती और कोट पहने हुए दिखाई देंगे। धीरे-धीरे बदलाव का दायरा बढ़ता गया और लोगों ने जेंटलमैन बनने के नाम पर अंग्रेजों की हूबहू नकल करनी शुरू कर दी। यहां तक कि जून-जुलाई की चिपचिपी गर्मी में भी लोग कोट, पैंट और टाई आदि पहनकर घूमने लगे। यह नकल अंग्रेजों के जाने के बाद भी न केवल जारी रही, बल्कि और तेज होती गई।

लंबे समय तक गांवों का पहनावा इस विदेशी (शहरी) प्रभाव से मुक्त रहा लेकिन अब यहां भी तेजी से बदलाव हो रहे हैं। पहनावे की बात करें तो हम इस समय बदलाव के तीसरे चरण में हैं जिसका कारक बाजार है। बाजार अपना काम प्रचार माध्यमों अर्थात मीडिया के द्वारा दबे पांव करता है। अतीत में जो काम तुर्क, मुगल और अंग्रेज नहीं कर पाए, उसे सिनेमा और टेलीवीजन ने कर दिया। और उनसे भी जो बचा रह गया था, उसे मोबाइल फोन अब कुछ वर्षों में पूरा करने वाला है। वह दिन दूर नहीं जब भारत ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया के लोग कमोबेश एक जैसा ही पहनेंगे। लोग अपने वस्त्रों का चुनाव अपने देश-प्रदेश की जलवायु और वहां की सांस्कृतिक परंपरा के आधार पर नहीं बल्कि बाजार के सेट किए हुए फैशन ट्रेंड के आधार पर करेंगे।

धीरे-धीरे साफ कपड़े की परिभाषा भी बदल रही है। पहले कई बार सामान्य पानी से भी कपड़ा धो लिया जाता था लेकिन अब तो उसे हर बार साबुन से धोना जरूरी माना जाता है और वह भी खूब रगड़-रगड़कर। मुझे कई बार लगता है कि देश का उच्च वर्ग और अब मध्य वर्ग भी साफ-सफाई के मामले में अतिवादी होता जा रहा है। मनोवैज्ञानिक भाषा में कहें तो वह ऑब्सेसिव कंपल्सिव डिसआर्डर की ओर बढ़ता दिख रहा है।

साफ-सुथरे और पर्याप्त कपड़े पहनना सभ्य होने की निशानी है लेकिन हमें मालूम होना चाहिए कि इसकी सीमारेखा क्या है। हमें स्वयं से यह सवाल करना होगा कि कपड़ों के मामले में हमारी जो आदत विकसित हो रही है, क्या उसे प्रकृति लंबे समय तक झेल पाएगी? इस सवाल के साथ हमें हिम्मत जुटाकर खुद से कुछ और सवाल भी पूछने चाहिए। जैसे कि हम क्या पहन रहे हैं? क्यों पहन रहे हैं? और किसके कहने पर पहन रहे हैं?

(विमल कुमार सिंह ग्रामयुग अभियान के संयोजक हैं।)

First Published on: December 2, 2022 7:50 PM
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